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महिला गरिमा सर्वोपरि: कर्नाटक हाईकोर्ट ने मनुस्मृति के श्लोक का हवाला देते हुए कहा—ऐसे अपराध समाज के लिए कलंक हैं

“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते…”: कर्नाटक हाईकोर्ट ने बलात्कार में मददगार आरोपी की जमानत ठुकराई, मनुस्मृति और गांधी के विचारों का हवाला देकर दिया सख्त संदेश


भूमिका

नारी सम्मान, समाज की सभ्यता और न्याय की संवेदना—इन तीनों का संगम तब दिखाई देता है जब न्यायालय अपने फैसले में सिर्फ कानून की धाराओं को नहीं, बल्कि संस्कृति और मानवता की आत्मा को भी आवाज़ देता है। कर्नाटक हाईकोर्ट का हालिया निर्णय ऐसा ही एक उदाहरण है, जिसमें अदालत ने बलात्कार के मामले में मुख्य आरोपी की सहायता करने वाले सह-आरोपी की जमानत याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उसका कृत्य “युवती के जीवन पर धब्बा” बन गया है।

इस फैसले में न्यायमूर्ति एस. रचैया (Justice S. Rachaiah) ने न केवल भारतीय समाज में महिलाओं की गरिमा को रेखांकित किया बल्कि मनुस्मृति और महात्मा गांधी के विचारों का उल्लेख करते हुए यह स्पष्ट किया कि नारी का सम्मान ही समाज की वास्तविक पहचान है।


मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला कर्नाटक के एक जिले का है जहाँ एक युवती के साथ हुए बलात्कार (Rape) के मामले में एक व्यक्ति को मुख्य आरोपी बनाया गया था। जांच के दौरान यह सामने आया कि याचिकाकर्ता, जो मुख्य आरोपी का मित्र था, ने वारदात के समय पीड़िता के भाई को रोककर रखा, ताकि मुख्य आरोपी अपराध को अंजाम दे सके।

जांच एजेंसियों का कहना है कि अगर याचिकाकर्ता ने पीड़िता के भाई को नहीं रोका होता, तो शायद वह घटना को रोक सकता था या समय रहते हस्तक्षेप कर सकता था। यही कारण था कि पुलिस ने उसे “अपराध में सहायक (Aiding the principal offender)” के रूप में नामजद किया।

आरोपी ने अदालत में जमानत के लिए आवेदन दायर किया, यह कहते हुए कि उसने प्रत्यक्ष रूप से बलात्कार नहीं किया और वह निर्दोष है।


अदालत में दलीलें

याचिकाकर्ता की ओर से दलीलें:

  1. उसने किसी के साथ शारीरिक संबंध नहीं बनाए, अतः उसे ‘बलात्कार’ का दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
  2. पुलिस द्वारा लगाए गए आरोप काल्पनिक और अतिशयोक्तिपूर्ण हैं।
  3. वह लंबे समय से हिरासत में है, इसलिए उसे जमानत दी जानी चाहिए।

सरकार की ओर से दलीलें:

  1. याचिकाकर्ता ने मुख्य आरोपी की मदद की और पीड़िता के भाई को रोककर अपराध को संभव बनाया।
  2. यह कृत्य भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376 (Rape) के साथ-साथ धारा 34 (Common Intention) और 120B (Criminal Conspiracy) के तहत दंडनीय है।
  3. ऐसे मामलों में समाज को गलत संदेश जाने से रोकने के लिए जमानत नहीं दी जानी चाहिए।

हाईकोर्ट का फैसला

कर्नाटक हाईकोर्ट ने जमानत याचिका को खारिज (Dismiss) करते हुए सख्त शब्दों में कहा कि अपराध में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करने वाला भी कानूनी रूप से उतना ही दोषी है जितना मुख्य अपराधी।

न्यायमूर्ति एस. रचैया ने अपने आदेश में लिखा:

“यह घटना न केवल पीड़िता के शरीर पर, बल्कि उसके मन और आत्मा पर भी गहरी चोट छोड़ गई है। आरोपी का यह व्यवहार युवती के जीवन पर स्थायी धब्बे की तरह रहेगा।”


मनुस्मृति और गांधी के विचारों का उल्लेख

फैसले में अदालत ने भारतीय संस्कृति और सभ्यता की जड़ों की ओर लौटते हुए मनुस्मृति के प्रसिद्ध श्लोक का उल्लेख किया:

“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता,
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला क्रिया।”

(अर्थात—जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं, और जहाँ उनका अपमान होता है, वहाँ सभी कार्य निष्फल हो जाते हैं।)

न्यायालय ने इस श्लोक का संदर्भ देते हुए कहा कि भारत जैसी सभ्यता में नारी को देवी माना गया है, और किसी भी रूप में उसका अपमान समाज के नैतिक आधार को कमजोर करता है।

साथ ही, अदालत ने महात्मा गांधी के विचारों का हवाला देते हुए कहा:

“गांधीजी ने कहा था कि किसी समाज की वास्तविक प्रगति इस बात से आँकी जा सकती है कि वह अपनी महिलाओं के साथ कैसा व्यवहार करता है।”

न्यायालय ने इस सिद्धांत को दोहराते हुए कहा कि नारी की गरिमा की रक्षा हर नागरिक का नैतिक और संवैधानिक दायित्व है।


न्यायालय की टिप्पणियाँ

फैसले में जस्टिस रचैया ने कहा:

  • “आरोपी ने अपराध के दौरान मुख्य आरोपी की मदद की। इस तरह उसने न केवल कानून का उल्लंघन किया, बल्कि समाज की नैतिक मर्यादा को भी तोड़ा।”
  • “ऐसे अपराध समाज में भय और असुरक्षा की भावना पैदा करते हैं। अदालत का यह कर्तव्य है कि वह ऐसे मामलों में कठोर रुख अपनाए।”
  • “नारी की गरिमा का संरक्षण संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का अभिन्न हिस्सा है।”

कानूनी विश्लेषण

यह निर्णय भारतीय दंड प्रक्रिया की दृष्टि से कई दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है:

  1. सह-आरोपी की भूमिका:
    अदालत ने यह स्पष्ट किया कि यदि कोई व्यक्ति अपराध में प्रत्यक्ष रूप से शामिल नहीं भी है, परंतु उसकी सहायता से अपराध संभव हुआ, तो उसे भी “साझा मंशा (Common Intention)” के तहत दंडित किया जा सकता है।
  2. नैतिक जिम्मेदारी:
    अदालत ने केवल विधिक जिम्मेदारी तक सीमित न रहते हुए, नैतिक दृष्टिकोण से भी आरोपी के आचरण की निंदा की।
  3. महिला गरिमा की सुरक्षा:
    यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 15 (भेदभाव निषेध) और 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) के मूल्यों को सशक्त बनाता है।

सामाजिक महत्व

यह निर्णय केवल एक व्यक्ति की जमानत याचिका तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे समाज को यह संदेश देता है कि महिलाओं के प्रति किसी भी प्रकार की हिंसा, उत्पीड़न या अपमान को सहन नहीं किया जाएगा।

यह फैसला समाज में यह भी दर्शाता है कि भारतीय न्यायपालिका केवल कानून की तकनीकी व्याख्या नहीं करती, बल्कि नैतिकता और मानवीय मूल्यों को भी समान महत्व देती है।


नारी सुरक्षा के प्रति संवैधानिक प्रतिबद्धता

भारत का संविधान महिलाओं की सुरक्षा और समानता के लिए कई संवैधानिक और विधिक प्रावधान प्रदान करता है, जैसे:

  • अनुच्छेद 14: समानता का अधिकार
  • अनुच्छेद 15(3): महिलाओं और बच्चों के हित में विशेष प्रावधान की अनुमति
  • अनुच्छेद 21: गरिमा सहित जीवन का अधिकार
  • धारा 376 IPC: बलात्कार के अपराध के लिए कठोर दंड
  • POCSO Act, 2012: नाबालिग पीड़िताओं की सुरक्षा
  • Criminal Law (Amendment) Act, 2013: निर्भया केस के बाद महिला सुरक्षा से जुड़े सख्त संशोधन

निष्कर्ष

कर्नाटक हाईकोर्ट का यह फैसला नारी सम्मान के संवैधानिक और सांस्कृतिक आयामों को एक साथ जोड़ता है। यह केवल एक कानूनी निर्णय नहीं, बल्कि एक सामाजिक संदेश है—कि समाज तब तक सभ्य नहीं कहलाया जा सकता जब तक उसमें महिलाओं की गरिमा सुरक्षित न हो।

मनुस्मृति के श्लोक से लेकर गांधीजी के विचार तक, यह निर्णय भारत की उस आत्मा को पुनः स्मरण कराता है जो कहती है:

“नारी केवल समाज का हिस्सा नहीं, बल्कि उसकी आत्मा है।”

और जब न्यायालय इस आत्मा के सम्मान में खड़ा होता है, तब न्याय केवल दंड नहीं, बल्कि संस्कृति का पुनर्जागरण बन जाता है।