मातृत्व कानून (Maternity Law) – महिला सशक्तिकरण और कार्यस्थल पर अधिकारों की सुरक्षा
भूमिका
मातृत्व प्रत्येक महिला के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण चरण होता है। इस दौरान महिला को शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से विशेष देखभाल की आवश्यकता होती है। परंतु आज के बदलते सामाजिक और आर्थिक परिवेश में, जब महिलाएँ कार्यक्षेत्र में सक्रिय रूप से भाग ले रही हैं, तब मातृत्व और नौकरी दोनों को संतुलित करना उनके लिए चुनौतीपूर्ण हो जाता है। यही कारण है कि दुनिया के लगभग सभी देशों में मातृत्व से संबंधित कानून बनाए गए हैं, जिन्हें Maternity Law (मातृत्व कानून) कहा जाता है।
मातृत्व कानून का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि महिला को गर्भावस्था और प्रसव के दौरान नौकरी से वंचित न होना पड़े, उसे आर्थिक सुरक्षा मिले और नवजात शिशु को मां का संपूर्ण सहयोग और देखभाल मिल सके। भारत में इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण कानून मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 है, जिसे समय-समय पर संशोधित किया गया, और वर्ष 2017 में इसमें ऐतिहासिक संशोधन कर मातृत्व लाभ को और अधिक व्यापक बनाया गया।
1. मातृत्व कानून की परिभाषा
मातृत्व कानून (Maternity Law) उन विधिक प्रावधानों को कहते हैं, जिनका उद्देश्य कार्यरत महिलाओं को गर्भावस्था, प्रसव और शिशु देखभाल के दौरान सुरक्षा प्रदान करना है। इसके तहत महिला कर्मचारी को अवकाश, वेतन, नौकरी की सुरक्षा, स्तनपान के लिए समय और अन्य आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं।
2. मातृत्व कानून की आवश्यकता
- महिला स्वास्थ्य की सुरक्षा – गर्भावस्था और प्रसव के दौरान महिला को शारीरिक आराम और चिकित्सकीय देखभाल की आवश्यकता होती है।
- शिशु के हितों की रक्षा – नवजात शिशु को प्रारंभिक छह महीने तक मां का स्तनपान और देखभाल सबसे अधिक जरूरी होती है।
- नौकरी की सुरक्षा – मातृत्व के कारण महिला को नौकरी से वंचित न होना पड़े।
- लैंगिक समानता – कार्यस्थल पर पुरुष और महिला कर्मचारियों के बीच समानता सुनिश्चित करना।
- अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूपता – अन्य देशों की तरह भारत में भी मातृत्व लाभ प्रदान करना।
3. भारत में मातृत्व कानून का विकास
(क) मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961
भारत में मातृत्व कानून की नींव 1961 में पड़ी। यह अधिनियम उन सभी प्रतिष्ठानों पर लागू हुआ, जहां 10 या अधिक कर्मचारी कार्यरत हैं। इसके प्रमुख प्रावधान थे –
- 12 सप्ताह का मातृत्व अवकाश।
- गर्भवती महिला को औसत दैनिक वेतन के बराबर भुगतान।
- प्रसव से पहले अधिकतम 6 सप्ताह का अवकाश।
- स्तनपान के लिए विशेष ब्रेक की सुविधा।
- चिकित्सा बोनस का प्रावधान।
(ख) मातृत्व लाभ संशोधन अधिनियम, 2017
बदलते सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य को देखते हुए सरकार ने वर्ष 2017 में इस अधिनियम में संशोधन किया, जो महिलाओं के लिए ऐतिहासिक कदम था।
4. मातृत्व लाभ संशोधन अधिनियम, 2017 के प्रमुख प्रावधान
- अवकाश की अवधि में वृद्धि
- पहले यह अवधि 12 सप्ताह थी।
- संशोधन के बाद इसे 26 सप्ताह कर दिया गया।
- पहले दो बच्चों के लिए 26 सप्ताह और तीसरे बच्चे से आगे के लिए 12 सप्ताह।
- गोद लेने और सरोगेसी से जुड़ी माताओं को लाभ
- गोद लेने वाली माताओं तथा सरोगेसी से जन्मे बच्चों की माताओं को 12 सप्ताह का अवकाश।
- प्रसव पूर्व अवकाश
- प्रसव से पहले अधिकतम 8 सप्ताह का अवकाश।
- क्रेच सुविधा
- 50 या उससे अधिक कर्मचारियों वाले प्रतिष्ठानों में क्रेच (शिशु देखभाल केंद्र) की अनिवार्यता।
- महिला कर्मचारी दिन में चार बार क्रेच का उपयोग कर सकती हैं।
- वर्क फ्रॉम होम (Work from Home)
- मातृत्व अवकाश के बाद महिला नियोक्ता से वर्क फ्रॉम होम की मांग कर सकती है, यदि काम की प्रकृति इसकी अनुमति दे।
- वेतन का भुगतान
- अवकाश के दौरान महिला को उसके औसत दैनिक वेतन के बराबर भुगतान मिलेगा।
- सूचना देने की बाध्यता
- नियोक्ता को महिला कर्मचारी को अधिनियम के प्रावधानों की जानकारी लिखित या इलेक्ट्रॉनिक रूप में देनी होगी।
5. मातृत्व कानून के लाभ
- महिलाओं का सशक्तिकरण – महिलाएं मातृत्व के दौरान बिना नौकरी खोने के डर के आराम कर सकती हैं।
- शिशु का समुचित विकास – नवजात शिशु को मां का पूर्ण सहयोग और देखभाल मिलती है।
- कार्य-जीवन संतुलन – महिलाओं को पारिवारिक और पेशेवर जीवन में संतुलन बनाने का अवसर मिलता है।
- सामाजिक सुरक्षा – मातृत्व को केवल निजी नहीं बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी माना जाने लगा।
- नियोक्ताओं की जिम्मेदारी – कार्यस्थल पर महिलाओं के हितों की रक्षा सुनिश्चित करना।
6. चुनौतियां और आलोचनाएं
- नियोक्ताओं पर आर्थिक बोझ – अवकाश के दौरान वेतन भुगतान और क्रेच सुविधा से छोटे और मध्यम उद्योगों पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है।
- असंगठित क्षेत्र का अभाव – भारत में अधिकांश महिलाएं असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं, जिन्हें इस कानून का लाभ नहीं मिलता।
- पितृत्व अवकाश का अभाव – केवल माताओं को अवकाश मिलना, जबकि पिता भी शिशु देखभाल में समान रूप से भागीदार हो सकते हैं।
- भर्ती में भेदभाव – कुछ नियोक्ता महिलाओं को नौकरी देने से बचते हैं ताकि मातृत्व लाभ का खर्च न उठाना पड़े।
- प्रभावी निगरानी का अभाव – कई संस्थान अब भी क्रेच सुविधा या अन्य प्रावधानों का पालन नहीं करते।
7. अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण (International Perspective)
- ILO (International Labour Organization) की Maternity Protection Convention, 2000 के अनुसार कम से कम 14 सप्ताह का अवकाश अनिवार्य होना चाहिए।
- स्वीडन, नॉर्वे और कनाडा जैसे देशों में मातृत्व और पितृत्व दोनों अवकाश उपलब्ध हैं।
- भारत में 26 सप्ताह का अवकाश विश्व स्तर पर लंबी अवधि माना जाता है, लेकिन यहां पितृत्व अवकाश को अभी कानूनी मान्यता नहीं है।
8. न्यायालयीन दृष्टिकोण (Judicial Approach)
भारतीय न्यायालयों ने कई बार मातृत्व लाभ को महिला का मौलिक अधिकार मानते हुए महिला कर्मचारियों के पक्ष में निर्णय दिए हैं।
- Municipal Corporation of Delhi v. Female Workers (2000) – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मातृत्व एक मौलिक मानव अधिकार है और असंगठित क्षेत्र की महिलाओं को भी इसका लाभ मिलना चाहिए।
- Shah vs Presiding Officer, Labour Court (1978) – अदालत ने कहा कि मातृत्व लाभ का उद्देश्य केवल महिला नहीं बल्कि शिशु के हितों की रक्षा करना भी है।
9. भविष्य की दिशा (Future Prospects)
- पितृत्व अवकाश का प्रावधान – ताकि बाल देखभाल में पिता की भी समान भागीदारी हो।
- असंगठित क्षेत्र की महिलाओं तक पहुंच – अलग फंड या सरकारी योजनाओं द्वारा।
- नियोक्ता पर बोझ कम करना – सरकार और उद्योगों के बीच लागत साझा करने की नीति।
- कठोर निगरानी व्यवस्था – ताकि क्रेच और अन्य प्रावधानों का सही तरह से पालन हो।
निष्कर्ष
भारत में मातृत्व कानून, विशेषकर मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 और उसका 2017 का संशोधन, महिलाओं के लिए एक ऐतिहासिक कदम है। इस कानून ने महिलाओं को मातृत्व के दौरान आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा प्रदान की तथा शिशु के स्वास्थ्य और विकास को प्राथमिकता दी। हालांकि, इसके कार्यान्वयन में चुनौतियां मौजूद हैं, विशेषकर असंगठित क्षेत्र की महिलाओं और नियोक्ताओं पर आर्थिक बोझ से संबंधित।
भविष्य में यदि सरकार इस कानून में पितृत्व अवकाश का समावेश करे, असंगठित क्षेत्र की महिलाओं को लाभ पहुंचाने के उपाय करे और नियोक्ताओं पर बोझ को कम करने के लिए विशेष फंड बनाए, तो यह कानून और भी प्रभावी हो जाएगा।
अतः यह कहा जा सकता है कि मातृत्व कानून केवल महिला कर्मचारियों के हित में नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र के समग्र विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान करता है।