भारत के सियासी और न्यायिक तंत्र में 1984 के सिख विरोधी दंगों की सच्चाई: एक न्यायिक व राजनीतिक अपराध का इतिहास

भारत के सियासी और न्यायिक तंत्र में 1984 के सिख विरोधी दंगों की सच्चाई: एक न्यायिक व राजनीतिक अपराध का इतिहास :

1984 के नवंबर महीने में भारत के सिख समुदाय के खिलाफ हुए भयानक दंगों का इतिहास हमारे देश के लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था की एक काला अध्याय है। इस घटना ने न केवल सिखों के विश्वास को झकझोर कर रख दिया, बल्कि इस देश के संवैधानिक तंत्र और संवेदनशील न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़ा कर दिया।

आज तक, 1984 के सिख विरोधी दंगों में शामिल सत्ताधारी नेताओं, पुलिस अधिकारियों, और न्यायिक अधिकारियों की भूमिका पर संशय और आरोप लगे हैं। विशेषकर उन मामलों में, जैसे कि LPA No. 671 of 2011, जो दिल्ली उच्च न्यायालय में लंबित है, इसमें पीड़ित परिवारों के न्याय के लिए आवाज़ उठाई जा रही है, परंतु राजनीतिक संरक्षण और न्यायिक विफलता के चलते न्यायालय ने उन निर्दोष पीड़ितों को दंडित किया, जिन्हें प्रारंभिक अदालत ने साफ़ तौर पर बरी कर दिया था।

1984 के दंगों का राजनीतिक और पुलिस अधिकारियों का कनेक्शन

5 नवंबर 1984 के दिन, सिख समुदाय के निर्दोष लोगों को बड़े पैमाने पर निशाना बनाया गया। उस समय के केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई सदस्य, दिल्ली पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी, और भारतीय सेना के कुछ पदाधिकारी कथित रूप से इन हिंसाओं में शामिल थे। यह तथ्य सामने आया कि न केवल सांप्रदायिक हिंसा को रोकने में विफलता हुई, बल्कि इस हिंसा को अंजाम देने वाले लोगों को राजनीतिक संरक्षण भी प्राप्त था।

1985 में जारी राष्ट्रपति अधिसूचना संख्या 64, जिसने दंगों से जुड़े कुछ मामलों को प्रभावित किया, ने न्याय प्रक्रिया को गुमराह किया और पीड़ितों के हक में निर्णय को टाल दिया। इस अधिसूचना के विरुद्ध अपीलों का लंबा फेरा अभी भी अदालतों में फंसा हुआ है।

न्यायपालिका की विफलता: पीड़ितों के साथ अन्याय

LPA No. 671 of 2011 जैसे मामले इस विफलता के प्रमुख उदाहरण हैं। जिन 17 सिख परिवारों को तत्कालीन अदालत ने स्पष्ट सबूतों के आधार पर निर्दोष माना था, उन्हें न्यायालय ने पुनः दंडित कर दिया। यह निर्णय न केवल न्याय के सिद्धांतों का अपमान है, बल्कि इसे राजनीतिक दबाव के तहत लिए गए एक अपराध के रूप में देखा जाता है।

हर उस न्यायाधीश ने, जिसने इन अपीलों को खारिज किया या इन निर्दोष पीड़ितों को दंडित किया, ने न्याय के प्रति अपनी नैतिक जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया। ऐसे निर्णयों से यह संदेश जाता है कि भारत में न्यायपालिका भी राजनीतिक साजिशों की भेंट चढ़ सकती है।

केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री की भूमिका

1984 के बाद से सभी केंद्र सरकारों पर आरोप लगते रहे हैं कि वे दंगों के दोषियों को बचाने में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। चाहे वह कांग्रेस हो या वर्तमान सरकार, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हैं, सभी ने इन मामलों को राजनीतिक स्वार्थ की दृष्टि से संचालित किया है। इसने पीड़ितों के दिलों में न्याय की उम्मीद को तार-तार किया है।

न केवल सत्ताधारी नेताओं ने मामले की गम्भीरता को कम आंका, बल्कि पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को भी संरक्षण दिया गया, जिन्होंने अपने कर्तव्यों का उल्लंघन किया। इस काले अध्याय के लिए जिम्मेदार सभी को न्याय के कठघरे में लाना आज भी एक चुनौती है।

निष्कर्ष: न्याय की पुकार और देश का भविष्य

1984 के सिख विरोधी दंगों के पीड़ित परिवारों के साथ जो अन्याय हुआ है, वह भारत के लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है। LPA No. 671 of 2011 जैसे मामले, जो न्यायालयों में लंबित हैं, का शीघ्र निपटारा अत्यंत आवश्यक है ताकि पीड़ितों को न्याय मिल सके।

यह आवश्यक है कि भारत की न्यायपालिका पूरी निष्पक्षता से इस मामले की समीक्षा करे और दोषियों को कानून के अनुसार सजा दिलाए। इसके साथ ही, राजनीतिक हस्तक्षेप को समाप्त कर, देश के संवैधानिक संस्थानों की गरिमा बनाए रखी जाए।

सिर्फ़ न्याय मिलने से ही सिख समुदाय और पूरे देश के लोगों के मन में विश्वास जागेगा कि भारत में कानून और संविधान सर्वोपरि हैं, और किसी भी व्यक्ति या समूह के खिलाफ अन्याय बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।