मद्रास हाईकोर्ट ने कहा – “मां की देखभाल करना संतान का कानूनी और नैतिक दायित्व है”; मां के लिए ₹21,000 मासिक भरण-पोषण की मंजूरी
भूमिका : मातृत्व का सम्मान और कानून की संवेदनशील व्याख्या
भारतीय समाज में मां का स्थान सर्वोच्च माना गया है। मां केवल जीवन देने वाली नहीं, बल्कि संस्कार, आदर्श और मानवता की मूल प्रेरणा होती है। ऐसे में यदि वृद्धावस्था में वही मां अपने बच्चों से उपेक्षा का सामना करे, तो यह केवल सामाजिक नहीं बल्कि नैतिक विफलता भी है। हाल ही में मद्रास हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया कि मां की देखभाल करना संतान का कानूनी और नैतिक दायित्व (Legal and Moral Duty) है। न्यायालय ने आदेश दिया कि पुत्र अपनी वृद्ध मां को ₹21,000 प्रति माह भरण-पोषण (maintenance) के रूप में देगा। यह फैसला न केवल परिवारिक जिम्मेदारियों की पुनः व्याख्या करता है, बल्कि भारतीय संविधान और Maintenance and Welfare of Parents and Senior Citizens Act, 2007 की भावना को भी सुदृढ़ करता है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला एक वृद्ध महिला द्वारा दायर याचिका से संबंधित था, जिसमें उन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति का हवाला देते हुए पुत्र से मासिक भरण-पोषण की मांग की थी। महिला का कहना था कि पति के निधन के बाद उनके पास कोई स्थायी आय का साधन नहीं है और पुत्र, जो आर्थिक रूप से सक्षम है, उनकी देखभाल नहीं कर रहा। कई बार अनुरोध करने के बावजूद भी उसने मां को वित्तीय सहायता देने से इंकार कर दिया।
वृद्धा ने पहले Senior Citizen Tribunal के समक्ष आवेदन किया, जहां से उन्हें आंशिक राहत मिली, किंतु वह राशि उनके जीवनयापन के लिए पर्याप्त नहीं थी। अंततः मामला मद्रास हाईकोर्ट पहुंचा, जहां न्यायालय ने इसे सामाजिक और मानवीय दृष्टिकोण से गंभीरता से लिया।
न्यायालय का अवलोकन
न्यायमूर्ति ने अपने निर्णय में कहा कि:
“संतान का यह न केवल कानूनी दायित्व है, बल्कि यह उनका नैतिक कर्तव्य भी है कि वे अपने माता-पिता की देखभाल करें। जिस मां ने उन्हें जन्म दिया, पालन-पोषण किया, वही यदि वृद्धावस्था में उपेक्षित हो जाए, तो यह समाज के पतन का संकेत है।”
न्यायालय ने आगे यह भी कहा कि भारतीय संस्कृति में “मातृ देवो भवः” का सिद्धांत केवल धार्मिक नहीं, बल्कि जीवन के मूल्यों में निहित है। ऐसे में कानून का भी यह कर्तव्य बनता है कि वह उन बुजुर्गों को सुरक्षा प्रदान करे जो अपने ही बच्चों के द्वारा उपेक्षित हो रहे हैं।
कानूनी आधार
इस निर्णय का प्रमुख कानूनी आधार था —
“Maintenance and Welfare of Parents and Senior Citizens Act, 2007”।
इस अधिनियम के अंतर्गत:
- धारा 4 यह स्पष्ट करती है कि प्रत्येक संतान या उत्तराधिकारी अपने माता-पिता की आवश्यक आवश्यकताओं के लिए भरण-पोषण देने का दायित्व रखता है, यदि माता-पिता अपनी स्वयं की देखभाल करने में असमर्थ हैं।
- धारा 9 के अंतर्गत माता-पिता सीधे ट्रिब्यूनल में आवेदन कर सकते हैं, यदि संतान उनकी देखभाल नहीं कर रही हो।
- अधिनियम का उद्देश्य वृद्ध माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों को आर्थिक, सामाजिक और मानसिक सुरक्षा प्रदान करना है।
हाईकोर्ट ने इस अधिनियम की व्याख्या करते हुए कहा कि यह कानून केवल दायित्व नहीं, बल्कि सामाजिक संवेदना का विधिक रूपांतरण है।
अदालत का निर्णय
मद्रास हाईकोर्ट ने मामले की परिस्थितियों और मां की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए आदेश दिया कि पुत्र अपनी मां को ₹21,000 प्रति माह भरण-पोषण के रूप में देगा। यह राशि हर महीने के पहले सप्ताह में नियमित रूप से मां के खाते में जमा की जाएगी।
न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि पुत्र आदेश का पालन नहीं करता, तो उसके विरुद्ध Revenue Recovery Proceedings शुरू की जा सकती हैं, या उसकी आय से सीधे राशि काटी जा सकती है।
नैतिकता और न्यायशास्त्र का संगम
इस निर्णय की विशेषता यह रही कि अदालत ने इसे केवल कानूनी विवाद नहीं, बल्कि नैतिक मूल्य के रूप में देखा।
न्यायालय ने टिप्पणी की कि —
“वृद्ध माता-पिता की देखभाल करना केवल कानून का पालन नहीं, बल्कि मानवता का दायित्व है। बच्चे जो कुछ भी बनते हैं, वह माता-पिता के त्याग और परिश्रम का परिणाम है।”
अदालत ने इस फैसले के माध्यम से समाज को संदेश दिया कि वृद्ध माता-पिता की उपेक्षा करना न केवल कानून का उल्लंघन है, बल्कि मानवता के विरुद्ध अपराध भी है।
संविधानिक परिप्रेक्ष्य
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 51A(h) नागरिकों से अपेक्षा करता है कि वे “माता-पिता और वृद्धजनों का सम्मान करें और उनकी देखभाल करें।”
इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) में सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार शामिल है, जो वृद्ध व्यक्तियों के लिए भी समान रूप से लागू होता है।
इस प्रकार, माता-पिता को आर्थिक सुरक्षा और सम्मानपूर्वक जीवन देने की जिम्मेदारी केवल नैतिक नहीं, बल्कि संविधानिक कर्तव्य भी है।
पूर्ववर्ती निर्णयों का संदर्भ
इससे पहले भी अनेक न्यायालयों ने इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए हैं:
- Vasudevan v. Union of India (Kerala HC) – न्यायालय ने कहा कि संतान का अपने माता-पिता की देखभाल करना नैतिक और सामाजिक दायित्व है, जो कानूनी रूप में भी संरक्षित है।
- Manoj Kumar v. State of Haryana – पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा कि यदि संतान अपने माता-पिता की संपत्ति का लाभ उठाती है, तो उसे उनके जीवनयापन की जिम्मेदारी भी उठानी होगी।
- Supreme Court in Ashwani Kumar v. Union of India (2018) – सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों को निर्देश दिया कि वे वरिष्ठ नागरिकों के लिए ओल्ड एज होम्स और हेल्थकेयर सिस्टम की व्यवस्था सुनिश्चित करें।
समाज पर प्रभाव
मद्रास हाईकोर्ट का यह निर्णय केवल एक व्यक्ति या परिवार के लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए एक नैतिक मार्गदर्शक बन गया है।
आज के समय में जब एकल परिवार प्रणाली (nuclear family) और आर्थिक व्यस्तता के कारण वृद्धजन उपेक्षा का शिकार हो रहे हैं, यह फैसला समाज में जिम्मेदारी की भावना को पुनः जगाने का कार्य करता है।
यह निर्णय यह भी दर्शाता है कि न्यायपालिका केवल कानून की व्याख्या करने वाला अंग नहीं, बल्कि मानव संवेदनाओं का रक्षक भी है।
वृद्ध माता-पिता के अधिकार और बच्चों की जिम्मेदारी
भारत में वृद्ध माता-पिता की स्थिति अक्सर संवेदनशील होती है। भले ही Maintenance Act 2007 ने उन्हें कानूनी सुरक्षा दी हो, लेकिन व्यावहारिक रूप से कई बार वे अपनों के घर में ही परायों जैसी स्थिति में जीते हैं।
इस निर्णय से यह स्पष्ट हो गया कि:
- माता-पिता का भरण-पोषण केवल “दान” नहीं, बल्कि “कर्तव्य” है।
- यदि बच्चे ऐसा करने में असफल रहते हैं, तो कानून उनकी संपत्ति, वेतन या आय से जबरन वसूली का अधिकार देता है।
- अदालतें ऐसे मामलों में तेजी से हस्तक्षेप करेंगी ताकि वृद्धजनों को सम्मानपूर्वक जीवन मिल सके।
न्यायालय का मानवीय संदेश
न्यायमूर्ति ने अपने निर्णय के अंत में एक भावपूर्ण टिप्पणी दी:
“जिस दिन बच्चे अपनी मां के लिए ₹21,000 खर्च करने में सोचें, वही दिन समाज के पतन का दिन होगा। मां का मूल्य कभी धन में नहीं आँका जा सकता।”
यह टिप्पणी पूरे निर्णय का हृदय है — एक ऐसा संदेश जो न केवल कानूनी है बल्कि मानवीय चेतना का प्रतीक भी है।
निष्कर्ष
मद्रास हाईकोर्ट का यह ऐतिहासिक निर्णय भारत की न्यायपालिका के मानवीय पक्ष को दर्शाता है।
यह फैसला उन लाखों वृद्ध माताओं के लिए आशा की किरण है, जो अपने ही बच्चों की उपेक्षा का शिकार हैं।
यह निर्णय याद दिलाता है कि कानून केवल अधिकार नहीं, कर्तव्यों की भी रक्षा करता है।
संतान का यह दायित्व केवल अदालत द्वारा थोपा गया नहीं, बल्कि यह जीवन और संस्कृति का शाश्वत सिद्धांत है —
“मां केवल जन्म नहीं देती, वह जीवन देती है — और जीवन देने वाली के प्रति कर्तव्य निभाना हर संतान का सर्वोच्च धर्म है।”