IndianLawNotes.com

महिला नौकरी कर रही हो तब भी बेरोजगार पूर्व पति को उठाना होगा खर्च :

महिला नौकरी कर रही हो तब भी बेरोजगार पूर्व पति को उठाना होगा खर्च : कलकत्ता हाई कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय

प्रस्तावना

भारतीय पारिवारिक कानून सदैव से एक संवेदनशील विषय रहा है। विवाह के बाद पति और पत्नी दोनों पर कुछ अधिकार और कर्तव्य निर्धारित होते हैं। तलाक या अलगाव की स्थिति में सबसे बड़ा प्रश्न भरण-पोषण (Maintenance) से जुड़ा होता है। यह केवल एक कानूनी दायित्व नहीं बल्कि एक सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी भी है। इसी पृष्ठभूमि में हाल ही में कलकत्ता हाई कोर्ट का एक निर्णय सामने आया जिसने यह स्पष्ट कर दिया कि भले ही पत्नी नौकरी कर रही हो, उसके भरण-पोषण की जिम्मेदारी पूर्व पति पर बनी रहेगी, चाहे वह बेरोजगार क्यों न हो।


मामले की पृष्ठभूमि

  • इस प्रकरण में पत्नी एक निजी नौकरी कर रही थी और उसे ₹12,000 मासिक वेतन प्राप्त हो रहा था।
  • पति बेरोजगार था और उसने यह तर्क दिया कि जब पत्नी स्वयं कमाती है तो वह किसी प्रकार के भरण-पोषण की हकदार नहीं है।
  • फैमिली कोर्ट ने पति की दलील मान ली और भरण-पोषण का आदेश देने से मना कर दिया।
  • पत्नी ने इस आदेश को चुनौती दी और मामला कलकत्ता हाई कोर्ट में पहुँचा।

हाई कोर्ट का निर्णय

न्यायमूर्ति अजय कुमार मुखोपाध्याय की पीठ ने फैमिली कोर्ट के आदेश को निरस्त करते हुए कहा कि:

  1. भरण-पोषण पत्नी का वैधानिक अधिकार है। इसे केवल इस आधार पर अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि महिला किसी नौकरी में कार्यरत है।
  2. महिला का मामूली वेतन उसके जीवन-यापन और गरिमामय जीवन के लिए पर्याप्त नहीं है।
  3. पति चाहे बेरोजगार हो, लेकिन उसे अपनी जिम्मेदारी से बचने का अधिकार नहीं है।
  4. पति को रोजगार खोजने और कमाने के प्रयास करने ही होंगे।
  5. बेरोजगारी एक बहाना नहीं बन सकती।

कानूनी विश्लेषण

1. भरण-पोषण का अधिकार और CrPC की धारा 125

  • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अंतर्गत पत्नी, नाबालिग संतान और माता-पिता भरण-पोषण पाने के हकदार होते हैं।
  • इसका उद्देश्य किसी भी व्यक्ति को भूखा या बेघर होने से बचाना है।
  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यह प्रावधान सामाजिक न्याय का उपाय (measure of social justice) है।

2. महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय

  • चतुर्भुज बनाम उषा देवी (2008, SC): पति का दायित्व है कि पत्नी सम्मानजनक जीवन जी सके।
  • राजनेश बनाम नेहा (2020, SC): सुप्रीम कोर्ट ने भरण-पोषण की राशि निर्धारण के लिए विस्तृत दिशानिर्देश दिए।
  • शैलजा बनाम खलील अहमद (2017, SC): महिला की आय भरण-पोषण से वंचित करने का आधार नहीं हो सकती।

3. हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 और 25

  • धारा 24: मुकदमे के दौरान किसी भी पक्ष (पति या पत्नी) को भरण-पोषण देने का आदेश।
  • धारा 25: तलाक के बाद भी भरण-पोषण स्थायी रूप से निर्धारित किया जा सकता है।

सामाजिक महत्व

  1. महिला सशक्तिकरण: यह फैसला दिखाता है कि महिलाओं की नौकरी उनकी गरिमा का प्रतीक है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि पति की जिम्मेदारी समाप्त हो जाए।
  2. गरीब और मध्यमवर्गीय महिलाओं के लिए राहत: छोटे वेतन वाली महिलाएँ घर का पूरा खर्च नहीं उठा पातीं।
  3. समानता और न्याय: यह निर्णय लैंगिक समानता को बढ़ावा देता है और बताता है कि विवाह संबंध केवल अधिकार नहीं बल्कि कर्तव्य भी हैं।

आलोचनात्मक दृष्टिकोण

  • पति पर अतिरिक्त बोझ: बेरोजगार पति पर यह बोझ अनुचित लग सकता है, लेकिन अदालत ने कहा कि यह उसकी जिम्मेदारी है कि वह रोजगार खोजे।
  • दुरुपयोग की संभावना: कुछ लोग तर्क देते हैं कि पत्नी अपनी आय छुपा सकती है या गलत तथ्य पेश कर सकती है। ऐसे मामलों में अदालत को आय की सही जाँच करनी होगी।
  • संतुलन की आवश्यकता: अदालतों को ऐसे मामलों में पति और पत्नी दोनों की वास्तविक आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखना चाहिए।

तुलनात्मक दृष्टिकोण (अन्य देशों से तुलना)

  • अमेरिका: वहाँ alimony की व्यवस्था है, जिसमें पत्नी या पति दोनों में से आर्थिक रूप से कमजोर पक्ष भरण-पोषण मांग सकता है।
  • ब्रिटेन: Spousal maintenance केवल तभी दिया जाता है जब एक पक्ष आर्थिक रूप से काफी कमजोर हो।
  • भारत: यहाँ सामाजिक संरचना और महिलाओं की कमजोर स्थिति को ध्यान में रखते हुए अदालतें अधिक उदार दृष्टिकोण अपनाती हैं।

व्यावहारिक प्रभाव

  • इस फैसले के बाद फैमिली कोर्ट्स पर दबाव होगा कि वे पति की बेरोजगारी को बहाना न मानें।
  • महिलाएँ अपने अधिकारों के लिए अधिक आत्मविश्वास से मुकदमे दायर कर सकेंगी।
  • पुरुषों को यह समझना होगा कि बेरोजगारी उन्हें जिम्मेदारी से मुक्त नहीं करती।

निष्कर्ष

कलकत्ता हाई कोर्ट का यह फैसला न केवल कानूनी दृष्टि से बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी मील का पत्थर है। यह स्पष्ट संदेश देता है कि भरण-पोषण पत्नी का मौलिक और वैधानिक अधिकार है। पत्नी के रोजगार को बहाना बनाकर पति जिम्मेदारी से नहीं बच सकता। यह निर्णय महिलाओं की गरिमा, आर्थिक सुरक्षा और न्याय की दिशा में एक सशक्त कदम है।


1. भरण-पोषण का मूल उद्देश्य क्या है?

भरण-पोषण का मूल उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी पत्नी, संतान या माता-पिता भूखे या बेसहारा न रहें। भारतीय कानून, विशेषकर दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125, इसी सामाजिक न्याय के आधार पर बनाई गई है। इसका मकसद पति-पत्नी या पारिवारिक संबंध टूटने के बाद भी कमजोर पक्ष को आर्थिक सहारा देना है। अदालतों ने बार-बार कहा है कि यह प्रावधान केवल कानूनी औपचारिकता नहीं, बल्कि नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है। इसलिए महिला नौकरी कर रही हो, तो भी अगर उसकी आय पर्याप्त नहीं है, तो पति को उसका भरण-पोषण करना होगा।


2. कलकत्ता हाई कोर्ट का फैसला क्यों महत्वपूर्ण है?

कलकत्ता हाई कोर्ट का फैसला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें यह स्पष्ट कर दिया गया कि पत्नी का रोजगार पति को जिम्मेदारी से मुक्त नहीं करता। कोर्ट ने कहा कि पत्नी को मात्र मामूली वेतन मिलने का अर्थ यह नहीं कि उसका जीवन गरिमामय हो गया है। पति चाहे बेरोजगार हो, लेकिन वह पत्नी के अधिकार से नहीं बच सकता। यह निर्णय उन महिलाओं के लिए राहत है जो कम वेतन पर काम करती हैं और जीवनयापन में कठिनाई झेलती हैं। साथ ही, यह फैसला पति को यह संदेश देता है कि वह रोजगार की तलाश करे और पत्नी की जरूरतों को पूरा करने में भागीदार बने।


3. भरण-पोषण में बेरोजगारी को बहाना क्यों नहीं माना गया?

अदालत ने कहा कि पति की बेरोजगारी भरण-पोषण न देने का वैध आधार नहीं हो सकती। एक सक्षम व्यक्ति का दायित्व है कि वह रोजगार खोजे और अपने परिवार का दायित्व निभाए। यदि पति बेरोजगार है, तो उसे काम ढूंढने का प्रयास करना चाहिए, न कि पत्नी की आय पर आश्रित होकर जिम्मेदारी से बचना चाहिए। न्यायालयों ने यह स्पष्ट किया है कि पति केवल यह कहकर मुक्त नहीं हो सकता कि उसकी कोई स्थायी आय नहीं है। कानून यह मानता है कि पति शारीरिक रूप से सक्षम है और मेहनत कर सकता है।


4. क्या पत्नी की आय भरण-पोषण से वंचित करने का आधार है?

नहीं, पत्नी की आय अपने आप में भरण-पोषण से वंचित करने का आधार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट ने कई फैसलों में कहा है कि यदि पत्नी की आय पति की तुलना में बहुत कम है या उससे उसका सम्मानजनक जीवन नहीं चल सकता, तो पति को भरण-पोषण देना ही होगा। यह प्रावधान केवल आर्थिक संतुलन स्थापित करने के लिए है। इसलिए, यदि पत्नी नौकरी कर रही है, तब भी अदालत पति की आय और पत्नी की आवश्यकताओं का संतुलन बनाकर भरण-पोषण तय करती है।


5. धारा 125 CrPC का महत्व क्या है?

धारा 125 CrPC भारतीय कानून का एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रावधान है, क्योंकि यह सीधे सामाजिक न्याय और कमजोर वर्गों की सुरक्षा से जुड़ा है। इसके अंतर्गत पत्नी, नाबालिग संतान और माता-पिता भरण-पोषण पाने के पात्र होते हैं। अदालतें इस धारा को सामाजिक कल्याण के उपकरण के रूप में देखती हैं। यह प्रावधान धार्मिक या व्यक्तिगत कानूनों से परे है और सभी धर्मों व समुदायों पर समान रूप से लागू होता है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी व्यक्ति जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित न हो।


6. सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण भरण-पोषण पर कैसा है?

सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में कहा है कि भरण-पोषण केवल आर्थिक सहायता नहीं, बल्कि पत्नी और बच्चों की गरिमा का प्रश्न है। राजनेश बनाम नेहा (2020) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भरण-पोषण की राशि निर्धारण के लिए दिशानिर्देश जारी किए। चतुर्भुज बनाम उषा देवी (2008) में यह कहा गया कि पत्नी को सम्मानजनक जीवन का अधिकार है और पति का कर्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करे। इन निर्णयों से यह स्पष्ट होता है कि अदालतें हमेशा कमजोर पक्ष को सहारा देने की दिशा में कार्य करती हैं।


7. भरण-पोषण और महिला सशक्तिकरण का संबंध क्या है?

भरण-पोषण केवल आर्थिक सहायता नहीं है, बल्कि यह महिला सशक्तिकरण का एक आवश्यक साधन है। विवाह या तलाक के बाद महिलाओं की आर्थिक स्थिति अक्सर कमजोर हो जाती है। ऐसे में यदि पति जिम्मेदारी से बच जाए तो महिला दोहरी कठिनाई में फँस जाती है। भरण-पोषण महिला को अपने अधिकारों के प्रति सजग बनाता है और उसे गरिमामय जीवन जीने का अवसर देता है। कलकत्ता हाई कोर्ट का फैसला इसी दिशा में एक कदम है, जो दिखाता है कि महिला की नौकरी उसका अधिकार है, लेकिन यह पति की जिम्मेदारी को खत्म नहीं करता।


8. अदालत ने पति को क्या संदेश दिया?

अदालत ने पति को यह स्पष्ट संदेश दिया कि वह अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता। यदि वह बेरोजगार है तो उसे रोजगार की तलाश करनी चाहिए। विवाह केवल अधिकारों का बंधन नहीं, बल्कि कर्तव्यों का भी बंधन है। पत्नी का सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित करना पति की प्राथमिक जिम्मेदारी है। अदालत ने कहा कि बेरोजगारी एक वैध कारण नहीं है, बल्कि पुरुष को अपने श्रम और क्षमता का उपयोग करके पत्नी की आर्थिक जरूरतों को पूरा करना होगा। यह संदेश समाज में जिम्मेदारी और समानता दोनों को बढ़ावा देता है।


9. फैसले का सामाजिक महत्व क्या है?

यह फैसला सामाजिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। इससे समाज में यह संदेश जाता है कि महिलाओं की सुरक्षा और गरिमा सर्वोपरि है। यह निर्णय उन महिलाओं के लिए राहत है, जो मामूली आय पर निर्भर हैं और संपूर्ण खर्च नहीं उठा पातीं। यह फैसला पुरुषों को यह याद दिलाता है कि विवाह केवल एक संविदा नहीं, बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी भी है। साथ ही यह समाज में लैंगिक समानता को भी प्रोत्साहित करता है, जिससे महिलाएँ आत्मनिर्भर होते हुए भी अधिकारों से वंचित न रहें।


10. निष्कर्ष: कलकत्ता हाई कोर्ट के निर्णय का महत्व

कलकत्ता हाई कोर्ट का यह फैसला महिलाओं की गरिमा और न्याय की दिशा में एक मील का पत्थर है। इसमें यह स्पष्ट कर दिया गया कि पत्नी की नौकरी पति को जिम्मेदारी से मुक्त नहीं करती। पति बेरोजगार हो या कम आय वाला, उसे पत्नी के भरण-पोषण का दायित्व उठाना ही होगा। यह फैसला न केवल कानून की दृष्टि से बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह महिलाओं की सुरक्षा, समानता और अधिकारों की रक्षा करता है।