भोपाल गैस त्रासदी (1984) – भारत में पर्यावरणीय न्याय और दायित्व के सिद्धांत को प्रेरित करने वाली घटना
प्रस्तावना
भारत के आधुनिक न्यायिक इतिहास में भोपाल गैस त्रासदी (Bhopal Gas Tragedy, 1984) एक ऐसी दुखद घटना है जिसने न केवल लाखों लोगों का जीवन प्रभावित किया, बल्कि देश की न्यायिक, विधिक और सामाजिक संरचना को भी गहराई से झकझोर दिया। यह घटना विश्व की सबसे भीषण औद्योगिक दुर्घटनाओं में से एक मानी जाती है। 2 और 3 दिसंबर 1984 की रात को मध्यप्रदेश के भोपाल शहर में स्थित यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (UCIL) के कारखाने से जहरीली मिथाइल आइसोसायनेट (MIC) गैस का रिसाव हुआ, जिससे हजारों लोग तत्काल मारे गए और लाखों लोग स्थायी रूप से विकलांग हो गए।
हालाँकि भारतीय न्यायालयों ने इस मामले में सीधे तौर पर Absolute Liability (निरपेक्ष दायित्व) का सिद्धांत लागू नहीं किया, किंतु यह घटना बाद में इस सिद्धांत को प्रेरित करने वाली मुख्य वजह बनी। 1987 में M.C. Mehta v. Union of India (ओलियम गैस रिसाव केस) में सुप्रीम कोर्ट ने Absolute Liability का सिद्धांत प्रतिपादित किया, जो भोपाल जैसी त्रासदियों से मिले सबक का प्रत्यक्ष परिणाम था।
भोपाल गैस त्रासदी : पृष्ठभूमि
यूनियन कार्बाइड का यह प्लांट 1969 में भोपाल में स्थापित किया गया था। यहाँ कीटनाशक सेविन (Sevin) बनाने के लिए मिथाइल आइसोसायनेट (MIC) का उपयोग किया जाता था। MIC एक अत्यधिक जहरीला और अस्थिर रसायन है, जिसे सुरक्षित ढंग से संग्रहीत करना अत्यंत आवश्यक होता है।
2 दिसंबर 1984 की रात को प्लांट के एक टैंक से लगभग 40 टन MIC गैस का रिसाव हुआ। सुरक्षा उपकरण निष्क्रिय थे और आपातकालीन चेतावनी प्रणाली भी समय पर सक्रिय नहीं की गई। नतीजतन, गैस तेजी से हवा में फैल गई और आसपास की बस्तियों पर मौत का साया छा गया।
जनहानि और प्रभाव
- अनुमानतः 3000 लोग तत्काल मारे गए और अगले वर्षों में यह संख्या 20,000 से भी अधिक हो गई।
- लगभग 5 लाख से अधिक लोग स्थायी रूप से प्रभावित हुए, जिनमें अंधत्व, श्वसन रोग, कैंसर और जन्मजात विकृतियाँ प्रमुख थीं।
- भोपाल शहर का सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय ढाँचा बुरी तरह टूट गया।
न्यायालय की भूमिका
इस दुर्घटना के बाद हजारों दावे दायर किए गए। भारत सरकार ने पीड़ितों की ओर से Bhopal Gas Leak Disaster (Processing of Claims) Act, 1985 पारित किया, जिसके अंतर्गत सरकार को सभी दावों की प्रतिनिधि बनकर मुकदमे लड़ने का अधिकार मिला।
भारत सरकार ने अमेरिका और भारत दोनों जगह यूनियन कार्बाइड के विरुद्ध मुआवजे का मुकदमा दायर किया। अंततः 1989 में सुप्रीम कोर्ट ने समझौता कराते हुए यूनियन कार्बाइड को 470 मिलियन डॉलर (करीब 750 करोड़ रुपये) का मुआवजा देने का आदेश दिया।
यह समझौता विवादास्पद रहा क्योंकि मुआवजा पीड़ितों की वास्तविक क्षति की तुलना में बेहद कम था।
Absolute Liability से संबंध
भोपाल गैस त्रासदी के समय सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक Absolute Liability का सिद्धांत विकसित नहीं किया था। उस समय केवल Strict Liability (Rylands v. Fletcher, 1868) का सिद्धांत प्रचलित था, जिसके तहत ‘Act of God’, ‘Plaintiff’s Fault’ आदि अपवाद मान्य थे।
किन्तु भोपाल जैसी भीषण त्रासदी ने यह स्पष्ट कर दिया कि औद्योगिक दुर्घटनाओं में पारंपरिक ‘Strict Liability’ पर्याप्त नहीं है।
- बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ तकनीकी जटिलताओं का बहाना बनाकर जिम्मेदारी से बच सकती थीं।
- पीड़ितों को न्याय और मुआवजा प्राप्त करने में भारी कठिनाइयाँ होती थीं।
इन्हीं परिस्थितियों के परिणामस्वरूप सुप्रीम कोर्ट ने 1987 के M.C. Mehta v. Union of India (Oleum Gas Leak Case) में Absolute Liability का सिद्धांत प्रतिपादित किया। इस सिद्धांत के अनुसार –
- यदि कोई उद्योग खतरनाक या जोखिमपूर्ण गतिविधि करता है और उससे किसी व्यक्ति या संपत्ति को हानि होती है,
- तो उद्योग को पूर्ण और निरपेक्ष रूप से उत्तरदायी ठहराया जाएगा।
- इसमें कोई अपवाद (जैसे Act of God, तीसरे पक्ष की गलती आदि) लागू नहीं होंगे।
अर्थात् भोपाल गैस त्रासदी ने भारतीय न्यायालयों को यह सोचने के लिए मजबूर किया कि औद्योगिक दुर्घटनाओं के मामलों में ‘Strict Liability’ को कठोर बनाकर ‘Absolute Liability’ का रूप दिया जाए।
विधायी प्रभाव
भोपाल गैस त्रासदी के बाद भारत में कई महत्त्वपूर्ण कानून बनाए गए, जिनमें प्रमुख हैं –
- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 – पर्यावरण प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण हेतु।
- पब्लिक लायबिलिटी इंश्योरेंस एक्ट, 1991 – खतरनाक उद्योगों द्वारा दुर्घटना की स्थिति में तुरंत मुआवजा देने का प्रावधान।
- नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल एक्ट, 2010 – पर्यावरणीय मामलों के त्वरित निस्तारण हेतु विशेष न्यायाधिकरण की स्थापना।
आलोचना
- सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया गया 470 मिलियन डॉलर का समझौता पीड़ितों की वास्तविक पीड़ा और क्षति की तुलना में नगण्य था।
- यूनियन कार्बाइड और उसकी मूल कंपनी डाउ केमिकल्स ने आपराधिक जिम्मेदारी से बचने के प्रयास किए।
- दशकों बाद भी प्रभावित क्षेत्रों में प्रदूषण और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ बनी हुई हैं।
निष्कर्ष
भोपाल गैस त्रासदी केवल एक औद्योगिक दुर्घटना नहीं थी, बल्कि यह भारत की न्यायिक और विधायी सोच को बदलने वाली घटना थी। यद्यपि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सीधे Absolute Liability का सिद्धांत लागू नहीं किया, परंतु यही घटना उस सिद्धांत को जन्म देने और उसे सुदृढ़ बनाने की प्रेरणा बनी।
इस त्रासदी ने यह सिखाया कि –
- खतरनाक उद्योगों को समाज और पर्यावरण के प्रति सर्वोच्च जिम्मेदारी निभानी होगी।
- पीड़ितों को शीघ्र और पर्याप्त मुआवजा मिलना चाहिए।
- औद्योगिक विकास केवल लाभ और तकनीकी प्रगति का नाम नहीं, बल्कि यह सामाजिक और पर्यावरणीय सुरक्षा से भी जुड़ा हुआ है।
इस प्रकार भोपाल गैस त्रासदी ने भारत की न्यायिक व्यवस्था में Absolute Liability सिद्धांत की आवश्यकता को जन्म दिया और इसे वैश्विक स्तर पर पर्यावरणीय न्याय का प्रतीक बना दिया।