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मध्यस्थ की नियुक्ति आदेश के विरुद्ध पुनर्विचार या अपील अस्वीकार्य: हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड बनाम बिहार राज्य पुल निर्माण निगम लिमिटेड में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय

मध्यस्थ की नियुक्ति आदेश के विरुद्ध पुनर्विचार या अपील अस्वीकार्य: हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड बनाम बिहार राज्य पुल निर्माण निगम लिमिटेड में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय


प्रस्तावना

      वैकल्पिक विवाद समाधान (Alternative Dispute Resolution – ADR) की भारतीय व्यवस्था में मध्यस्थता (Arbitration) का विशेष स्थान है। इसका प्रमुख उद्देश्य है—विवादों का त्वरित, प्रभावी और कम खर्चीला निपटारा। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 (Arbitration and Conciliation Act, 1996) में न्यायालयों के हस्तक्षेप को न्यूनतम रखने का स्पष्ट विधान किया गया है।

         इसी मूल भावना को पुनः दृढ़ करते हुए हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड बनाम बिहार राज्य पुल निर्माण निगम लिमिटेड एवं अन्य मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय दिया। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि मध्यस्थ की नियुक्ति से संबंधित आदेश के विरुद्ध न तो पुनर्विचार (Review) और न ही अपील (Appeal) स्वीकार्य है। यह निर्णय मध्यस्थता कानून के क्षेत्र में एक मील का पत्थर माना जा रहा है।


मामले की पृष्ठभूमि

        इस विवाद की उत्पत्ति एक निर्माण परियोजना से संबंधित अनुबंध से हुई, जिसमें हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड (HCCL) और बिहार राज्य पुल निर्माण निगम लिमिटेड पक्षकार थे। अनुबंध में मध्यस्थता का प्रावधान निहित था। विवाद उत्पन्न होने पर मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाया गया।

       उचित न्यायिक प्रक्रिया के तहत न्यायालय द्वारा मध्यस्थ की नियुक्ति का आदेश पारित कर दिया गया। परंतु इसके पश्चात, नियुक्ति से असंतुष्ट पक्ष ने उस आदेश के विरुद्ध पुनर्विचार/अपील का सहारा लेने का प्रयास किया।

यही प्रश्न अंततः सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विचारार्थ आया।


सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रमुख कानूनी प्रश्न

इस मामले में मुख्य प्रश्न यह था—

क्या मध्यस्थ की नियुक्ति से संबंधित आदेश के विरुद्ध पुनर्विचार या अपील दायर की जा सकती है?

साथ ही यह भी—

क्या ऐसे प्रयास मध्यस्थता अधिनियम की मंशा और उद्देश्य के अनुरूप हैं?


मध्यस्थता अधिनियम की मूल भावना

1. न्यूनतम न्यायिक हस्तक्षेप (Minimal Judicial Intervention)

धारा 5, मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 स्पष्ट रूप से कहती है—

“इस अधिनियम द्वारा शासित मामलों में न्यायालय का हस्तक्षेप केवल वहीं होगा, जहाँ इस अधिनियम में विशेष रूप से प्रावधान किया गया हो।”

इसका सीधा अर्थ है कि—

  • न्यायालयों को मध्यस्थता प्रक्रिया में अनावश्यक हस्तक्षेप से बचना चाहिए।
  • केवल उन्हीं स्थितियों में हस्तक्षेप संभव है, जहाँ अधिनियम स्पष्ट अनुमति देता हो।

2. मध्यस्थ की नियुक्ति: धारा 11 का स्वरूप

धारा 11 के अंतर्गत—

  • न्यायालय द्वारा मध्यस्थ की नियुक्ति की जाती है,
  • और यह कार्य प्रक्रियात्मक (Procedural) प्रकृति का होता है।

इसका उद्देश्य है—

  • विवाद समाधान की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना,
  • न कि विवाद के गुण-दोष (Merits) में प्रवेश करना।

सुप्रीम कोर्ट का विस्तृत विश्लेषण

1. नियुक्ति आदेश अंतिमता (Finality) का सिद्धांत

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि—

  • मध्यस्थ की नियुक्ति का आदेश अंतरिम या अपीलीय आदेश नहीं होता,
  • बल्कि यह मध्यस्थता प्रक्रिया को आरंभ करने हेतु एक अंतिम और निर्णायक कदम होता है।

यदि इस चरण पर—

  • अपील या पुनर्विचार की अनुमति दे दी जाए, तो—
  • मध्यस्थता की पूरी प्रक्रिया बाधित हो जाएगी,
  • और त्वरित निपटारे का उद्देश्य विफल हो जाएगा।

2. पुनर्विचार और अपील की अनुमति अधिनियम में नहीं

न्यायालय ने विशेष रूप से कहा कि—

  • मध्यस्थता अधिनियम में मध्यस्थ की नियुक्ति के आदेश के विरुद्ध न तो अपील और न ही पुनर्विचार का कोई प्रावधान है
  • जहाँ कानून मौन है, वहाँ न्यायालय द्वारा अधिकारों का विस्तार नहीं किया जा सकता।

3. विलंबकारी रणनीति पर रोक

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि—

“नियुक्ति आदेश के विरुद्ध पुनर्विचार या अपील का सहारा लेना अक्सर विवाद समाधान को टालने की रणनीति बन जाता है।”

ऐसे प्रयास—

  • मध्यस्थता की आत्मा के विपरीत हैं,
  • और न्यायिक संसाधनों पर अनावश्यक बोझ डालते हैं।

4. पक्षकारों के लिए वैकल्पिक उपाय उपलब्ध

न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि—

  • यदि किसी पक्ष को मध्यस्थ की निष्पक्षता या योग्यता पर आपत्ति है,
  • तो उसके लिए धारा 12 और 13 के अंतर्गत उपयुक्त उपाय उपलब्ध हैं।

अर्थात—

  • नियुक्ति आदेश को चुनौती देने के बजाय,
  • अधिनियम के भीतर उपलब्ध प्रक्रियाओं का उपयोग किया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने—

  1. यह स्पष्ट रूप से घोषित किया कि—
    • मध्यस्थ की नियुक्ति के आदेश के विरुद्ध पुनर्विचार या अपील पूर्णतः अस्वीकार्य है।
  2. यह कहा कि—
    • ऐसे प्रयास मध्यस्थता अधिनियम की मंशा के विरुद्ध हैं।
  3. यह भी निर्देश दिया कि—
    • न्यायालयों को नियुक्ति के बाद विवाद को शीघ्र मध्यस्थता प्रक्रिया में आगे बढ़ने देना चाहिए।

निर्णय का व्यापक महत्व

1. मध्यस्थता प्रक्रिया को मजबूती

यह निर्णय—

  • मध्यस्थता की स्वायत्तता (Autonomy) को सुदृढ़ करता है,
  • और अनावश्यक न्यायिक हस्तक्षेप को रोकता है।

2. व्यापारिक विवादों में विश्वास

व्यावसायिक और निर्माण अनुबंधों में—

  • यह फैसला निवेशकों और कंपनियों को यह विश्वास देता है कि
    मध्यस्थता प्रक्रिया को अनावश्यक रूप से लटकाया नहीं जाएगा।

3. निचली अदालतों के लिए स्पष्ट मार्गदर्शन

यह निर्णय—

  • उच्च न्यायालयों और अधीनस्थ न्यायालयों को स्पष्ट संदेश देता है कि
    नियुक्ति आदेश के बाद पुनर्विचार/अपील स्वीकार न की जाए।

पूर्ववर्ती निर्णयों से सामंजस्य

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय उसके पूर्व के कई निर्णयों की निरंतरता में है, जिनमें कहा गया है कि—

  • मध्यस्थता में न्यायालय का हस्तक्षेप न्यूनतम होना चाहिए।
  • प्रक्रिया को बाधित करने वाले उपायों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष

       हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड बनाम बिहार राज्य पुल निर्माण निगम लिमिटेड का यह निर्णय भारतीय मध्यस्थता कानून में एक निर्णायक और मार्गदर्शक सिद्धांत स्थापित करता है।

यह स्पष्ट करता है कि—

मध्यस्थ की नियुक्ति विवाद का अंत नहीं, बल्कि समाधान की शुरुआत है—और इस शुरुआत को अपीलों और पुनर्विचार से बाधित नहीं किया जा सकता।

यह फैसला न केवल मध्यस्थता की गति और प्रभावशीलता को बढ़ाता है, बल्कि भारतीय ADR प्रणाली को अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप और अधिक मजबूत बनाता है।