“मानसिक असहमति के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने दी तलाक की मंजूरी: वैवाहिक संबंधों में ‘टूट चुके विश्वास’ को माना मानसिक उत्पीड़न”

“मानसिक असहमति के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने दी तलाक की मंजूरी: वैवाहिक संबंधों में ‘टूट चुके विश्वास’ को माना मानसिक उत्पीड़न”


पूरा लेख:
सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय: मानसिक असहमति के चलते पति-पत्नी को तलाक की मंजूरी

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में सिविल अपील संख्या 9832/2022 (Giri Law Office) में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसमें पति-पत्नी के बीच लगातार मानसिक असहमति और तनावपूर्ण संबंधों के आधार पर तलाक को मंजूरी दी गई। इस फैसले ने भारतीय पारिवारिक कानून की व्याख्या में एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है।

🔷 निर्णय का सार

न्यायालय की पीठ ने कहा कि:

“यदि पति और पत्नी के बीच वैवाहिक जीवन में निरंतर मानसिक तनाव, आपसी विवाद और असहमति बनी रहती है, और यदि इन संबंधों को सुधारने की कोई वास्तविक संभावना नहीं है, तो वैवाहिक संबंधों को जबरन बनाए रखना किसी भी पक्ष के लिए मानसिक उत्पीड़न बन सकता है।”

कोर्ट ने माना कि वैवाहिक संबंध सिर्फ एक विधिक बंधन नहीं, बल्कि भावनात्मक और मानसिक संतुलन पर आधारित सामाजिक संस्था है। जब यह संतुलन लंबे समय तक टूट जाए, तो विवाह को केवल सामाजिक दिखावे के लिए बनाए रखना अन्यायपूर्ण है।


🔷 तलाक की अनुमति क्यों दी गई?

  • दोनों पक्षों के बीच लंबे समय से मानसिक असहमति और संवादहीनता बनी हुई थी।
  • विवाह में किसी भी प्रकार का विश्वास या सामंजस्य शेष नहीं रह गया था।
  • समझौते की कोई संभावना नहीं थी, जिससे विवाह को जारी रखना मनःपीड़ा का कारण बन रहा था।

कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में, जब शादी निर्जीव हो चुकी हो और उसका कोई सामाजिक या व्यक्तिगत उद्देश्य शेष न बचा हो, तो उसे विधिक रूप से समाप्त करना ही सभी के लिए न्यायोचित होगा।


🔷 महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ

  1. “टूटा हुआ विवाह, केवल कागजों पर जीवित नहीं रह सकता।”
  2. “ऐसा संबंध जिसमें कोई भावनात्मक लगाव या सहयोग न हो, उसे बनाए रखना दोनों पक्षों के लिए मानसिक उत्पीड़न के समान है।”
  3. “न्याय केवल विधि का पालन नहीं, बल्कि व्यावहारिक न्याय की भावना से होना चाहिए।”

🔷 व्यापक प्रभाव

यह फैसला उन हजारों वैवाहिक मामलों के लिए मिसाल है जहाँ:

  • पति-पत्नी साथ नहीं रह पा रहे हैं,
  • परंतु तलाक आपसी सहमति से नहीं हो पा रहा है,
  • और कोर्ट को यह तय करना होता है कि “क्या मानसिक उत्पीड़न तलाक का आधार हो सकता है?”

निष्कर्ष:

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय यह स्पष्ट करता है कि जब पति-पत्नी के संबंधों में स्थायी दरार आ जाए, और मानसिक शांति पूरी तरह भंग हो जाए, तो विवाह को बनाए रखना किसी भी पक्ष के लिए लाभकारी नहीं होता। ऐसे में न्यायालय का दायित्व बनता है कि वह वैवाहिक संबंधों के सामाजिक यथार्थ को पहचानकर उचित निर्णय दे।