“मध्य प्रदेश के एडवोकेट जनरल द्वारा नर्सिंग काउंसिल मामले में वसूली गई फीस की जांच की मांग खारिज – सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिका को बताया ‘निराधार’”
भारत के सर्वोच्च न्यायालय में आए एक महत्वपूर्ण प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश के एडवोकेट जनरल द्वारा नर्सिंग काउंसिल से जुड़े एक कानूनी विवाद में कथित रूप से अधिक फीस लिए जाने की जांच की मांग वाली याचिका को खारिज कर दिया। अदालत ने न केवल इस जनहित याचिका (PIL) में कोई ठोस आधार न होने की बात कही, बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि इस प्रकार के संवैधानिक पदों पर बैठे अधिकारियों के कार्यों की समीक्षा बिना पर्याप्त तथ्यों और कानूनी औचित्य के करना न्यायिक समय की बर्बादी है।
यह फैसला उन सभी लोगों के लिए महत्वपूर्ण है, जो अक्सर सार्वजनिक पदों पर नियुक्त विधिक अधिकारियों के कार्यों पर प्रश्न उठाते हैं, लेकिन पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाते। यह लेख मामले की पृष्ठभूमि, याचिकाकर्ता की दलीलों, सुप्रीम कोर्ट के तर्कों, संवैधानिक सिद्धांतों और इस निर्णय के व्यापक प्रभावों पर विस्तृत और गहन विमर्श प्रस्तुत करता है।
1. पृष्ठभूमि : मामला आखिर था क्या?
यह याचिका मध्य प्रदेश नर्सिंग काउंसिल से जुड़े एक विवाद से उत्पन्न हुई, जिसमें एडवोकेट जनरल ने राज्य की ओर से पैरवी की थी। याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि –
- एडवोकेट जनरल ने कथित रूप से अत्यधिक फीस ली,
- यह फीस सार्वजनिक धन से दी गई, इसलिए इसकी जांच आवश्यक है,
- इस प्रकार की फीस सार्वजनिक हित के विरुद्ध है और पारदर्शिता की कमी दर्शाती है।
याचिकाकर्ता का दावा था कि एडवोकेट जनरल का पद एक संवैधानिक पद है, इसलिए उनकी फीस को भी दायित्व और जांच के दायरे में आना चाहिए।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को prima facie ही खारिज करते हुए कहा कि यह याचिका “न तो जनहित के मानकों पर खरी उतरती है और न ही इसमें कोई ठोस तथ्य प्रस्तुत किए गए हैं।”
2. याचिकाकर्ता की मुख्य दलीलें
याचिकाकर्ता ने निम्न तर्क दिए –
(i) एडवोकेट जनरल की फीस सार्वजनिक धन से दी जाती है
चूंकि यह पैसा सरकारी कोष से आता है, इसलिए इसकी पारदर्शी समीक्षा आवश्यक है।
(ii) फीस की ऊँचाई अनुचित और अपारदर्शी है
याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि फीस अनुचित रूप से अधिक थी और इससे सरकारी फंड पर अनावश्यक बोझ पड़ा।
(iii) जनता को यह जानने का अधिकार है कि सरकारी मामलों में कितना धन खर्च होता है
इसलिए अदालत को इस मामले में हस्तक्षेप करना चाहिए।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ये दलीलें केवल आरोप हैं और कोई प्रमाण नहीं प्रस्तुत किया गया।
3. सुप्रीम कोर्ट के तर्क : क्यों PIL को बताया ‘निराधार’?
सुप्रीम कोर्ट ने बहुत सख्त और स्पष्ट टिप्पणियाँ देते हुए याचिका को खारिज किया। अदालत के मुख्य तर्क थे –
(1) एडवोकेट जनरल एक संवैधानिक अधिकारी है—उसकी फीस की जांच अदालत नहीं करेगी
एडवोकेट जनरल भारत के संविधान के अनुच्छेद 165 के अंतर्गत नियुक्त होते हैं।
उनकी नियुक्ति, कर्तव्य और कार्यप्रणाली संवैधानिक रूप से संरक्षित है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि –
“एडवोकेट जनरल की फीस का निर्धारण एक नीतिगत प्रश्न है, न कि न्यायिक समीक्षा का विषय।”
(2) PIL का दुरुपयोग – केवल आरोप, कोई सबूत नहीं
अदालत ने कहा कि –
- याचिकाकर्ता ने यह नहीं बताया कि कौन सी फीस ली गई,
- किस दस्तावेज़ से यह सिद्ध होता है कि फीस अनुचित थी,
- सरकार द्वारा स्वीकृत फीस प्रक्रिया क्या है,
- क्या सरकारी ऑडिट ने किसी अनियमितता का उल्लेख किया है।
जबकि PIL में “विस्तृत तथ्य एवं प्रामाणिक सामग्री” अनिवार्य मानी जाती है।
(3) अदालतें ‘फीस संरचना’ तय करने का मंच नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि –
“अदालतें वकीलों की फीस तय नहीं करतीं—यह सरकार और संबंधित विभागों की आंतरिक नीति का विषय है।”
सरकार अक्सर सीनियर एडवोकेट या एडवोकेट जनरल को विशेष रूप से मामलों की जटिलता को देखते हुए फीस देती है, और अदालत इस नीति में हस्तक्षेप नहीं कर सकती।
(4) ‘जनहित’ का दुरुपयोग रोकना आवश्यक
PIL का उद्देश्य समाज के कमजोर वर्गों के अधिकारों की रक्षा है, न कि संवैधानिक पदों पर बैठे अधिकारियों पर “अनावश्यक आरोप” लगाकर व्यक्तिगत प्रचार करना।
अदालत ने आगाह किया कि –
“ऐसी PIL समय और संसाधन की बर्बादी है—इसे प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता।”
4. एडवोकेट जनरल की भूमिका और फीस : कानूनी दृष्टिकोण
(i) संवैधानिक स्थिति
एडवोकेट जनरल राज्य का सर्वोच्च विधि अधिकारी है और उसकी स्थिति केंद्र सरकार के अटॉर्नी जनरल के समान है।
(ii) फीस का निर्धारण
- राज्य सरकार द्वारा तय,
- मामलों की प्रकृति के आधार पर निर्धारित,
- राज्य के बजट और नीतियों के अनुरूप।
(iii) न्यायिक समीक्षा की सीमाएँ
अदालत केवल तब हस्तक्षेप करती है—
- जब प्रक्रिया ही अवैध हो,
- भ्रष्टाचार का स्पष्ट आरोप हो,
- या संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन हुआ हो।
लेकिन इस मामले में ऐसा कुछ नहीं था।
5. PIL की सीमाएँ : सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण
पिछले कई वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि PIL का उपयोग—
- राजनीतिक लाभ के लिए,
- लोकप्रियता पाने के लिए,
- व्यक्तिगत प्रतिशोध के लिए,
- प्रशासनिक निर्णयों में अनुचित दखल के लिए
किया नहीं जाना चाहिए।
इस मामले में भी कोर्ट ने कहा कि—
“यह PIL वास्तविक जनहित का मामला नहीं है, बल्कि एक प्रशासनिक निर्णय का न्यायिक मंच पर अनावश्यक खींचतान है।”
6. नर्सिंग काउंसिल विवाद का संक्षिप्त संदर्भ
हाल ही में नर्सिंग काउंसिल से जुड़े कई मुद्दे सामने आए—
- मान्यता रद्द करने के विवाद,
- कॉलेजों की निरीक्षण प्रक्रिया,
- कोर्ट में लंबित याचिकाएँ,
- राज्य सरकार और काउंसिल के बीच प्रशासनिक मतभेद।
इन सभी मामलों में एडवोकेट जनरल ने राज्य का पक्ष रखा था।
इसी से संबंधित फीस का मुद्दा उठाया गया था।
लेकिन अदालत ने स्पष्ट कहा कि यह विवाद “जनहित” का विषय नहीं है।
7. निर्णय का व्यापक प्रभाव
इस फैसले के कई दूरगामी प्रभाव हैं—
(i) संवैधानिक अधिकारियों की स्वतंत्रता को बढ़ावा
एडवोकेट जनरल जैसे पदों को अनावश्यक न्यायिक हस्तक्षेप से सुरक्षा मिलती है।
(ii) PIL की गुणवत्ता पर अदालत का सख्त रुख
अब बिना प्रमाण वाली याचिकाएँ खारिज होने की संभावना बढ़ेगी।
(iii) न्यायिक समय के संरक्षण का संदेश
सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि न्यायालय का कीमती समय वास्तविक जनहित और महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रश्नों के लिए है।
(iv) प्रशासनिक निर्णयों की न्यायिक समीक्षा सीमित
फीस संरचना जैसे नीति-निर्माण विषयों में अदालतें हस्तक्षेप नहीं करेंगी।
8. आलोचनाएँ और समर्थन : विशेषज्ञ क्या कहते हैं?
समर्थन करने वाले तर्क
- अदालतें नीतिगत मामलों में हस्तक्षेप न करें—यह सत्ता पृथक्करण के सिद्धांत के लिए बेहतर है।
- PIL का दुरुपयोग कम होगा।
- संवैधानिक अधिकारियों के सम्मान की रक्षा होती है।
आलोचनात्मक दृष्टिकोण
- सार्वजनिक धन के उपयोग की पारदर्शिता बढ़नी चाहिए।
- सरकार को फीस संरचना सार्वजनिक करनी चाहिए।
- उच्च पदों पर बैठे व्यक्तियों के खिलाफ शिकायतों के लिए एक स्वतंत्र फोरम होना चाहिए।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट का रुख स्पष्ट है—
“अदालत तथ्य आधारित जांच कर सके तभी हस्तक्षेप करेगी।”
9. निष्कर्ष : सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया—PIL तथ्य और जनहित पर आधारित होनी चाहिए, न कि आरोपों पर
मध्य प्रदेश एडवोकेट जनरल के खिलाफ फीस संबंधी जांच की मांग खारिज करके सुप्रीम कोर्ट ने एक मजबूत संदेश दिया है—
कि PIL का मंच केवल उन्हीं मुद्दों के लिए है जिनसे समाज में वास्तविक और ठोस जनहित प्रभावित होता है।
इस फैसले से—
- संवैधानिक पदों की मर्यादा,
- नीतिगत सवालों में न्यायिक संयम,
- और न्यायिक समय के विवेकपूर्ण उपयोग
को नई मजबूती मिलती है।
यह निर्णय यह भी बताता है कि न्यायालय आरोपों के आधार पर नहीं, बल्कि विश्वसनीय तथ्यों के आधार पर निर्णय लेता है।