मंदिरों के धन पर मद्रास हाईकोर्ट का बड़ा फैसला : “मंदिर का पैसा सिर्फ भगवान का है”
भारत एक ऐसा देश है, जहाँ धर्म और आस्था लोगों के जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और गिरजाघर जैसी धार्मिक संस्थाएँ न केवल पूजा-अर्चना के केंद्र हैं बल्कि समाज के सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को भी मज़बूती देती हैं। मंदिर विशेष रूप से भारतीय परंपरा और संस्कृति में अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। यहाँ भक्तजन अपनी श्रद्धा और आस्था के अनुसार दान करते हैं। यह दान—नकद, आभूषण या संपत्ति—सीधे भगवान के चरणों में अर्पित माना जाता है।
हाल ही में मद्रास हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसने तमिलनाडु सरकार के उस प्रस्ताव पर रोक लगा दी, जिसमें मंदिरों के फंड से शादी हॉल बनाने का प्लान तैयार किया गया था। अदालत ने साफ शब्दों में कहा कि “मंदिर का पैसा और संपत्ति न तो सरकार की है, न जनता की, बल्कि वह केवल भगवान की है।” इस निर्णय ने मंदिरों की स्वायत्तता और धार्मिक निधियों की पवित्रता पर महत्वपूर्ण संदेश दिया है।
पृष्ठभूमि : मामला क्या था?
तमिलनाडु सरकार ने हाल ही में एक योजना बनाई थी, जिसके तहत राज्य के मंदिरों के ट्रस्ट फंड से बड़े पैमाने पर शादी हॉल (Marriage Halls) बनाने की योजना थी। सरकार का तर्क था कि मंदिरों की संपत्ति का उपयोग समाज कल्याण और आम जनता की सुविधाओं के लिए किया जाना चाहिए।
लेकिन इस योजना का विरोध करते हुए कई याचिकाएँ दायर की गईं। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि मंदिर में भक्तों द्वारा दिया गया धन भगवान के पूजन, धार्मिक अनुष्ठान, मंदिर रखरखाव और तीर्थयात्रियों की सेवा के लिए होता है। इसका उपयोग किसी अन्य “लोक-कल्याणकारी” या व्यावसायिक गतिविधि के लिए करना मूल उद्देश्य का उल्लंघन है।
मद्रास हाईकोर्ट का फैसला
मद्रास हाईकोर्ट ने मामले की गंभीरता को समझते हुए कहा कि –
- मंदिर की संपत्ति पवित्र और धार्मिक उद्देश्य के लिए है।
भक्त जब मंदिर में दान करता है, तो वह यह सोचकर देता है कि उसका अर्पण भगवान के चरणों में पहुँचेगा। अतः सरकार या अन्य किसी संस्था को यह अधिकार नहीं है कि वह इस धन का उपयोग अपनी योजना के अनुसार करे। - मंदिर का धन न सरकार का है और न जनता का।
अदालत ने दो टूक कहा कि यह फंड केवल भगवान का है। इसका उपयोग केवल धार्मिक गतिविधियों, मंदिर की देखभाल, पुजारियों के वेतन, तीर्थयात्रियों की सुविधा और धर्मार्थ कार्यों में ही किया जा सकता है। - सरकार का ट्रस्टी की भूमिका सीमित है।
सरकार या उसका विभाग केवल यह सुनिश्चित कर सकता है कि धन का दुरुपयोग न हो। लेकिन वह स्वयं इस धन को किसी “सरकारी प्रोजेक्ट” के लिए खर्च नहीं कर सकती। - धार्मिक स्वतंत्रता और अनुच्छेद 25-26 की रक्षा।
अदालत ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 सभी नागरिकों को अपने धर्म का पालन और धार्मिक संस्थाओं के प्रबंधन का अधिकार देता है। मंदिरों का फंड भी इन्हीं अधिकारों के अंतर्गत संरक्षित है।
कानूनी और संवैधानिक पहलू
मंदिरों और उनकी संपत्ति का प्रबंधन भारतीय संविधान और कई अधिनियमों के अंतर्गत नियंत्रित होता है।
- अनुच्छेद 25 (धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार): प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म का पालन, प्रचार और प्रसार करने की स्वतंत्रता है।
- अनुच्छेद 26 (धार्मिक संस्थाओं की स्वतंत्रता): हर धार्मिक संप्रदाय या संस्था को अपने धार्मिक मामलों का प्रबंधन करने का अधिकार है।
- हिंदू धार्मिक और चैरिटेबल एंडोमेंट्स एक्ट (HR&CE): तमिलनाडु जैसे राज्यों में मंदिरों के प्रबंधन के लिए सरकार ने विशेष अधिनियम बनाए हैं, लेकिन इन अधिनियमों के तहत भी मंदिर की संपत्ति का उपयोग केवल धार्मिक और धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए होना चाहिए।
अदालत का फैसला इन्हीं संवैधानिक मूल्यों की पुनर्पुष्टि है।
मंदिर निधि का पारंपरिक उपयोग
सदियों से मंदिरों में जमा होने वाले दान और निधि का उपयोग निम्न कार्यों में होता रहा है—
- भगवान की पूजा-अर्चना, उत्सव और धार्मिक अनुष्ठानों में।
- मंदिर के रखरखाव और पुनर्निर्माण में।
- पुजारियों, कर्मचारियों और सेवकों के वेतन में।
- तीर्थयात्रियों और भक्तों के लिए भोजन (अन्नदान), जल, विश्राम गृह जैसी सुविधाओं में।
- धर्मार्थ कार्य जैसे शिक्षा, चिकित्सा, गौशाला आदि में।
यह सारी गतिविधियाँ सीधे तौर पर धर्म और आस्था से जुड़ी होती हैं।
सरकार के प्रस्ताव पर सवाल
तमिलनाडु सरकार का तर्क था कि शादी हॉल बनाकर आम जनता को लाभ मिलेगा। लेकिन इस पर अदालत ने सवाल उठाया कि—
- क्या भक्त जब दान करते हैं, तो वे चाहते हैं कि वह पैसा शादी हॉल बनाने में लगे?
- यदि समाज कल्याण ही उद्देश्य है, तो इसके लिए सरकार के पास अन्य बजटीय संसाधन क्यों नहीं हैं?
- मंदिर का पैसा केवल मंदिर और धर्मार्थ कार्यों के लिए होना चाहिए, न कि सरकारी योजनाओं के लिए।
फैसले का व्यापक असर
मद्रास हाईकोर्ट का यह फैसला न केवल तमिलनाडु, बल्कि पूरे भारत के लिए महत्वपूर्ण है।
- मंदिरों की स्वायत्तता की रक्षा होगी।
इससे यह सुनिश्चित होगा कि मंदिरों का फंड अपने मूल उद्देश्य से भटके नहीं। - धार्मिक निधियों की पारदर्शिता बढ़ेगी।
अब सरकारें बिना सोचे-समझे इन निधियों का उपयोग किसी अन्य कार्य में नहीं कर पाएंगी। - अन्य राज्यों पर असर।
कई राज्यों में भी मंदिर निधि पर सरकार का नियंत्रण है। यह फैसला उन राज्यों में भी नई बहस को जन्म देगा। - भक्तों का विश्वास मजबूत होगा।
जब भक्त देखेंगे कि उनका दान वास्तव में धार्मिक कार्यों और मंदिर के विकास में लग रहा है, तो उनकी आस्था और भी गहरी होगी।
आलोचनाएँ और विवाद
कुछ विशेषज्ञ यह तर्क देते हैं कि यदि मंदिरों के पास अत्यधिक धन है, तो उसका एक हिस्सा समाज कल्याण में लगाया जाना चाहिए। लेकिन इसके भी समाधान हैं—
- मंदिर स्वयं धर्मार्थ कार्यों (अस्पताल, स्कूल, अन्नदान) चला सकते हैं।
- सरकार को इसमें हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है।
- धार्मिक निधियों को जबरन सरकारी योजनाओं में लगाना भक्तों की आस्था के साथ धोखा होगा।
निष्कर्ष
मद्रास हाईकोर्ट का यह ऐतिहासिक फैसला भारतीय न्यायपालिका की उस परंपरा को दर्शाता है, जिसमें धर्म और आस्था का सम्मान सर्वोपरि है। अदालत ने साफ कर दिया कि मंदिरों का धन केवल भगवान का है। यह न तो सरकार का खजाना है और न ही जनता का कर-राजस्व।
इस निर्णय से यह संदेश गया है कि सरकार की भूमिका केवल एक संरक्षक (Trustee) की है, मालिक की नहीं। मंदिरों की निधि का उपयोग उसी उद्देश्य में होना चाहिए, जिसके लिए भक्त उसे अर्पित करते हैं।
अतः कहा जा सकता है कि यह फैसला मंदिरों की पवित्रता, भक्तों की आस्था और संविधान द्वारा प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा की दिशा में एक मील का पत्थर है।
मद्रास हाईकोर्ट का फैसला : मंदिरों के धन पर बड़ा निर्णय (Q&A शैली में)
Q.1. मामला क्या था?
Ans. तमिलनाडु सरकार ने मंदिरों के फंड से बड़े पैमाने पर शादी हॉल (Marriage Halls) बनाने की योजना बनाई थी। सरकार का तर्क था कि इससे समाज को लाभ मिलेगा। इस योजना को चुनौती देते हुए याचिकाएँ दाखिल हुईं, जिनमें कहा गया कि मंदिर का धन धार्मिक और धर्मार्थ कार्यों के लिए होता है, न कि सरकारी परियोजनाओं के लिए।
Q.2. मद्रास हाईकोर्ट ने क्या कहा?
Ans. अदालत ने स्पष्ट किया कि—
- मंदिर का धन और संपत्ति केवल भगवान की है।
- यह न तो सरकार की है और न जनता की।
- सरकार की भूमिका केवल संरक्षक (Trustee) की है, मालिक की नहीं।
- दान में मिले धन का उपयोग केवल धार्मिक कार्य, मंदिर रखरखाव, पुजारियों के वेतन और तीर्थयात्रियों की सुविधा जैसे कार्यों में होना चाहिए।
Q.3. अदालत का फैसला किस संवैधानिक प्रावधान पर आधारित था?
Ans.
- अनुच्छेद 25 : धर्म का पालन, प्रचार और प्रसार की स्वतंत्रता।
- अनुच्छेद 26 : धार्मिक संस्थाओं को अपने धार्मिक मामलों का प्रबंधन करने की स्वतंत्रता।
- अदालत ने इन्हीं अनुच्छेदों के आधार पर कहा कि मंदिरों का फंड केवल धार्मिक और धर्मार्थ प्रयोजनों के लिए है।
Q.4. मंदिर निधि का पारंपरिक उपयोग किन कार्यों में होता है?
Ans.
- भगवान की पूजा-अर्चना और धार्मिक अनुष्ठान।
- मंदिर रखरखाव और पुनर्निर्माण।
- पुजारियों और कर्मचारियों का वेतन।
- भक्तों और तीर्थयात्रियों के लिए भोजन, जल और विश्राम गृह।
- धर्मार्थ कार्य जैसे शिक्षा, चिकित्सा, गौशाला आदि।
Q.5. सरकार के प्रस्ताव पर अदालत ने सवाल क्यों उठाया?
Ans. अदालत ने कहा कि—
- भक्त जब दान करते हैं, तो उनकी भावना होती है कि यह भगवान के काम में लगे।
- यदि समाज कल्याण ही उद्देश्य है, तो सरकार के पास इसके लिए अलग बजटीय संसाधन हैं।
- मंदिर के धन को जबरन सरकारी योजनाओं में लगाना भक्तों की आस्था के साथ धोखा होगा।
Q.6. फैसले का व्यापक असर क्या होगा?
Ans.
- मंदिरों की स्वायत्तता और पवित्रता की रक्षा होगी।
- धार्मिक निधियों की पारदर्शिता सुनिश्चित होगी।
- अन्य राज्यों में भी बहस छिड़ेगी जहाँ सरकार मंदिर निधि पर नियंत्रण रखती है।
- भक्तों का विश्वास मजबूत होगा कि उनका दान सही स्थान पर उपयोग हो रहा है।
Q.7. क्या मंदिर निधि का समाज कल्याण में उपयोग संभव है?
Ans. हाँ, लेकिन शर्त यह है कि—
- मंदिर स्वयं धर्मार्थ कार्य जैसे अस्पताल, स्कूल, अन्नदान चला सकते हैं।
- सरकार इसमें प्रत्यक्ष हस्तक्षेप न करे।
- निधि का उपयोग हमेशा धार्मिक और धर्मार्थ उद्देश्यों से जुड़ा होना चाहिए।
Q.8. निष्कर्ष में अदालत ने क्या संदेश दिया?
Ans.
- मंदिर का धन भगवान का है, न सरकार का और न जनता का।
- सरकार केवल ट्रस्टी है, मालिक नहीं।
- मंदिर निधि का उपयोग उसी उद्देश्य में होना चाहिए, जिसके लिए भक्त उसे अर्पित करते हैं।
- यह फैसला धार्मिक स्वतंत्रता और भक्तों की आस्था की रक्षा में एक मील का पत्थर है।