लेख शीर्षक:
“महिला न्यायाधीश के सम्मान की रक्षा: सुप्रीम कोर्ट ने वकील की याचिका खारिज की, 18 माह की सजा बरकरार”
भूमिका:
भारतीय न्यायपालिका न केवल न्याय देने वाली संस्था है, बल्कि वह न्यायिक गरिमा और मर्यादा की संरक्षक भी है। न्यायिक अधिकारियों की प्रतिष्ठा और उनके कार्यक्षेत्र की पवित्रता बनाए रखना आवश्यक है, ताकि वे स्वतंत्र और भयमुक्त होकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें। इस सिद्धांत को दोहराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक वकील द्वारा महिला मजिस्ट्रेट के साथ की गई अभद्रता को गंभीर अपराध मानते हुए उसकी सजा को चुनौती देने वाली याचिका खारिज कर दी।
मामले की पृष्ठभूमि:
- घटना 30 अक्टूबर 2015 की है जब वकील संजय राठौर ने दिल्ली की एक अदालत में महिला महानगर मजिस्ट्रेट के साथ मौखिक अभद्रता की थी।
- वकील ट्रैफिक चालान से संबंधित अपने मुकदमे की सुनवाई में स्थगन (adjournment) से नाराज़ था।
- इसके बाद उसने अदालत के भीतर हंगामा किया और महिला न्यायिक अधिकारी के खिलाफ अभद्र और अश्लील भाषा का प्रयोग किया।
- इस आचरण को अदालत की अवमानना माना गया।
न्यायिक कार्यवाही:
- इस आचरण के लिए वकील को 18 महीने की सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई।
- वकील ने इस सजा के विरुद्ध दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर की, लेकिन 26 मई को हाई कोर्ट ने भी याचिका को खारिज कर दिया और सजा बरकरार रखी।
- इसके बाद वकील ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जिसमें दया या सजा में राहत की मांग की गई।
सुप्रीम कोर्ट का रुख:
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने इस मामले में स्पष्ट और कड़ा रुख अपनाया:
❝ हमें मामले की प्रकृति को देखना होगा। यहां एक महिला न्यायिक अधिकारी का अपमान किया गया है। ❞
- कोर्ट ने कहा कि यह केवल व्यक्तिगत आचरण का मामला नहीं, बल्कि न्यायपालिका की गरिमा और स्वतंत्रता पर आघात है।
- पीठ ने अभद्र टिप्पणियों और व्यवहार को रेखांकित करते हुए पूछा:
“कोई महिला न्यायिक अधिकारी इस तरह के माहौल में कैसे कार्य कर सकती है?“
- कोर्ट ने माना कि न्यायिक अधिकारियों का अपमान पूरी न्यायिक प्रणाली की अवमानना है।
- इसलिए कोर्ट ने वकील की याचिका को पूर्ण रूप से खारिज कर दिया।
महत्वपूर्ण पहलू:
- यह निर्णय एक सशक्त संदेश देता है कि न्यायालय में अनुशासन, मर्यादा और गरिमा के साथ व्यवहार करना आवश्यक है।
- महिला न्यायाधीशों की सुरक्षा और उनके प्रति सम्मान सुनिश्चित करना न्यायपालिका की प्राथमिकता है।
- वकीलों जैसे न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा माने जाने वाले व्यक्तियों से अपेक्षा की जाती है कि वे उच्च नैतिक मानदंडों का पालन करें।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय यह स्पष्ट करता है कि न्यायपालिका किसी भी प्रकार की अशालीनता, अपमानजनक भाषा या अवमाननापूर्ण व्यवहार को सहन नहीं करेगी, विशेषकर जब वह व्यवहार महिला न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ हो। यह न केवल एक महिला न्यायाधीश के सम्मान की रक्षा का मामला था, बल्कि न्याय प्रणाली की आत्मा को सुरक्षित रखने का प्रयास भी था।