“महिला गरिमा और पुलिस आचरण की सीमाएँ: ठोप्पानी संजीव राव बनाम राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग मामला—संविधानिक मूल्यों की पुनर्परिभाषा”
🔶 प्रस्तावना
भारत का संविधान केवल कानूनों का संकलन नहीं, बल्कि यह एक नैतिक और सामाजिक संकल्पना है जो हर व्यक्ति की गरिमा, समानता और स्वतंत्रता की रक्षा करता है। भारतीय लोकतंत्र में “Rule of Law” का अर्थ मात्र शासन नहीं, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था है जो प्रत्येक व्यक्ति, विशेषकर महिलाओं, बच्चों और कमजोर वर्गों की गरिमा को सर्वोपरि मानती है।
इसी संवैधानिक दर्शन के आलोक में, ठोप्पानी संजीव राव बनाम राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग एवं अन्य का मामला उभर कर सामने आया। इस प्रकरण ने यह गंभीर प्रश्न उठाया कि क्या हमारे पुलिस प्रशासन में अभी भी संवेदनशीलता और मानवीय गरिमा के प्रति पर्याप्त सम्मान है?
दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा न्यायमूर्ति संजय नारुला की अध्यक्षता में दिए गए निर्णय ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यह दोहराया कि —
“महिलाओं के साथ गरिमा, सम्मान और मर्यादा का व्यवहार न केवल एक सामाजिक आवश्यकता है, बल्कि यह संविधान द्वारा प्रदत्त एक मौलिक दायित्व भी है।”
🔶 मामले की पृष्ठभूमि और तथ्य
याचिकाकर्ता ठोप्पानी संजीव राव, दिल्ली की निवासी एक महिला हैं जिन्होंने पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अनुचित व्यवहार की शिकायत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) के समक्ष दर्ज कराई थी।
उनका आरोप था कि कुछ पुलिस अधिकारियों ने न केवल उनके साथ अभद्र और अपमानजनक भाषा का प्रयोग किया बल्कि उनकी शिकायत को गंभीरता से नहीं लिया।
एनएचआरसी ने, प्रारंभिक जांच के बाद, दिल्ली पुलिस को निर्देश दिया कि वह चार सप्ताह के भीतर उचित कार्रवाई करे और आयोग को रिपोर्ट प्रस्तुत करे।
लेकिन चार सप्ताह बीत जाने के बाद भी न कोई जांच हुई, न कोई रिपोर्ट। यह पुलिस की उदासीनता और संवैधानिक निकायों के प्रति लापरवाही को दर्शाता है।
निराश होकर याचिकाकर्ता ने दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और न्याय की मांग की।
🔶 मुख्य विवाद
इस मामले का मूल प्रश्न था —
क्या पुलिस द्वारा महिला शिकायतकर्ता के प्रति अनुचित भाषा और व्यवहार, तथा NHRC के निर्देशों की अवहेलना, संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) के उल्लंघन के समान है?
और क्या अदालत को यह अधिकार है कि वह पुलिस विभाग को ऐसे मामलों में सुधारात्मक निर्देश दे?
🔶 दिल्ली उच्च न्यायालय का दृष्टिकोण
न्यायमूर्ति संजय नारुला ने अपने निर्णय में अत्यंत संतुलित और संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने कहा —
“राज्य का हर अंग, विशेषकर पुलिस, नागरिकों की सुरक्षा और गरिमा की रक्षा के लिए अस्तित्व में है। यदि यही संस्था किसी महिला के साथ अपमानजनक व्यवहार करती है, तो यह केवल कर्तव्य का उल्लंघन नहीं, बल्कि संविधान का भी अपमान है।”
न्यायालय ने पुलिस विभाग की भूमिका की आलोचना करते हुए कहा कि:
“कानून के प्रवर्तन के दौरान भी पुलिस कर्मियों को यह स्मरण रहना चाहिए कि वे जिस व्यक्ति से संवाद कर रहे हैं, वह एक नागरिक है — जिसके पास भी गरिमा, सम्मान और आत्मसम्मान का अधिकार है। महिलाओं के प्रति अनुचित भाषा या आचरण अस्वीकार्य और दंडनीय है।”
🔶 संविधानिक आधार और अधिकारों का विश्लेषण
- अनुच्छेद 14 – यह सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है। जब पुलिस महिलाओं के साथ भेदभावपूर्ण या अपमानजनक व्यवहार करती है, तो यह समानता के सिद्धांत का उल्लंघन होता है।
- अनुच्छेद 15(3) – यह राज्य को महिलाओं के पक्ष में विशेष प्रावधान बनाने की अनुमति देता है। इसका उद्देश्य महिलाओं की सुरक्षा और सशक्तिकरण है।
- अनुच्छेद 21 – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार। न्यायालय ने कई बार कहा है कि “जीवन” का अर्थ केवल शारीरिक अस्तित्व नहीं, बल्कि सम्मानपूर्वक जीवन है।
- अनुच्छेद 51A(e) – यह नागरिकों का मूल कर्तव्य बनाता है कि वे महिलाओं की गरिमा का सम्मान करें और उनके प्रति हिंसा या अपमानजनक व्यवहार से बचें।
- मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 – यह अधिनियम NHRC को अधिकार देता है कि वह मानवाधिकारों के उल्लंघन पर संज्ञान ले और सुधारात्मक आदेश जारी करे।
🔶 न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देश
दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में निम्नलिखित निर्देश दिए:
- दिल्ली पुलिस को निर्देश दिया गया कि वह NHRC के आदेशों का पालन तत्काल करे और विस्तृत जांच रिपोर्ट प्रस्तुत करे।
- पुलिस अधिकारियों को महिलाओं के साथ बातचीत और जांच के दौरान संवेदनशील भाषा का प्रयोग करने का निर्देश दिया गया।
- सभी जिलों में पुलिस अधिकारियों को Gender Sensitization Training प्रदान की जाए।
- शिकायतों की जांच के दौरान महिलाओं की गोपनीयता और गरिमा की रक्षा की जाए।
- अनुचित व्यवहार करने वाले अधिकारियों के खिलाफ आंतरिक अनुशासनात्मक कार्रवाई सुनिश्चित की जाए।
🔶 महत्वपूर्ण न्यायिक उदाहरण
इस निर्णय में न्यायालय ने पूर्व के कुछ प्रमुख निर्णयों का उल्लेख किया, जिनमें:
- विषाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) – इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि महिलाओं के प्रति किसी भी प्रकार का अपमान या यौन उत्पीड़न अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।
- ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2014) – एफआईआर दर्ज करने में पुलिस की जिम्मेदारी पर जोर दिया गया।
- डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) – गिरफ्तारी के दौरान मानवाधिकारों की रक्षा के लिए दिशा-निर्देश दिए गए।
- नीलाबती बेहरा बनाम उड़ीसा राज्य (1993) – पुलिस हिरासत में मानवाधिकार उल्लंघन पर क्षतिपूर्ति की अवधारणा को मान्यता दी गई।
इन सभी निर्णयों ने यह स्थापित किया कि राज्य के अधिकारियों द्वारा नागरिक की गरिमा को ठेस पहुंचाना संविधान की आत्मा के विपरीत है।
🔶 महिला गरिमा और पुलिस जिम्मेदारी का परस्पर संबंध
महिलाओं के साथ पुलिस का आचरण, राज्य की संवेदनशीलता का मापक है। जब एक महिला किसी अन्याय या हिंसा के बाद पुलिस थाने में जाती है, तो वह न्याय की खोज में होती है, न कि अपमान की।
लेकिन यदि वही संस्था उसे अपमानित करे, तो यह “द्वितीयक पीड़न” (Secondary Victimization) कहलाता है — अर्थात वह व्यक्ति एक बार अपराध का शिकार बनता है और दूसरी बार न्याय प्रक्रिया में असंवेदनशीलता का।
ठोप्पानी संजीव राव के मामले ने इस द्वितीयक पीड़न की समस्या को उजागर किया। न्यायालय ने माना कि महिला की शिकायत की अनदेखी अपने आप में एक संविधानिक अपमान है।
🔶 सामाजिक और प्रशासनिक निहितार्थ
इस निर्णय ने प्रशासनिक व्यवस्था के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण संदेश दिए:
- उत्तरदायित्व (Accountability): अब पुलिस को अपने आचरण के लिए केवल आपराधिक नहीं, बल्कि संवैधानिक जवाबदेही भी निभानी होगी।
- संवेदनशीलता (Sensitivity): महिला शिकायतकर्ताओं के प्रति पुलिस को सहानुभूति और सम्मान के साथ व्यवहार करना होगा।
- सुधारात्मक प्रक्रिया (Reform): पुलिस प्रशिक्षण संस्थानों में Gender Sensitization को पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बनाना आवश्यक है।
🔶 NHRC की भूमिका का मूल्यांकन
मानवाधिकार आयोग देश में मानव गरिमा का संरक्षक है। इस प्रकरण में आयोग ने उचित दिशा-निर्देश तो दिए, परन्तु पुलिस की निष्क्रियता ने आयोग की सीमाओं को उजागर किया।
न्यायालय ने कहा कि NHRC को अपनी निगरानी प्रणाली को मजबूत करना चाहिए ताकि उसके आदेशों का पालन बाध्यकारी हो सके।
🔶 न्यायिक दृष्टिकोण: केवल आदेश नहीं, सामाजिक संदेश
यह निर्णय केवल एक प्रशासनिक निर्देश नहीं, बल्कि एक सामाजिक घोषणापत्र की तरह है जो यह बताता है कि:
“कानून का असली उद्देश्य दंड देना नहीं, बल्कि मानव गरिमा की रक्षा करना है।”
न्यायालय ने इस मामले में जो संवेदनशील भाषा अपनाई, वह यह दर्शाती है कि न्यायपालिका अब केवल अपराध और सजा तक सीमित नहीं, बल्कि वह मानवीय गरिमा की प्रहरी बन चुकी है।
🔶 नारी गरिमा और संविधान: एक दार्शनिक दृष्टि
भारतीय परंपरा में “नारी तू नारायणी” कहा गया है। संविधान ने भी इसी भावना को आधुनिक कानूनी भाषा में व्यक्त किया है।
यदि महिला सम्मानित नहीं है, तो लोकतंत्र अधूरा है।
इस मामले ने यह सुनिश्चित किया कि महिला की गरिमा अब केवल नैतिक विषय नहीं, बल्कि विधिक अधिकार है।
🔶 निष्कर्ष
ठोप्पानी संजीव राव बनाम राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग मामला एक मील का पत्थर है।
यह निर्णय हमें यह याद दिलाता है कि पुलिस केवल अपराधियों से निपटने की संस्था नहीं, बल्कि यह नागरिकों के विश्वास और गरिमा की संरक्षक भी है।
न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि महिलाओं के साथ अनुचित व्यवहार करने वाले पुलिस अधिकारियों के लिए कोई “शून्य सहनशीलता नीति” (Zero Tolerance Policy) अपनाई जानी चाहिए।
यह मामला एक चेतावनी है—
कि न्याय केवल अदालतों में नहीं, बल्कि उस पहले संवाद में शुरू होता है जो पुलिस और नागरिक के बीच होता है।
यदि उस संवाद में गरिमा है, तो न्याय जीवित है;
यदि उसमें अपमान है, तो संविधान मूक हो जाता है।