मध्यवर्ती आदेश बनाम इंटरलोक्यूटरी आदेश: पटना हाईकोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय – LAXMI DEVI v. State of Bihar & Ors., Patna HC 2025 (CR-907-2024)
भूमिका
भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में आदेशों की प्रकृति का निर्धारण एक अत्यंत महत्वपूर्ण न्यायिक प्रश्न रहा है। विशेषकर, यह तय करना कि कोई आदेश interlocutory order है या intermediate/quasi-final order, हमेशा से न्यायालयों के विचार-विमर्श का विषय रहा है। इसका कारण यह है कि कई विधिक प्रावधानों में interlocutory orders के विरुद्ध अपील या पुनरीक्षण (revision) का अधिकार प्रतिबंधित है, जबकि intermediate orders को चुनौती दी जा सकती है।
नए भारत दंड प्रक्रिया संहिता (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita – BNSS), 2023 के लागू होने के बाद यह विषय और अधिक महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि अदालतों को यह सुनिश्चित करना है कि न्याय केवल तकनीकी आधार पर न रुके बल्कि प्रत्येक मामले में वास्तविक न्याय सुनिश्चित हो।
इसी पृष्ठभूमि में पटना उच्च न्यायालय ने Laxmi Devi v. State of Bihar & Ors., 2025 में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसमें interlocutory आदेश और intermediate आदेश के बीच अंतर को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है। यह आदेश विशेष रूप से Section 438(2) BNSS के संदर्भ में आया, और आपराधिक न्यायशास्त्र में इसका महत्वपूर्ण योगदान माना जा रहा है।
मामले की पृष्ठभूमि
इस मामले में अभियुक्ता Laxmi Devi ने पटना उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण याचिका दायर की थी। याचिका का केंद्र बिंदु यह था कि ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित आदेश interlocutory order नहीं था, बल्कि intermediate order था, और इस कारण पुनरीक्षण योग्य था।
राज्य पक्ष का तर्क था कि आदेश trial की प्रक्रिया के दौरान पारित हुआ है और इसलिए यह मात्र एक interlocutory order है, जिसके विरुद्ध पुनरीक्षण नहीं किया जा सकता।
अदालत को यह तय करना था कि क्या यह आदेश interlocutory nature का है या intermediate nature का?
न्यायालय का अवलोकन एवं तर्क
पटना हाईकोर्ट ने कहा कि—
“सभी आदेश जो अंतिम आदेश नहीं हैं, उन्हें इंटरलोक्यूटरी नहीं कहा जा सकता।”
अदालत ने स्पष्ट किया कि कुछ आदेश intermediate या quasi-final भी हो सकते हैं।
Intermediate Order की परिभाषा
न्यायालय ने कहा:
Intermediate order वह होता है जिसे यदि उच्च न्यायालय पलट दे, तो संपूर्ण प्रक्रिया समाप्त हो जाती है और मामला खत्म हो जाता है।
यानी:
- यदि आदेश पलटने पर पूरा केस समाप्त हो जाए
- या कार्यवाही का अंत हो जाए
तो वह आदेश intermediate order है।
भले ही वह आदेश कार्यवाही के बीच में ही क्यों न पारित हुआ हो।
मुख्य कानूनी सिद्धांत स्थापित
निर्णय में अदालत ने निम्न बातें स्पष्ट कीं:
✅ Interlocutory Order
- प्रक्रिया के दौरान दिया गया आदेश
- जिसका ट्रायल की प्रगति पर सीमित असर
- आदेश पलटने पर भी मुकदमा जारी रहता है
- उसके विरुद्ध आमतौर पर पुनरीक्षण स्वीकार्य नहीं
✅ Intermediate Order
- प्रक्रिया के दौरान दिया गया आदेश लेकिन महत्वपूर्ण प्रभाव
- उलटने पर मुकदमा समाप्त हो जाना तय
- पुनरीक्षण योग्य
✅ Final Order
- जो मुकदमे का समापन कर दे
नए BNSS संदर्भ में अदालत की व्याख्या
Section 438(2) BNSS का उल्लेख करते हुए अदालत ने कहा—
हर आदेश जो अंतिम नहीं है उसे Interlocutory कहना गलत है।
इसका आशय यह हुआ कि BNSS के आने से भी intermediate orders की अवधारणा समाप्त नहीं हुई है।
कई आदेश ऐसे होते हैं जो भले “interlocutory stage” पर दिए गए हैं, लेकिन वे intermediate nature के हैं और पुनरीक्षण योग्य रहेंगे।
उदाहरणों के माध्यम से समझ
Interlocutory Order के उदाहरण
| स्थिति | परिणाम |
|---|---|
| पुलिस डायरी मंगाने से रोकना | ट्रायल जारी रहेगा |
| गवाह बुलाने का आदेश | प्रक्रिया चलती रहेगी |
| मामूली प्रकृति के प्रक्रिया आदेश | कोई अंतिम प्रभाव नहीं |
Intermediate Order के उदाहरण
| स्थिति | परिणाम |
|---|---|
| संज्ञान लेने/न लेने का आदेश | केस जारी या समाप्त |
| आरोप तय करने से इनकार | केस समाप्त |
| अभियोजन स्वीकृति न होना | केस खत्म |
| शिकायत/अभियोग खारिज करने का आदेश | पूरा मामला समाप्त |
यहाँ देखें—यदि आदेश उलट दिया जाए, तो मामला जारी या समाप्त हो सकता है। इसलिए यह intermediate होता है।
Patna HC का व्यावहारिक विश्लेषण
अदालत ने कहा—
- कई बार आदेश अभियुक्त के लिए intermediate हो सकता है
- लेकिन शिकायतकर्ता/राज्य के लिए interlocutory साबित हो सकता है
उदाहरण:
- यदि अभियुक्त कहता है कि आरोप पत्र ही अवैध है
- और अदालत इसे खारिज कर दे
- और फिर उच्च न्यायालय इसे बहाल कर दे
तो यह आदेश अभियुक्त के लिए intermediate है, परंतु राज्य के लिए interlocutory कहा जा सकता है।
क्यों महत्वपूर्ण है यह भेद?
| कारण | महत्व |
|---|---|
| पुनरीक्षण का अधिकार | Intermediate = Yes, Interlocutory = No |
| न्याय तक पहुँच | अनुचित आदेशों के विरुद्ध राहत |
| मामलों में देरी रोकना | अनावश्यक अपीलों से बचाव |
| दोषमुक्ति का अधिकार | गलत कार्यवाही के विरुद्ध सुरक्षा |
यह विभाजन न्यायालयों को न्याय और प्रक्रिया के संतुलन में मदद करता है।
पूर्ववर्ती सुप्रीम कोर्ट निर्णय जिनका हवाला दिया गया
पटना हाईकोर्ट ने भारतीय न्यायशास्त्र के निम्न प्रमुख निर्णयों को ध्यान में रखा:
- Amar Nath v. State of Haryana (1977)
- सभी non-final orders interlocutory नहीं
- Madhu Limaye v. State of Maharashtra (1977)
- intermediate orders पुनरीक्षण योग्य
- V.C. Shukla Case
- interlocutory orders को संकीर्ण अर्थ में समझना चाहिए
अर्थात, यह निर्णय स्थापित न्याय सिद्धांतों का अनुसरण करता है।
निर्णय का महत्व
✅ BNSS लागू होने के बाद इस तरह की पहली विस्तृत न्यायिक व्याख्या
✅ आपराधिक पुनरीक्षण मामलों को स्पष्ट दिशा
✅ न्यायालयों को procedural justice vs substantive justice का संतुलन दिखाया
✅ अभियुक्त के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित
व्यावहारिक प्रभाव
अभियुक्तों के लिए
- अब वे कई आदेशों को पुनरीक्षण में चुनौती दे सकते हैं
- गलत आरोप तय होने पर राहत संभव
शिकायतकर्ता/राज्य के लिए
- मुकदमे को बिना बाधा आगे बढ़ाने में सुस्पष्टता
- अनुचित देरी से बचाव
निचली अदालतों के लिए
- आदेश लिखते समय प्रकृति स्पष्ट करनी होगी
- BNSS में प्रक्रियात्मक पारदर्शिता बढ़ेगी
न्यायालय का मूल संदेश
न्यायालय ने मूल रूप से कहा कि—
किसी आदेश की प्रकृति का निर्धारण केवल उसकी स्थिति से नहीं, बल्कि उसके प्रभाव से किया जाएगा।
यानी—
- कहाँ दिया गया → महत्त्व नहीं
- उसका परिणाम क्या → यही निर्णायक है
निष्कर्ष
Laxmi Devi v. State of Bihar (2025) का यह निर्णय भारतीय आपराधिक प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है।
यह निर्णय स्पष्ट करता है कि:
- हर आदेश जो अंतिम नहीं है, interlocutory नहीं होता
- intermediate orders हमेशा से भारतीय विधि में मान्य हैं
- BNSS के तहत भी यह सिद्धांत अपरिवर्तित है
- न्यायालयों को आदेश की प्रकृति उसके व्यावहारिक प्रभाव के आधार पर निर्धारित करनी चाहिए
यह फैसला प्रक्रिया की तकनीकी जटिलताओं के बीच वास्तविक न्याय को प्राथमिकता देता है और भारतीय विधिक प्रणाली में न्यायपूर्ण दृष्टिकोण को मजबूत बनाता है।