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मतदाता सूची में नाम विलोपन और न्यायिक समीक्षा की सीमाएं Vyshna S.L. बनाम State Election Commission एवं अन्य – एक महत्वपूर्ण न्यायिक दृष्टांत

मतदाता सूची में नाम विलोपन और न्यायिक समीक्षा की सीमाएं Vyshna S.L. बनाम State Election Commission एवं अन्य – एक महत्वपूर्ण न्यायिक दृष्टांत

भूमिका

       भारत में लोकतांत्रिक प्रणाली की शक्ति नागरिकों की भागीदारी पर निर्भर करती है और यह भागीदारी सुनिश्चित करने का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम है— मतदान का अधिकार। मतदाता सूची में सही व्यक्ति का नाम जुड़ना या गलत तरीके से हटाया जाना केवल एक औपचारिक प्रक्रिया नहीं बल्कि लोकतांत्रिक अधिकारों का केंद्र बिंदु है।

      हाल ही में Vyshna S.L. बनाम State Election Commission & Ors मामले में केरल हाई कोर्ट ने मतदाता सूची से नाम हटाए जाने और निर्वाचन प्रक्रिया में हस्तक्षेप के मुद्दे पर एक मार्मिक निर्णय दिया। इस निर्णय ने स्पष्ट कर दिया कि हाई कोर्ट चुनाव घोषित होने के बाद मतदाता सूची में किए गए संशोधनों पर हस्तक्षेप नहीं कर सकता, विशेषकर जब विकल्प के रूप में इलेक्शन पेटिशन (Election Petition) का रास्ता उपलब्ध हो।

इस मामले ने न्यायालय द्वारा चुनावी प्रक्रिया में हस्तक्षेप की सीमा और नागरिक के कानूनी विकल्पों को एक बार फिर स्पष्ट किया है।


विवाद की पृष्ठभूमि

     24 वर्षीय Vyshna S.L., त्रिवेन्द्रम (थिरुवनंतपुरम) नगर निगम के मुट्टडा डिवीजन से युव कांग्रेस की उम्मीदवार थीं। नामांकन दाखिल करने के कुछ समय बाद, उन्हें यह जानकारी मिली कि उनके नाम को मतदाता सूची से डिलीट कर दिया गया है

       मतदाता सूची से नाम हटाने का परिणाम यह होता है कि उम्मीदवार मतदान नहीं कर सकता, और कई मामलों में यह उसकी उम्मीदवारता को सीधे प्रभावित करता है, क्योंकि कई स्थानीय निकाय एवं पंचायत चुनावों में वहीं मतदाता उम्मीदवार हो सकता है जो उस क्षेत्र का निर्वाचन मतदाता हो

विष्णा ने यह तर्क दिया —

  • उनका नाम किसी भी वैधानिक कारण के बिना हटाया गया
  • उन्हें प्राकृतिक न्याय सिद्धांत (Principles of Natural Justice) के तहत सूचित नहीं किया गया
  • यह कार्रवाई राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित हो सकती है

उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और नाम बहाल करने या चुनाव स्थगित करने की मांग की।


प्रमुख कानूनी प्रश्न

इस वाद में मूल मुद्दे निम्नलिखित थे—

 क्या चुनाव की घोषणा के बाद हाई कोर्ट मतदाता सूची में संशोधन के आदेश दे सकता है?

क्या मतदाता सूची से नाम हटाना प्राकृतिक न्याय सिद्धांत के विरुद्ध है?

 क्या निर्वाचन प्रक्रिया चल रही होने पर न्यायालय हस्तक्षेप करेगा?

 ऐसे मामलों में पीड़ित नागरिक के पास क्या कानूनी मार्ग उपलब्ध हैं?


राजनीतिक और संवैधानिक परिप्रेक्ष्य

भारतीय लोकतंत्र में चुनावों की निष्पक्षता की संरचना संविधान द्वारा सुदृढ़ की गई है।

संविधान का अनुच्छेद 243-ZG एवं 243-O (स्थानीय निकाय चुनावों से संबंधित) यह स्पष्ट करता है कि—

जब एक बार चुनाव प्रक्रिया आरंभ हो जाती है, तब न्यायालय चुनावी प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं करेगा।

यह वही सिद्धांत है जिसका प्रयोग सर्वोच्च न्यायालय कई बार कर चुका है, जैसे —

  • Ponnuswami vs Returning Officer (1952)
  • Mohinder Singh Gill vs CEC (1978)

इन सभी मामलों में न्यायालय ने कहा—

चुनाव समाप्त होने के बाद ही इलेक्शन पेटिशन के माध्यम से विवाद उठाया जा सकता है।


पक्षकारों के तर्क

याचिकाकर्ता (Vyshna S.L.) के तर्क

  • नाम राजनीतिक विरोध के कारण हटाया गया।
  • हटाने से पहले नोटिस नहीं दिया गया, इसलिए यह न्यायसंगत नहीं
  • चुनाव में उनकी भागीदारी और वोट देने के अधिकार पर प्रभाव पड़ा।

State Election Commission का पक्ष

  • मतदाता सूची में संशोधन निर्वाचन नियमों के तहत किया गया
  • चुनाव घोषित हो चुके हैं, इस चरण में न्यायालय हस्तक्षेप संवैधानिक प्रावधानों के विपरीत है
  • याचिकाकर्ता इलेक्शन पेटिशन दायर कर सकती हैं, यही उचित उपाय है।

केरल हाई कोर्ट का निर्णय

हाई कोर्ट ने स्पष्ट तौर पर कहा कि:

  • चुनाव प्रक्रिया चल रही है, अतः अदालत मतदाता सूची में परिवर्तन या चुनाव रोकने का आदेश नहीं दे सकती।
  • विवाद का अंतिम निर्णय इलेक्शन पेटिशन द्वारा ही संभव है
  • याचिका इस स्तर पर जारी रखने का आधार नहीं है, इसलिए मामला क्लोज़ कर दिया गया।

इसके साथ ही अदालत ने यह भी उल्लेख किया कि यदि याचिकाकर्ता को लगता है कि सूची से नाम हटाने में अनियमितता या दुर्भावना है, तो चुनाव बाद वे इलेक्शन ट्रिब्यूनल के समक्ष राहत मांग सकती हैं।


निर्णय का महत्व

यह फैसला कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है—

विषय प्रभाव
न्यायालय की सीमाएं अदालत चुनाव के बीच हस्तक्षेप नहीं करेगी
मतदाता अधिकार गलत हटाने पर बाद में चुनौती दी जा सकती है
राजनीतिक निष्पक्षता चुनाव आयोग के विवेक का आदर
न्यायिक हस्तक्षेप प्रक्रिया के पूर्ण होने के बाद ही संभव

यह स्पष्ट करता है कि भले ही नागरिक को अनुचित कार्रवाई का सामना करना पड़े, न्यायिक हस्तक्षेप का समय महत्वपूर्ण है, क्योंकि चुनाव की निरंतरता एवं गति लोकतंत्र की धुरी है।


क्या नाम हटाना प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन है?

कानूनी सिद्धांत के अनुसार—

किसी भी नागरिक के अधिकार प्रभावित होने पर उसे सुनवाई का अवसर मिलना चाहिए।

      परंतु समस्या यह है कि मतदाता सूची एक सतत प्रक्रिया है और इसमें निरंतर अपडेट व संशोधन किया जाता है। यदि हर संशोधन पर न्यायालय रोक लगा दे तो चुनाव अनिश्चित काल के लिए रुक जाएंगे।

इसी आधार पर अदालतें बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप से बचती हैं।


समान न्यायिक दृष्टांत

नीचे कुछ महत्वपूर्ण फैसले हैं जहां समान सिद्धांत लागू हुआ —

मामला सिद्धांत
N.P. Ponnuswami vs Returning Officer चुनाव न्यायालय के माध्यम से चुनौती
Mohinder Singh Gill Case निर्वाचन प्रक्रिया में न्यूनतम हस्तक्षेप
Lakshmi Charan vs CEC प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद विवाद न्यायालय की सीमा में

हाई कोर्ट ने इन सभी सिद्धांतों का अनुसरण किया।


लोकतंत्र और मतदाता सूची की पारदर्शिता

भारत में चुनाव आयोग प्रत्येक चुनाव से पहले तीन मुख्य कदम उठाता है—

  • Draft Publication
  • Objection and Correction
  • Final Voters List

समस्या तब उत्पन्न होती है जब—

  • नोटिस दिए बिना नाम हटाया जाए
  • आवेदन के बावजूद नाम न जोड़ा जाए
  • चुनाव की घोषणा के बाद अनियमित हटाया जाए

इस मामले ने यह साबित किया कि:

निष्पक्ष मतदाता सूची लोकतंत्र की रीढ़ है और नागरिक को सजग रहना आवश्यक है।


आगे का रास्ता और व्यावहारिक सुझाव

यदि किसी व्यक्ति को लगता है कि उसका नाम गलत हटाया गया है तो उसे—

  • चुनाव से पहले शिकायत दर्ज करनी चाहिए
  • निर्वाचन रजिस्टार से संशोधन मांगना चाहिए
  • यदि चुनाव घोषित हो चुका है, तो
    • चुनाव लड़ें / मतदान करें (यदि पात्रता हो)
    • और बाद में इलेक्शन पेटिशन द्वारा विवाद उठाया जा सकता है

यह प्रक्रिया भले कठिन लगे, परंतु कानून इसी संतुलन को बनाए रखता है कि व्यक्तिगत अधिकार और सामूहिक चुनाव प्रक्रिया दोनों सुरक्षित रहें


निष्कर्ष

     Vyshna S.L. बनाम State Election Commission का निर्णय भारतीय लोकतांत्रिक ढांचे में न्यायालय, प्रशासन और चुनाव आयोग के संतुलन को मजबूत करता है।

  • नागरिक के अधिकार महत्वपूर्ण हैं,
  • लेकिन चुनाव की गति और स्वायत्तता अधिक व्यापक सार्वजनिक हित है।

       मतदाता सूची से नाम हटाना गंभीर विषय है, परंतु न्यायिक हस्तक्षेप निर्धारित सीमाओं के भीतर ही संभव है। यह मामला राजनीति और कानून दोनों को यह संदेश देता है कि—

लोकतंत्र केवल अधिकारों का नाम नहीं, बल्कि प्रक्रियाओं का सम्मान भी है।