“समावेशन की दिशा में महत्वपूर्ण कदम: Kerala High Court द्वारा Bar Council of India को ट्रांसजेंडर विधि-छात्रों के लिए सभी केरल लॉ कॉलेजों में 2 अतिरिक्त सीटों की स्वीकृति देने का निर्देश”
प्रस्तावना
भारत के संवैधानिक लोकतंत्र में समान अवसर और समावेशन (inclusion) की अवधारणा न केवल आदर्शवाद है बल्कि व्यवहार में उसे लागू करने की दिशा में न्यायालयों, विधि-निर्माताओं और संस्थानों को सक्रिय भूमिका निभानी पड़ी है। विशेष रूप से लैंगिक रूपांतरण (gender transition) और ट्रांसजेंडर-समुदाय की भागीदारी-विहीनता और अवसरों की कमी एक सामाजिक-न्याय का प्रश्न रही है। ऐसे में जब यह मामला सामने आया कि केरल में एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति को कानूनी शिक्षा-क्षेत्र में प्रवेश से वंचित रखा गया — तो यह सिर्फ उस व्यक्ति की कहानी नहीं थी, बल्कि व्यापक सवाल उत्पन्न हो गया कि न्यायप्राप्ति के दृष्टि से, समावेशन-नीति क्या पर्याप्त है, संस्थागत बदलाव कब सुनिश्चित होंगे, और विशेष रूप से शिक्षा-विभाग एवं विधि-उपायोग (legal education) में ट्रांसजेंडर-समानता कब क्रियान्वित होगी।
हाल ही में, केरल उच्च न्यायालय ने एक अंतरिम आदेश जारी कर सभी राज्य के कानून-कॉलेजों (Law Colleges) में ट्रांसजेंडर विधि-छात्रों के लिए दो (2) अतिरिक्त सीटें बनाने की राज्य सरकार की प्रस्तावना को मंजूरी देने के लिए बार काउंसिल ऑफ इंडिया को निर्देश दिया है। इस निर्णय का महत्व सिर्फ समावेशन की दृष्टि से नहीं बल्कि उच्च शिक्षा-नीति, संवैधानिक अधिकारों और न्यायप्रणाली की जवाबदेही के दृष्टिकोण से भी है। इस लेख में हम — पृष्ठभूमि, मामले का संक्षिप्त विवरण, मुख्य न्यायिक तर्क-निर्णय, संवैधानिक-कानूनी विश्लेषण, सामाजिक-शैक्षणिक प्रभाव, चुनौतियाँ एवं भविष्य की दिशा — विस्तार से चर्चा करेंगे।
पृष्ठभूमि
केरल राज्य में लॉ प्रवेश प्रक्रिया एवं विधि-शिक्षा की स्थिति विशेष रूप से महत्वपूर्ण रही है। राज्य-सरकार द्वारा संचालित विभिन्न गवर्नमेंट लॉ कॉलेजों में प्रवेश के लिए Kerala Law Entrance Examination (KLEE) जैसी परीक्षा आयोजित की जाती है। इस प्रक्रिया में एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति ने आवेदन किया था, सफलतापूर्वक परीक्षा उत्तीर्ण भी किया था और उसे मेरिट-रैंक-लिस्ट में शामिल किया गया। लेकिन उसे प्रवेश नहीं मिला क्योंकि लॉ कॉलेजों में “ट्रांसजेंडर” श्रेणी या उस हेतु आरक्षित सीट नहीं थी।
इस घटना ने राज्य सरकार को यह प्रस्ताव देने के लिए प्रेरित किया कि प्रत्येक लॉ कॉलेज में ट्रांसजेंडर वर्ग के लिए अतिरिक्त 2 सीटें बनाई जाएँ ताकि समावेशन सुनिश्चित हो सके। यह प्रस्ताव 6 अगस्त 2025 को बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) को भेजा गया था।
मगर कारगर स्वीकृति देर से हुई, और न्यायालय के समक्ष यह मामला प्रस्तुत हुआ जहाँ ट्रांसजेंडर-छात्रों के अधिकार-वंचित होने का दावा किया गया।
मामला का विवरण
इस मामले की मुख्य याचिका बनी — Esai Clara वर्सस राज्य-of-केरल एवं अन्य (WP(C) 30999/2025)। याचिकाकर्ता ट्रांसजेंडर महिला हैं, जिन्होंने KLEE 2025 में आवेदन किया था, परीक्षा उत्तीर्ण की व मेरिट-लिस्ट में शामिल हुई थीं, लेकिन प्रवेश नहीं मिला क्योंकि प्रवेश-आवंटन सूची में ट्रांसजेंडर श्रेणी के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी।
याचिकाकर्ता ने यह न्यायालय में तर्क दिया कि न केवल यह उनकी मौलिक संवैधानिक अधिकारों का हनन है बल्कि यह निर्णय NALSA v. Union of India (2014) के निर्देशों और Transgender Persons (Protection of Rights) Act, 2019 के प्रावधानों के विरुद्ध है।
क्षेत्रीय प्रवेश-प्रक्रिया के निगमन के दृष्टिकोण से, राज्य सरकार ने प्रस्ताव भेजा था कि राज्य-स्तरीय गवर्नमेंट लॉ कॉलेजों में ट्रांसजेंडर छात्र-श्रेणी के लिए 2 अतिरिक्त सीटें आरक्षित की जाएं। लेकिन स्वीकृति की प्रक्रिया लंबित थी, जिसके कारण न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा। न्यायालय के समक्ष BCI ने यह बताया कि यह मामला उनके “Standing Committee for Legal Education” को भेजा गया था, जिसने इसे “General Council” के समक्ष विचार करने की सिफारिश की है, लेकिन अगले बैठक-दिन की तिथि तय नहीं हो पाई थी।
न्यायालय का आदेश एवं मुख्य तर्क
24 अक्टूबर 2025 को न्यायमूर्ति V. G. Arun की पीठ ने अंतरिम आदेश जारी किया, जिसमें कहा गया —
- “In my opinion, the issue cannot wait endlessly for the General Council of the Bar Council to meet.”
- राज्य सरकार द्वारा 6 अगस्त 2025 को प्रस्तुत किये प्रस्ताव (प्रत्येक लॉ कॉलेज में ट्रांसजेंडर-छात्रों के लिए 2 अतिरिक्त सीटें) को BCI द्वारा दस (10) दिन के भीतर स्वीकृति/अनुमोदन किया जाना चाहिए।
- यह आदेश सभी लॉ कॉलेजों में लागू होगा — अर्थात् केवल आवेदनकर्ता-कॉलेज नहीं बल्कि केरल राज्य-संबद्ध समस्त लॉ कॉलेज।
न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया कि ट्रांसजेंडर-समुदाय को शिक्षा-क्षेत्र में प्रवेश-अवसर मिलना संवैधानिक दृष्टि से आवश्यक है और यदि प्रक्रिया-रोधी देरी होती रहे तो यह कांग्रेस (conscience) एवं न्यायप्राप्ति (access to justice) के मूलभूत सिद्धांतों के विपरीत होगा।
इसके अतिरिक्त न्यायालय ने प्रवेश-प्रक्रिया-समय की दृष्टि से यह देखा कि यदि स्वीकृति-प्रक्रिया और सीट-आरक्षण निर्णय देर तक टलता रहा तो आगामी प्रवेश-चक्र प्रभावित होंगे, जो छात्रों के हित में नहीं है। यह देखते हुए न्यायालय ने तत्काल निर्देश जारी करना उचित पाया।
संवैधानिक-कानूनी विश्लेषण
ट्रांसजेंडर-अधिकार एवं समावेशन
- NALSA (2014) में National Legal Services Authority v. Union of India ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को पहचान देने, उनका self-identification सुनिश्चित करने तथा शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार आदि क्षेत्रों में affirmative action की दिशा में कदम उठाने का निर्देश दिया था।
- ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकार-सुरक्षा हेतु Transgender Persons (Protection of Rights) Act, 2019 में विशेष प्रावधान है कि “State shall take measures” ताकि उन्हें शिक्षा-विधि-रोजगार आदि में बराबरी के अवसर मिलें।
- न्यायिक समीक्षा-प्रकार में यह सिद्ध हो चुका है कि शिक्षा-कॉलेजों में प्रवेश-अवसर केवल मेरिट-अधारित नहीं हो सकते, जब सामाजिक-पीड़ित समूह हों जिनका पारंपरिक रूप से पहुंच न्यून रही हो — वहाँ संवैधानिक दृष्टि से “सम-भागीदारी” (equal participation) सुनिश्चित करना आवश्यक है।
उच्च शिक्षा-प्रवेश और आरक्षण-नीति
- राज्य-सरकारों के पास उच्च शिक्षा-संस्थान-प्रवेश के लिए आरक्षण-नीति अपनाने का विवेक रहता है, बशर्ते कि उसे नियम-विनियम, प्रवेश-प्रक्रिया-औचित्य, और सामाजिक-न्याय की दृष्टि से ठोस कारण मिलें।
- इस मामले में राज्य सरकार द्वारा ट्रांसजेंडर छात्रों के लिए अतिरिक्त 2 सीटें आरक्षित करने का प्रस्ताव, एक affirmative measure है। लेकिन उसे संस्थागत स्तर (BCI द्वारा मान्यता-प्राप्त प्रवेश-प्रणाली) से जोड़ने के लिए, नियामक प्राधिकरण (BCI) की स्वीकृति महत्वपूर्ण थी।
- न्यायालय ने देखा कि स्वीकृति-प्रक्रिया अनिश्चित काल तक टल रही थी जिससे समय-सीमा प्रभावित हो रही थी — न्याय-प्राप्ति की दृष्टि से यह स्वीकार्य नहीं था।
न्यायालय की भूमिका एवं प्रवर्तन-दायित्व
- उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि नियम-प्रक्रिया का इंतज़ार “अनिश्चित काल” तक नहीं किया जा सकता, क्योंकि इससे संवैधानिक अधिकारों का delay हो रहा है।
- इस निर्णय से यह संकेत मिलता है कि जब संस्थागत प्रक्रिया धीमा हो — विशेषकर तब जब सामाजिक-पंचायती समूह (marginalised) की पहुँच बनी हो — न्यायालय को हालात हस्तक्षेप योग्य मानने का दायित्व है।
- साथ ही यह प्रमाणित होता है कि प्रवेश-प्रक्रिया-सुधार सिर्फ नीति-पुस्तक में ही नहीं बल्कि नियामक-स्वीकृति, समय-प्रबंधन और संस्थागत क्रियान्वयन में भी व्यावहारिक रूप से होनी चाहिए।
सामाजिक-शैक्षणिक प्रभाव
ट्रांसजेंडर छात्रों के लिए अवसर
- यदि इस आदेश के अनुरूप प्रत्येक लॉ कॉलेज में ट्रांसजेंडर छात्रों के लिए 2 अतिरिक्त सीटें सुनिश्चित की जाती हैं, तो यह पहली बार शिक्षा-क्षेत्र में उनके लिए न्यायसंगत प्रवेश-दायित्व का अनुकरण बनेगा।
- इस प्रकार ट्रांसजेंडर छात्रों को एक ऐसा मंच मिलेगा जहाँ वे विधि-शिक्षा प्राप्त कर सकती-सकते हैं, जिससे उनकी सामाजिक स्थिति-वित्तीय-साक्षरता में सुधार संभव होगा।
- लॉ कॉलेज जैसे विशेषाधिकार-वर्गीय शिक्षा-क्षेत्र में ट्रांसजेंडर-सदस्यता बढ़ने से सामाजिक समावेशन-संदेश मजबूत होगा।
संस्थानों एवं प्रवेश-प्रक्रिया-वर्ग के लिए संकेत
- यह निर्णय राज्य एवं संस्थानों के लिए संकेत है कि समावेशन-नीति सिर्फ घोषणात्मक नहीं हो सकती — उसे प्रवेश, सीट-आरक्षण, स्वीकृति-प्रक्रिया, समय-सीमा और सफल क्रियान्वयन से जोड़ा जाना चाहिए।
- लॉ कॉलेजों, प्रवेश-प्राधिकरणों और BCI जैसे नियामकों को यह दिखाना होगा कि ट्रांसजेंडर-छात्रों के लिए बनाए गए आरक्षण-उपाय सिर्फ कागज पर नहीं बल्कि व्यवहार-स्तर पर क्रियान्वित हो रहे हैं।
- इस तरह का निर्णय अन्य राज्यों में भी प्रेरणा स्रोत बन सकता है — कि ट्रांसजेंडर छात्रों को विभिन्न उच्च शिक्षा-प्रवेशों में समुचित अवसर दिए जाएँ।
संभावित चुनौतियाँ और बाधाएँ
- प्रत्येक लॉ कॉलेज-वर्ग में सीटें बढ़ाना, प्रवेश-प्रक्रिया-सिस्टम में बदलाव, मेरिट-सूचियाँ में समायोजन, एवं ट्रांसजेंडर-वर्ग के लिए अलग-सूचियों का निर्माण — इन सबका वास्तविक क्रियान्वयन चुनौतीपूर्ण होगा।
- ट्रांसजेंडर छात्रों को प्रवेश मिलने से पूर्व उन्हें समुचित सहायता-वित्त-परामर्श-सहवास (counselling) उपलब्ध कराना भी जरूरी है, ताकि वे शिक्षा-प्रक्रिया में सफल हो सकें।
- समय-सीमा (10 दिन) में BCI द्वारा स्वीकृति देना व संस्थानों द्वारा सीटों का निर्माण सुनिश्चित करना प्रबंधन-प्रशासन की दृष्टि से संकुचित हो सकता है।
- आरक्षण-नीति में अक्सर “मेट्रिक योग्यता”, “उम्मीदवार-चयन” आदि प्रारूप-रीति-मानक स्थापित होने चाहिए — ट्रांसजेंडर-वर्ग के लिए विशेष मानदंड तैयार करना एक अतिरिक्त प्रशासकीय जिम्मेदारी होगी।
निष्कर्ष
इस प्रकार, केरल उच्च न्यायालय द्वारा जारी यह निर्णय एक सांकेतिक क्षण है — जहाँ न्यायप्रणाली ने न सिर्फ सामाजिक-समावेशन के निर्देशों को पुनः पुष्टि की है बल्कि प्रवेश-शिक्षा-प्रणाली में ट्रांसजेंडर-अधिकारों की व्यावहारिक उपस्थिति सुनिश्चित करने की दिशा में सक्रिय हस्तक्षेप किया है। यदि Bar Council of India और संबंधित लॉ कॉलेज समयबद्ध एवं समुचित रूप से इस आदेश का अनुपालन करें, तो यह सिर्फ एक आदेश नहीं रहेगा, बल्कि ट्रांसजेंडर-विधि-शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन-केंद्रित मॉडल बन सकता है।
हालाँकि, यह ध्यान देने योग्य है कि निर्णय सिर्फ “सिटें बढ़ाना” नहीं है — उससे आगे यह देखना होगा कि ट्रांसजेंडर-छात्रों को शिक्षा-प्रक्रिया में सफलता मिल रही है, उनके लिए सहायक वातावरण निर्माण हो रहा है, और संस्थागत समावेशन की संस्कृति मजबूत हो रही है। यही वह असली मापदंड होगा जिससे यह कदम सार्थक साबित होगा।