मद्रास उच्च न्यायालय का निर्णय: ट्रायल कोर्ट बिना प्रतिवादी की याचिका के लिखित कथन दायर करने की समय-सीमा नहीं बढ़ा सकता

✒️ शीर्षक:

मद्रास उच्च न्यायालय का निर्णय: ट्रायल कोर्ट बिना प्रतिवादी की याचिका के लिखित कथन दायर करने की समय-सीमा नहीं बढ़ा सकता


🔍 प्रस्तावना:

भारतीय दीवानी प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश 8 नियम 1 (Order 8 Rule 1) और वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम (Commercial Courts Act), साथ ही उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम (Consumer Protection Act) के अंतर्गत हाल ही में मद्रास उच्च न्यायालय (Madras High Court) ने एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है। यह निर्णय विशेष रूप से ट्रायल कोर्ट की प्रक्रिया, प्रतिवादी के लिखित कथन की समय-सीमा, और उसके विस्तार के संदर्भ में मार्गदर्शन प्रदान करता है।


⚖️ मामला और कानूनी मुद्दा:

मामले में यह प्रश्न सामने था कि क्या ट्रायल कोर्ट अपने आप (suo motu) प्रतिवादी को लिखित कथन दायर करने के लिए निर्धारित 30 दिनों से अधिक की अवधि प्रदान कर सकता है, बिना प्रतिवादी की लिखित याचिका के?

मद्रास हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि:

  • CPC के Order 8 Rule 1 के अनुसार, प्रतिवादी को समन की सेवा के 30 दिनों के भीतर लिखित कथन (Written Statement) दायर करना होता है।
  • प्रावधान यह अनुमति देता है कि न्यायालय उचित कारणों के आधार पर अधिकतम 90 दिन तक की छूट दे सकता है, बशर्ते वह ऐसा ठोस कारणों को अभिलेख पर लाकर करे।
  • हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि 90 दिन की सीमा अनिवार्य (mandatory) नहीं, बल्कि निर्देशात्मक (directory) है, परंतु इसका दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए।

📌 मद्रास उच्च न्यायालय का निर्णय:

  • ट्रायल कोर्ट द्वारा बिना प्रतिवादी की याचिका के समय-सीमा बढ़ाना विधिसम्मत नहीं है।
  • यदि प्रतिवादी को अधिक समय चाहिए, तो उसे लिखित आवेदन के माध्यम से कारण प्रस्तुत करना होगा।
  • अदालत तभी समय बढ़ा सकती है जब उसके पास स्पष्ट, औचित्यपूर्ण कारण हों
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि Order 7 Rule 11 केवल वादपत्र (plaint) को खारिज करने की अनुमति देता है, ना कि लिखित कथन को।

📚 विधिक सिद्धांत और प्रभाव:

  1. Order 8 Rule 1 CPC – लिखित कथन 30 दिन के भीतर; 90 दिन तक विस्तार न्यायिक विवेक पर निर्भर।
  2. Order 7 Rule 11 CPC – केवल वाद पत्र (plaint) को खारिज करने का प्रावधान, न कि प्रतिवादी के उत्तर को।
  3. इनहेरेंट जुरिसडिक्शन (धार्मिक अधिकारिता) के आधार पर लिखित कथन को अस्वीकार करना अनुचित ठहराया गया।
  4. वाणिज्यिक मामलों और उपभोक्ता संरक्षण विवादों में भी प्रक्रियात्मक अनुशासन बनाए रखना आवश्यक है।

📌 निर्णय का निष्कर्ष:

मद्रास उच्च न्यायालय ने निचली अदालत द्वारा पारित आदेश को निरस्त (set aside) कर दिया और प्रतिवादी को लिखित कथन दायर करने की अनुमति प्रदान की, यह कहते हुए कि ऐसा आदेश प्रक्रिया के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था। यह निर्णय स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि न्यायिक प्रक्रिया में अनुशासन और न्यायोचित व्यवहार अत्यंत आवश्यक हैं।


📘 निष्कर्ष:

यह निर्णय ट्रायल कोर्टों को यह स्मरण कराता है कि उन्हें स्वतंत्र रूप से समय सीमा नहीं बढ़ानी चाहिए, जब तक कि प्रतिवादी द्वारा औपचारिक याचिका दाखिल न की गई हो। यह न केवल प्रक्रियात्मक न्याय की रक्षा करता है, बल्कि पक्षकारों के अधिकारों को भी संतुलित रखता है।