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“भावी अभियुक्त द्वारा मजिस्ट्रेट के एफ.आई.आर. दर्ज करने के आदेश को चुनौती नहीं दी जा सकती — इलाहाबाद उच्च न्यायालय का स्पष्ट अभिमत”

“धारा 156(3) दंप्रसं / धारा 173(4) बीएनएसएस के अंतर्गत मजिस्ट्रेट द्वारा एफ.आई.आर. दर्ज कराने के आदेश को भावी अभियुक्त द्वारा चुनौती देने का अधिकार नहीं” — इलाहाबाद उच्च न्यायालय का गहन विश्लेषणात्मक निर्णय


I. प्रस्तावना

भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह न केवल अपराध की जानकारी का औपचारिक अभिलेख होती है, बल्कि आपराधिक प्रक्रिया की शुरुआत भी यहीं से होती है। कई बार ऐसा होता है कि किसी व्यक्ति की शिकायत पर थाना पुलिस एफ.आई.आर. दर्ज नहीं करती, तब संबंधित व्यक्ति दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 156(3) अथवा भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 173(4) के अंतर्गत मजिस्ट्रेट से अनुरोध कर सकता है कि वह पुलिस को जांच हेतु निर्देश जारी करे।

लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या ऐसे निर्देश के विरुद्ध वह व्यक्ति, जिसके विरुद्ध भविष्य में एफ.आई.आर. दर्ज हो सकती है (अर्थात “भावी अभियुक्त”), उच्च न्यायालय में जाकर इस आदेश को चुनौती दे सकता है?

इस प्रश्न पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पूर्णपीठ द्वारा ‘Father Thomas v. State of U.P., 2011 (1) ADJ 333 (FB)’ में विस्तृत विचार किया गया था, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि भावी अभियुक्त को ऐसे आदेश को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं है। इसी विधिक सिद्धांत की पुनः पुष्टि ‘Kamlesh Meena & Others v. State of U.P. & Others’ (Dandik Prakarn Prarthana Patra No. 25348 of 2025) में माननीय न्यायमूर्ति श्री दिनेश पाठक ने अपने निर्णय दिनांक 25 जुलाई 2025 को की है।


II. विधिक प्रावधानों का स्वरूप

1. दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 156(3):

“कोई भी मजिस्ट्रेट, जो धारा 190 के अधीन मामलों को ग्रहण करने के लिए सक्षम है, ऐसे किसी भी अपराध के संबंध में, जिसकी जांच पुलिस द्वारा की जा सकती है, पुलिस को जांच करने के लिए निर्देश दे सकता है।”

2. भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 173(4):

यह धारा मूलतः धारा 156(3) CrPC के समतुल्य है, जो मजिस्ट्रेट को यह अधिकार देती है कि यदि किसी अपराध के संबंध में पुलिस कार्रवाई नहीं कर रही है, तो वह थाना प्रभारी को प्राथमिकी दर्ज करने और जांच प्रारंभ करने के लिए आदेश दे सके।

इन दोनों धाराओं का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अपराध के पीड़ित को न्यायिक सहायता प्राप्त हो सके और पुलिस अपने दायित्वों का निर्वहन करे।


III. फादर थॉमस बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश (2011) का ऐतिहासिक निर्णय

इस मामले में तीन-न्यायाधीशों की पूर्णपीठ ने यह महत्वपूर्ण प्रश्न विचारार्थ लिया कि क्या धारा 156(3) के तहत जारी आदेश को भावी अभियुक्त चुनौती दे सकता है?

न्यायालय का निष्कर्ष:
पूर्णपीठ ने यह निर्णय दिया कि धारा 156(3) के अंतर्गत मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश केवल पुलिस जांच प्रारंभ करने का प्रशासनिक निर्देश है। यह न तो अभियुक्त के अधिकारों पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है और न ही उसके विरुद्ध कोई दंडात्मक कार्रवाई प्रारंभ करता है। इसलिए भावी अभियुक्त को ऐसा आदेश चुनौती देने का कोई कानूनी अधिकार (locus standi) प्राप्त नहीं है।

मुख्य तर्क:

  1. मजिस्ट्रेट का आदेश केवल “प्रारंभिक प्रक्रिया” है, जिससे जांच प्रारंभ होती है, अभियोजन नहीं।
  2. जब तक कोई व्यक्ति अभियुक्त घोषित नहीं किया जाता या उसके विरुद्ध संज्ञान नहीं लिया जाता, तब तक उसे “भावी अभियुक्त” कहा जाता है, और इस अवस्था में उसके मौलिक अधिकारों का कोई उल्लंघन नहीं होता।
  3. यदि जांच के बाद पुलिस रिपोर्ट (चार्जशीट) दाखिल करती है और मजिस्ट्रेट संज्ञान लेता है, तभी अभियुक्त को उचित मंच (जैसे धारा 482 CrPC) पर जाने का अधिकार उत्पन्न होता है।

IV. कमलेश मीणा बनाम राज्य (2025) — निर्णय का सार

मामले की पृष्ठभूमि:
‘कमलेश मीणा एवं अन्य बनाम राज्य उत्तर प्रदेश एवं अन्य’ मामले में याचिकाकर्ताओं ने मजिस्ट्रेट के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें बीएनएसएस की धारा 173(4) के अंतर्गत थाना अध्यक्ष को एफ.आई.आर. दर्ज करने का निर्देश दिया गया था।

माननीय न्यायमूर्ति दिनेश पाठक ने अपने निर्णय में कहा कि इस तरह का आदेश केवल प्रारंभिक जांच की प्रक्रिया को गति देने हेतु होता है। इस स्तर पर कोई अभियुक्त नहीं होता, केवल संदेह होता है। अतः ऐसे आदेश को “भावी अभियुक्त” द्वारा चुनौती देने का कोई औचित्य नहीं है।

न्यायालय ने कहा:

“मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 173(4) बीएनएसएस (या पूर्ववर्ती धारा 156(3) CrPC) के अंतर्गत पारित आदेश केवल पुलिस जांच प्रारंभ करने के लिए है। यह आदेश अभियुक्त के विरुद्ध कोई अधिकारिक या विधिक परिणाम उत्पन्न नहीं करता। अतः ऐसा आदेश किसी संभावित अभियुक्त के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं माना जा सकता।”

इस प्रकार, उच्च न्यायालय ने ‘Father Thomas’ के सिद्धांत का पुनः अनुमोदन किया और यह स्पष्ट किया कि भावी अभियुक्त केवल तब न्यायालय की शरण ले सकता है जब उसके विरुद्ध प्रत्यक्ष अभियोजन प्रारंभ हो जाए।


V. न्यायालय द्वारा प्रतिपादित विधिक सिद्धांत

  1. प्रारंभिक आदेश का स्वरूप प्रशासनिक है, न्यायिक नहीं:
    मजिस्ट्रेट जब धारा 156(3) या 173(4) के अंतर्गत पुलिस को जांच का निर्देश देता है, तो यह आदेश न्यायिक नहीं बल्कि प्रशासनिक प्रकृति का होता है। अतः इस आदेश से अभियुक्त के मौलिक अधिकारों पर प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ता।
  2. भावी अभियुक्त की कोई अधिकारिता नहीं (No Locus Standi):
    जब तक अभियुक्त के विरुद्ध संज्ञान नहीं लिया गया, तब तक वह केवल “संभावित अभियुक्त” है। ऐसे व्यक्ति को न तो आदेश की वैधता चुनौती देने का अधिकार है, न ही इस स्तर पर प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत लागू होते हैं।
  3. न्यायालय का हस्तक्षेप केवल बाद के चरण में संभव:
    यदि जांच के उपरांत पुलिस रिपोर्ट दाखिल करती है और मजिस्ट्रेट संज्ञान लेकर अभियोजन प्रारंभ करता है, तभी अभियुक्त धारा 482 CrPC (या धारा 528 BNSS) के अंतर्गत न्यायालय की शरण ले सकता है।
  4. प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत इस चरण पर लागू नहीं:
    मजिस्ट्रेट द्वारा 156(3) या 173(4) के तहत आदेश पारित करते समय अभियुक्त को सुनवाई का अधिकार नहीं दिया जाता, क्योंकि यह केवल जांच प्रारंभ करने की प्रक्रिया है, न कि दोषसिद्धि की।

VI. न्यायिक दृष्टांतों का तुलनात्मक अध्ययन

मामला वर्ष निर्णय देने वाला न्यायालय सिद्धांत
Father Thomas v. State of U.P. 2011 इलाहाबाद उच्च न्यायालय (पूर्णपीठ) भावी अभियुक्त आदेश को चुनौती नहीं दे सकता
Madhao v. State of Maharashtra 2013 बॉम्बे उच्च न्यायालय धारा 156(3) आदेश जांच प्रारंभ करने हेतु मात्र
Sakiri Vasu v. State of U.P. 2008 सर्वोच्च न्यायालय शिकायतकर्ता मजिस्ट्रेट से जांच का निर्देश प्राप्त कर सकता है
Kamlesh Meena v. State of U.P. 2025 इलाहाबाद उच्च न्यायालय Father Thomas के सिद्धांत की पुनः पुष्टि

VII. विधिक नीति का उद्देश्य और तर्क

  1. न्यायिक प्रक्रिया में अनावश्यक हस्तक्षेप से बचाव:
    यदि प्रत्येक संभावित अभियुक्त मजिस्ट्रेट के 156(3) आदेश को चुनौती देने लगे, तो न्यायिक प्रक्रिया अत्यधिक विलंबित और बोझिल हो जाएगी।
  2. पुलिस जांच में बाधा का अभाव:
    न्यायालय यह सुनिश्चित करना चाहता है कि पुलिस स्वतंत्र रूप से जांच कर सके और प्रारंभिक स्तर पर कोई व्यक्ति जांच में अवरोध न बने।
  3. न्यायिक दक्षता का संरक्षण:
    जांच पूरी होने के बाद यदि कोई अभियुक्त निर्दोष है, तो उसे चार्जशीट दाखिल होने के बाद उचित विधिक उपाय उपलब्ध हैं।
  4. पीड़ित के अधिकारों की रक्षा:
    पीड़ित को न्याय मिलने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी शिकायत का निष्पक्ष परीक्षण हो सके।

VIII. भावी अभियुक्त के लिए वैकल्पिक उपाय

हालांकि मजिस्ट्रेट के 156(3) आदेश को चुनौती नहीं दी जा सकती, परन्तु भावी अभियुक्त के पास अन्य विधिक उपाय उपलब्ध हैं —

  1. जांच के दौरान धारा 91 CrPC / धारा 189 BNSS के अंतर्गत दस्तावेज प्रस्तुत करने हेतु आवेदन।
  2. जांच पूर्ण होने पर धारा 482 CrPC / धारा 528 BNSS के अंतर्गत प्रक्रिया को निरस्त करने हेतु याचिका।
  3. चार्जशीट दाखिल होने के बाद मजिस्ट्रेट के समक्ष डिस्चार्ज आवेदन (Discharge Application) दायर करने का अधिकार।

IX. निष्कर्ष

‘Father Thomas बनाम State of U.P.’ और ‘Kamlesh Meena बनाम State of U.P.’ (2025) दोनों ही निर्णय भारतीय आपराधिक प्रक्रिया में एक समान विधिक सिद्धांत को पुष्ट करते हैं —

“धारा 156(3) CrPC अथवा धारा 173(4) BNSS के अंतर्गत मजिस्ट्रेट द्वारा एफ.आई.आर. दर्ज करने हेतु दिए गए आदेश के विरुद्ध भावी अभियुक्त को कोई अधिकार प्राप्त नहीं है।”

यह सिद्धांत न्यायिक विवेक, प्रशासनिक सरलता और जांच की स्वतंत्रता का प्रतीक है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि अपराध के आरोपों की निष्पक्ष जांच बिना किसी अवरोध के संपन्न हो सके।

इस प्रकार, इलाहाबाद उच्च न्यायालय का 25 जुलाई 2025 का निर्णय भारतीय न्यायिक व्यवस्था में उस विधिक परंपरा की पुनः पुष्टि करता है, जिसमें न्यायिक प्रक्रिया का प्रत्येक चरण अपने निर्धारित दायरे में रहकर ही संचालित होता है — जांच का चरण केवल तथ्यों के सत्यापन का है, अभियोजन का नहीं।


X. उपसंहार

भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में जहां अपराधों की जांच और अभियोजन प्रक्रिया जटिल है, वहां यह अत्यंत आवश्यक है कि न्यायालय प्रत्येक चरण की सीमाओं को स्पष्ट करे। ‘Kamlesh Meena’ का निर्णय इसी दिशा में एक सशक्त मार्गदर्शक है, जो यह बताता है कि न्यायालय की प्रक्रिया में जल्दबाजी से नहीं, बल्कि विधिक अनुशासन से ही न्याय प्राप्त किया जा सकता है।

यह निर्णय न केवल अभियोजन प्रक्रिया को स्पष्टता प्रदान करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि पीड़ित, पुलिस, और अभियुक्त — तीनों के अधिकार संतुलित रहें

इस प्रकार, यह निर्णय भारतीय दंड न्याय प्रणाली में एक महत्वपूर्ण न्यायिक मील का पत्थर (Judicial Milestone) के रूप में देखा जाएगा।