मंदिर का पैसा भगवान का: सुप्रीम कोर्ट द्वारा कोऑपरेटिव बैंकों में मंदिर निधि उपयोग पर कड़ा रुख
क्यों कहा गया कि मंदिर का धन केवल धार्मिक और सार्वजनिक हित के लिए सुरक्षित रहे? – एक विस्तृत विश्लेषण
भारत में मंदिर केवल पूजा-अर्चना के केंद्र नहीं हैं, बल्कि वे सांस्कृतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक और आध्यात्मिक धरोहरों के संरक्षक भी माने जाते हैं। इन मंदिरों में श्रद्धालु बड़ी संख्या में चढ़ावा, दान और अन्य प्रकार का वित्तीय योगदान देते हैं। यह धन केवल धार्मिक उद्देश्य से ही नहीं, बल्कि मंदिरों के संरक्षण, प्रबंधन, परंपराओं के निर्वाह और समाज-उन्मुख कार्यों के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। ऐसे में मंदिर निधि का पारदर्शी, सुरक्षित और कानूनसम्मत उपयोग हमेशा से विवाद और चिंता का विषय रहा है।
इसी पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल ही में दिया गया निर्णय अत्यंत महत्वपूर्ण है, जिसमें स्पष्ट कहा गया कि “मंदिर का पैसा भगवान का है और उसे केवल मंदिर और भक्तों के हित में खर्च किया जा सकता है। इसे किसी भी कोऑपरेटिव बैंक जैसे संस्थानों के लिए आय या अस्तित्व बचाने का साधन नहीं बनाया जा सकता।”
यह फैसला न केवल मंदिर प्रबंधन की मर्यादा को स्थापित करता है, बल्कि मंदिर निधि के सुरक्षित उपयोग को लेकर एक मजबूत मार्गदर्शन भी देता है। आगे इस लेख में निर्णय के तथ्यों, कानूनी सिद्धांतों, न्यायालय की टिप्पणियों और इसके व्यापक प्रभावों का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत है।
1. विवाद की पृष्ठभूमि: क्यों उठा यह मुद्दा?
कई राज्यों में मंदिरों की निधि को विभिन्न कोऑपरेटिव बैंकों में जमा करने की प्रथा लंबे समय से चली आ रही है। इन बैंकों में से कई वित्तीय संकट, खराब प्रबंधन या भ्रष्टाचार के कारण घाटे का सामना करते हैं।
ऐसे में, कुछ मामलों में मंदिरों को निर्देश दिया गया कि वे अपनी भारी-भरकम राशि इन कोऑपरेटिव बैंकों में जमा करें ताकि बैंक आर्थिक रूप से स्थिर हो सकें।
यही विवाद सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा, जहाँ यह सवाल था—
“क्या मंदिरों की निधि का उपयोग किसी बाहरी संस्थान, विशेषतः कोऑपरेटिव बैंक, के वित्तीय संकट को हल करने के लिए किया जा सकता है?”
सुप्रीम कोर्ट ने इस पर स्पष्ट रूप से ना कहा।
2. सुप्रीम कोर्ट की मुख्य टिप्पणी: धर्मस्थल की निधि पवित्र ट्रस्ट
न्यायालय ने कहा कि मंदिर में चढ़ाया गया धन ‘भगवान का धन’ है, जिसे ट्रस्ट प्रॉपर्टी माना जाता है।
यह धन किसी देवता या धार्मिक न्यास के नाम पर होता है और उसका स्वामित्व व्यक्तिगत या सरकारी नहीं हो सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा—
“मंदिर निधि एक पवित्र सार्वजनिक ट्रस्ट (sacred public trust) है। इसे किसी भी व्यावसायिक संस्था के जीवनयापन, बचाव या लाभ के लिए उपयोग करना कानून और नैतिकता दोनों के विरुद्ध है।”
इस टिप्पणी में न्यायालय ने दो महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रतिपादित किए—
(क) मंदिर निधि ‘भगवान’ के नाम पर ट्रस्ट प्रॉपर्टी है
इसका अर्थ है कि धन का स्वामित्व किसी व्यक्ति या प्रबंध समिति का नहीं, बल्कि देवता (deity) का है।
(ख) ट्रस्ट प्रॉपर्टी का उपयोग केवल ‘उद्देश्य’ के लिए ही किया जा सकता है
यह उद्देश्य होगा—
- धार्मिक अनुष्ठान
- मंदिर रख-रखाव
- भक्तों की सुविधाएँ
- आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संरक्षण
इन उद्देश्यों से बाहर उपयोग करना “मिशन ड्रिफ्ट” माना जाएगा, जो कानून की नजर में अवैध है।
3. अदालत ने किन कानूनी सिद्धांतों का प्रयोग किया?
यह निर्णय कई महत्वपूर्ण कानूनों और सिद्धांतों पर आधारित था—
(1) भारतीय न्यास अधिनियम (Indian Trusts Act, 1882)
भले ही धार्मिक ट्रस्ट इस अधिनियम के अंतर्गत नहीं आते, लेकिन ट्रस्ट सिद्धांतों के अनुसार धार्मिक ट्रस्ट की संपत्ति केवल निर्धारित उद्देश्य के लिए ही खर्च की जा सकती है।
(2) हिंदू धार्मिक एवं परमार्थ ट्रस्ट सिद्धांत (Hindu Religious Endowments Principles)
देवता एक “परम वैध जूरिस्टिक पर्सन” (juristic person) है और उसकी संपत्ति का संरक्षण सर्वोच्च प्राथमिकता है।
(3) संविधान के अनुच्छेद 25 और 26
धार्मिक संस्थानों को अपने मामलों को “कानून के अधीन” प्रबंधित करने की स्वतंत्रता है।
(4) प्रूडेंट इन्वेस्टमेंट रूल (Prudent Investor Rule)
ट्रस्ट प्रॉपर्टी को सुरक्षित और न्यूनतम जोखिम वाली निवेश योजना में ही रखा जाना चाहिए।
(5) मंदिर के धन का व्यावसायिक बचाव में उपयोग सार्वजनिक नीति के विरुद्ध
किसी कोऑपरेटिव बैंक को बचाने के लिए धार्मिक धन का उपयोग “misapplication of trust funds” माना जाएगा।
4. सुप्रीम कोर्ट के अनुसार मंदिर निधि कोऑपरेटिव बैंक में रखने के क्या खतरे हैं?
अदालत ने विस्तार से बताया कि मंदिर निधि को असुरक्षित बैंकों में जमा करना अत्यधिक जोखिमपूर्ण है। कारण—
(1) कोऑपरेटिव बैंकों में राजनीतिक हस्तक्षेप अधिक
अक्सर इन बैंकों का प्रबंधन राजनीतिक प्रभाव में रहता है, जिससे वित्तीय अनियमितताओं का खतरा रहता है।
(2) कई बैंक खराब ऋण (NPA) के संकट में
संकटग्रस्त बैंकों में जमा धन खो सकता है या वर्षों तक फंस सकता है।
(3) मंदिर का धन ‘उच्च नैतिक मूल्य’ से जुड़ा
इसे जोखिम उठाकर निवेश करना अनुचित माना जाता है।
(4) धार्मिक संस्थानों को सुरक्षित और सरकारी-मान्यता प्राप्त बैंकों में निवेश करना चाहिए
जैसे—
- राष्ट्रीयकृत बैंक
- अनुसूचित बैंक
- सुरक्षित सरकारी बांड
5. सुप्रीम कोर्ट का कठोर रुख: धार्मिक निधि की ‘दुर्व्यवस्था’ बर्दाश्त नहीं
न्यायालय ने टिप्पणी की कि मंदिर निधि का उपयोग उस तरीके से नहीं होना चाहिए जिससे—
- ट्रस्ट संपत्ति पर खतरा आए
- भक्तों के विश्वास को चोट पहुंचे
- मंदिर प्रबंधन में भ्रष्टाचार बढ़े
- किसी निजी या सरकारी संस्था को अनुचित लाभ मिले
अदालत ने चेतावनी देते हुए कहा—
“कोई भी सरकारी निर्देश या नीति, जो मंदिर निधि को कोऑपरेटिव बैंकों में मजबूरन जमा कराने को कहे, वह असंवैधानिक मानी जा सकती है।”
6. निर्णय के बाद मंदिर प्रबंधन में क्या बदलाव अपेक्षित हैं?
यह फैसला एक दिशा-निर्देशक सिद्ध हुआ है। इससे मंदिर प्रशासन में कई सुधारों की जरूरत सामने आई है—
(1) पारदर्शी बैंकिंग व्यवस्था
मंदिर निधि सरकारी और विश्वसनीय वित्तीय संस्थानों में ही जमा होनी चाहिए।
(2) निवेश समिति (Investment Committee) की स्थापना
हर मंदिर ट्रस्ट में यह समिति होनी चाहिए जो—
- निवेश नीति तय करे
- जोखिम विश्लेषण करे
- ब्याज दरों की तुलना करे
(3) सरकारी दबाव या राजनीतिक हस्तक्षेप समाप्त होगा
किसी भी अधिकारी द्वारा मंदिर निधि का दुरुपयोग नहीं किया जा सकेगा।
(4) मंदिर प्रबंधन पर भक्तों का विश्वास बढ़ेगा
यह निर्णय धार्मिक संस्थानों की गरिमा और पवित्रता की रक्षा करेगा।
7. क्या मंदिरों को पूरी स्वतंत्रता है? – अदालत ने सीमाएँ भी बताईं
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया—
- मंदिर ट्रस्ट “सार्वजनिक चरित्र” रखते हैं।
- इसलिए उनकी गतिविधियाँ न्यायिक समीक्षा (judicial review) के अधीन रहेंगी।
- धन का अत्यधिक संचय कर रखना भी उचित नहीं माना जाएगा।
- ट्रस्ट को सामाजिक और धार्मिक हित में धन का उचित उपयोग करना चाहिए।
अर्थात्, निधि न तो असुरक्षित रूप से निवेश की जाए और न ही उपयोग में लाने से रोकी जाए।
8. यह निर्णय किस प्रकार विभिन्न राज्यों के मंदिर कानूनों को प्रभावित करेगा?
कई राज्यों में सरकारी अधिनियम (जैसे तमिलनाडु HR&CE Act, आंध्र प्रदेश Endowments Act, कर्नाटक Muzrai Dept. Regulations) मंदिरों का प्रबंधन नियंत्रित करते हैं।
अब यह न्यायिक निर्देश इन राज्यों के लिए अनिवार्य दिशा-निर्देश जैसा काम करेगा।
प्रभाव—
- सरकारें मंदिर निधि पर निर्णय थोप नहीं पाएंगी।
- कोऑपरेटिव बैंकों के पक्ष में कोई निर्देश नहीं दिया जा सकेगा।
- निधि प्रबंधन में कठोर लेखा-परीक्षण (audit) लागू होंगे।
- भ्रष्टाचार के मामलों में न्यायालय हस्तक्षेप कर सकेगा।
9. भक्तों के अधिकारों का संरक्षण
न्यायालय ने भक्तों के हितों को सर्वोपरि माना और कहा कि—
- भक्तों द्वारा चढ़ाया गया धन “विश्वास” का प्रतीक है।
- इस धन का दुरुपयोग भक्तों की धार्मिक भावनाओं को आहत करेगा।
- धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं कि निधि को भ्रष्ट या असुरक्षित हाथों में सौंप दिया जाए।
10. निष्कर्ष: मंदिर निधि पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला—धार्मिक संपत्ति की सुरक्षा की नई मिसाल
यह निर्णय भारतीय न्यायव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करता है कि धार्मिक संपत्ति का उपयोग अत्यंत सावधानी और पारदर्शिता के साथ होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का यह रुख—
“मंदिर का पैसा भगवान का है—इसे केवल मंदिर और जनता के हितों में ही खर्च किया जा सकता है”
न केवल कानूनी रूप से उचित है बल्कि नैतिक और धार्मिक दृष्टि से भी अत्यंत सही दिशा प्रदान करता है।
इससे—
- मंदिरों का प्रबंधन अधिक सुरक्षित होगा
- भक्तों का विश्वास बढ़ेगा
- कोऑपरेटिव बैंकों पर सरकारी या राजनीतिक दबाव से बचाव होगा
- ट्रस्ट प्रॉपर्टी के उपयोग का मानक स्पष्ट होगा
अंततः, यह फैसला मंदिर निधि की पवित्रता, सुरक्षा और उद्देश्यपूर्ण उपयोग को सुनिश्चित करने वाला ऐतिहासिक कदम है, जो आने वाले वर्षों में धार्मिक संस्थानों की वित्तीय नीतियों को नई दिशा देगा।