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“मात्र आशंका से अपराध नहीं: वाराणसी कोर्ट का तर्क और अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रश्न”

“केवल अपेक्षा ही अपराध का भूत नहीं: ‘सिख’-उक्ति मामले में वाराणसी न्यायालय द्वारा FIR खारिजी और लोकतांत्रिक विमर्श की चुनौतियाँ”


प्रस्तावना

राजनीति और भाषण-स्वतंत्रता, सामाजिक संवेदनशीलताएँ तथा न्यायालयीय विवेचना—इन सबके सम्मिलित परिप्रेक्ष्य में यह मामला महत्वपूर्ण है। पिछले दिनों, कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा अमेरिका में सिख समुदाय के संदर्भ में की गई कथित टिप्पणी के आधार पर एक शिकायत दाखिल हुई, जिसे अंतत: District Court, Varanasi (वाराणसी) ने खारिज कर दिया। न्यायालय ने तर्क दिया कि “केवल अपराध होने की आशंका” (mere apprehension of offence) पर्याप्त आधार नहीं बन सकती है एफआईआर दर्ज करने का। इस निर्णय के सामाजिक-राजनीतिक-कानूनी आयाम हैं, जिन्हें इस लेख में समझने का प्रयास होगा।


घटना-पृष्ठभूमि

  1. वर्ष 2024 सप्ताहीय समय में राहुल गांधी अमेरिका की एक यात्रा पर गए थे। उस अवसर पर उनके द्वारा कहा गया कहा जाता है कि —

    “क्या, एक सिख के रूप में वह भारत में पगड़ी पहन पाएगा? … क्या वह भारत में गुरुद्वारे जा पाएगा? … यही लड़ाई है।”
    इस कथन को लेकर यह आरोप उठे कि उन्होंने भारत में सिख-समुदाय की सुरक्षा-छवि पर प्रश्न उठाया है और उसे सामाजिक रूप से विभाजनकारी रूप दिया गया है।

  2. इसके बाद, एक निवासी, Nageshwar Mishra नामक वरणासी निवासी ने सर्नाथ (वाराणसी) पुलिस थाना में एफआईआर दर्ज कराने का प्रयास किया, लेकिन जब वह सफल नहीं हुआ, तब उसने न्यायालय में आवेदन प्रस्तुत किया।
  3. आवेदन में यह तर्क दिया गया कि राहुल गांधी की टिप्पणी कालेशियन (खालिस्तान) समर्थित तत्वों द्वारा प्रायोजित हिंसा-प्रचार के लिए उपयोग की जा सकती है; इससे भारत की एकता, अखण्डता एवं सार्वभौमिकता को खतरा है। लेकिन आवेदन में टिप्पणी की ठीक समय, तिथि एवं स्थान का विवरण नहीं था।

न्यायालय का आदेश और तर्क

वाराणसी की अतिरिक्त मुख्य न्यायालय (एमपी/एमएलए कोर्ट) के न्यायाधीश Neeraj Kumar Tripathi ने इस आवेदन को रद्द किया। मुख्य बिंदु इस प्रकार थे:

  • ऐसा आवेदन तभी स्वीकार हो सकता है जब सूचना (जानकारी) प्रारम्भिक रूप से अपराध के तत्व प्रस्तुत करती हो; केवल आशंका-आधारित आवेदन पर्याप्त नहीं।
  • आवेदनकर्ता ने सिर्फ यह अनुमान लगाया कि उक्त टिप्पणी भविष्य में खालिस्तानी तत्वों द्वारा इस्तेमाल हो सकती है, लेकिन किसी घटना-संदर्भ या प्रमाण-संपर्क का प्रस्तुतीकरण नहीं किया गया।
  • आवेदन में टिप्पणी की तिथि, समय और स्थान उल्लेखित नहीं थे; इसलिये अनुमानित वक्तव्य को सीमित रूप से “ग़ल तरह की टिप्पणी” माना गया, जिसे अपराध-घटना की श्रेणी में नहीं लाया जा सकता।
  • न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि “केवल अपराध होने की आशंका” (mere apprehension) भ्रष्टाचार नहीं हो सकती कि स्वतः एफआईआर दर्ज हो जाए। यह सिद्धांत सुप्रीम कोर्ट के मतानुसार भी है।

इस तरह से, आवेदन खारिज कर दिया गया।


कानूनी-तत्त्वों का विश्लेषण

इस निर्णय के माध्यम से कुछ महत्वपूर्ण कानून-विषयक बिंदु उभर कर सामने आते हैं:

  • भारतीय दंड संहिता और फर्स्ट इंफर्मेशन रिपोर्ट (FIR) की प्रक्रिया में यह आवश्यक है कि शिकायत में प्रारंभिक सूचना हो कि अपराध हुआ या हो रहा है—यानी, सिर्फ संभावित कारण नहीं बल्कि ऐसा तथ्य जो “अपराध होने का संकेत” देता हो। न्यायालय ने इसे सही ठहराया।
  • “मुझे डर है कि …”-शैली की शिकायतें जहाँ भविष्य की संभावना पर आधारित होती हों, उन्हें स्वतः एफआईआर का आधार नहीं माना जा सकता।
  • भाषण-स्वतंत्रता तथा सामाजिक-सुरक्षा के बीच संतुलन बनाना चुनौतीपूर्ण है: जब कोई सार्वजनिक व्यक्ति टिप्पणी करता है, तो उसकी अभिव्यक्ति-स्वतंत्रता versus सामाजिक सद्भाव की रक्षा का प्रश्न खड़ा होता है।
  • इस मामले में, वक्तव्य विदेश में दिया गया था, जिससे यह अतिरिक्त कानूनी जटिलता उत्पन्न हुई — क्या विदेश में कही गई टिप्पणी पर भारत में एफआईआर की प्रक्रिया चल सकती है? न्यायालय ने उस विशेष बिंदु को फिलहाल तकनीकी रूप से नहीं बढ़ाया बल्कि आवेदन में दोष देख कर खारिज किया।

सामाजिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य

यह मामला केवल एक न्याय-प्रश्न नहीं है; इसके पीछे सामाजिक-राजनीतिक आयाम भी हैं:

  • सिख-समुदाय भारत की एक महत्वपूर्ण धार्मिक-जातीय पहचान है। उनकी पारंपरिक पगड़ी, कारਾ (कड़ा) आदि प्रतीक हैं। जब राहुल गांधी ने सवाल उठाया कि “क्या एक सिख पगड़ी पहन पाएगा?” – यह प्रतीकात्मक था, लेकिन उस पर प्रतिक्रिया भी हुई कि कहीं यह प्रश्न समाज में असुरक्षा का संदेश न दे।
  • सामाजिक दृष्टि से, किसी समुदाय को यह एहसास हो कि उसे सुरक्षित नहीं माना जा रहा, तो वह पर्याप्त खतरे की बात है—लेकिन क्या इसे सार्वजनिक टिप्पणी के रूप में उठाना सही है, या इससे विभाजन बढ़ेगा? इस द्वंद्व ने इस विवाद को गरमाया।
  • राजनीतिक दृष्टि से, ऐसे बयान अक्सर प्रचार-आक्रोश का विषय बन जाते हैं; विपक्षी-नेता समर्थकों को सांत्वना देते हुए बोलते हैं कि “हम सुने हैं, हम देख रहे हैं” आदि; वहीं सरकार समर्थक इसे देश-विरोधी या असंवेदनशील बताकर राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश करते हैं।
  • मीडिया तथा सोशल-मीडिया प्लेटफॉर्म्स में यह मामला ‘मछली-भोजन’ की तरह फैल गया: तुरंत ट्वीट, बयान-बाजी, समर्थन-विरोध का माहौल। ऐसे माहौल में न्याय-प्रक्रिया शांतिपूर्वक चलना कठिन हो जाता है।

आलोचनाएँ एवं कुछ विचार

इस पूरे क्षेत्र में कुछ आलोचनात्मक दृष्टिकोण भी उठाए जा सकते हैं:

  • एक ओर कहा जा सकता है कि टिप्पणी का खुलापन स्वागत योग्य है — लोकतंत्र में नेता-जनता संवाद कर सकते हैं, प्रश्न उठा सकते हैं, असुरक्षा की बात कर सकते हैं। जब किसी समूह को लगता है कि उसकी मौजूदगी सुरक्षित नहीं है, उसे नजरंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए।
  • दूसरी ओर, कहा जा सकता है कि सार्वजनिक व्यक्ति को भाषण देते समय संवेदनशीलता का ध्यान रखना चाहिए — वह टिप्पणी जो विदेश में होती हो, भारत-प्रसंग में कही जाती हो, उसके प्रभाव-प्रसार को देखना चाहिए। शायद बेहतर होता कि टिप्पणी का स्वरूप “इस तरह की बात मुझे सुनने को मिली है कि…” जैसा संवादात्मक हो, बजाय “क्या वह पहन पाएगा?”-प्रश्न के।
  • न्यायालय ने सही कहा कि सिर्फ डर अथवा भविष्य-संभावना आधार बनने के लिए पर्याप्त नहीं; लेकिन क्या यह भय-संकेत, अनुभव-आधारित नहीं कहा जा सकता? अगर कुछ सिख-मित्रों ने यह अनुभव किया हो कि उन्हें गुरुद्वारे में जाना मुश्किल लगा, या पगड़ी पहनने पर प्रतिक्रिया मिली हो—तो क्या वह केवल “अनुभव” न्याय-प्रक्रिया के सामने आए हैं? ऐसे बिंदु इस मामले में सामने नहीं आए, जिससे अनुसन्धान की गुंजाइश थी।
  • राजनीतिक रूप से – जब नेता विदेश में जाते हैं और वहां भारतीय-वर्ग, भारतीय-समुदाय की बात करते हैं, तो यह ‘भारत-प्रतिमान’ (India image) पर भी प्रभाव डालता है। सत्ता पक्ष इसे ‘देश का अपमान’ कह सकता है, विपक्ष ‘सत्य-उजागर’ कह सकता है। ऐसे में बयान-विनिमय पर राजनीति करना आसान है, लेकिन न्याय-तर्क दुर्लभ हो जाता है।
  • मीडिया की भूमिका भी विचारणीय है: कहीं-कहीं खबरों का हेडलाइन-फोकस “सिखों पर टिप्पणी” जैसा बनता है, जबकि विवरण में “भारत में एक सिख को पगड़ी पहनने-पहनने की अनुमति है या नहीं?” जैसे प्रश्न-स्तर पर है। अतः सुपरफिशियल कवरेज से विमर्श-गुण कम होता है।

निष्कर्ष एवं आगे का मार्ग

इस पूरे घटनाक्रम से निम्न निष्कर्ष निकलते हैं:

  • न्यायालय ने स्पष्ट संकेत दिया है कि एफआईआर दर्ज करने के लिए केवल आशंका पर्याप्त नहीं – प्रारंभिक सूचना और तथ्य-आधार होना आवश्यक है।
  • सार्वजनिक-व्यक्ति द्वारा की गई टिप्पणी, विशेषकर सामाजिक-सदर्भ में, लोकतंत्र की जटिलताओं को उजागर करती है—स्वतंत्रता, सामाजिक-सुरक्षा, शब्द-स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है।
  • सिख-समुदाय जैसे अल्पसंख्यकीय वर्गों की सामाजिक-सुरक्षा पर चर्चा होना-चाहिए; पर वह चर्चा इस तरह हो कि वह विभाजन नहीं बढ़ाए।
  • आने वाले समय में यह देखा जाना है कि क्या इस प्रकार के मामलों में आगे कोई जांच होती है, क्या टिप्पणी का प्रसार-प्रभाव मापा जाता है, और क्या न्याय-प्रक्रिया समय पर निष्पक्ष रूप से आगे बढ़ती है।
  • सामाजिक-माध्यमों और राजनीतिक-वर्तालाप में भी यह शिक्षण है कि कोई बयान देने से पहले उसका भाषाई, सांस्कृतिक, राजनीतिक, सामाजिक प्रभाव सोचना-चाहिए।