भारत की स्वतंत्रता के बाद विधिक प्रणाली में आए प्रमुख परिवर्तनों की विवेचना कीजिए। संविधान ने भारतीय विधि परंपरा को किस प्रकार दिशा प्रदान की? (BA LLB History)

प्रश्न: भारत की स्वतंत्रता के बाद विधिक प्रणाली में आए प्रमुख परिवर्तनों की विवेचना कीजिए। संविधान ने भारतीय विधि परंपरा को किस प्रकार दिशा प्रदान की?
उत्तर:


🔷 भूमिका:

भारत की स्वतंत्रता (15 अगस्त 1947) के साथ ही देश में एक नवीन विधिक युग का आरंभ हुआ। औपनिवेशिक विधिक ढाँचे को बदलकर स्वतंत्र, लोकतांत्रिक और जनहितकारी विधिक प्रणाली की स्थापना की आवश्यकता महसूस की गई। भारत का संविधान, जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ, न केवल विधि का सर्वोच्च स्रोत बना, बल्कि उसने भारतीय विधिक परंपरा को नया दर्शन, दिशा और ढाँचा प्रदान किया।


🔷 1. स्वतंत्रता के बाद विधिक प्रणाली में आए प्रमुख परिवर्तन:

1.1 संविधान की स्थापना – सर्वोच्च विधिक ग्रंथ

  • भारतीय संविधान ने विधि के सभी स्रोतों को नियंत्रित किया।
  • संवैधानिक सर्वोच्चता की स्थापना हुई – अब संसद, कार्यपालिका और न्यायपालिका सभी संविधान के अधीन हो गए।
  • ब्रिटिश संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की जगह अब भारतीय संसद को पूर्ण विधिनिर्माण अधिकार प्राप्त हुए।

1.2 मौलिक अधिकारों की गारंटी

  • संविधान के भाग-III में नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किए गए, जैसे – समानता का अधिकार (अनु. 14-18), स्वतंत्रता का अधिकार, जीवन का अधिकार (अनु. 21), आदि।
  • न्यायपालिका को यह अधिकार मिला कि यदि कोई कानून मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है तो वह उसे असंवैधानिक घोषित कर सकती है।
  • यह परिवर्तन ब्रिटिश काल की दमनात्मक नीति के ठीक विपरीत था।

1.3 न्यायपालिका की स्वतंत्रता और न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review)

  • न्यायपालिका को संविधान के संरक्षक और व्याख्याता की भूमिका दी गई।
  • उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को किसी भी विधि या कार्यकारी आदेश की समीक्षा का अधिकार मिला।
  • न्यायपालिका अब संपूर्ण विधिक प्रणाली की आत्मा बन गई।

1.4 समान नागरिकता और विधिक समानता

  • संविधान ने जाति, धर्म, लिंग, भाषा आदि के आधार पर भेदभाव को समाप्त कर सभी नागरिकों को समानता का अधिकार दिया।
  • समान नागरिकता की अवधारणा को विधिक प्रणाली में स्थापित किया गया।

1.5 धर्मनिरपेक्ष विधिक व्यवस्था

  • भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया।
  • कानून धर्म से स्वतंत्र हो गया – अब कोई भी कानून किसी विशेष धर्म पर आधारित नहीं बनाया जा सकता।
  • सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता दी गई (अनु. 25-28)।

1.6 विधिक सुधार और कोडिफिकेशन

  • स्वतंत्रता के बाद भारत में विधि आयोग (Law Commission) को पुनर्गठित किया गया ताकि अप्रचलित कानूनों को हटाया जा सके और नवीन आवश्यकताओं के अनुरूप नए कानून बनाए जा सकें।

प्रमुख सुधारों में शामिल हैं:

  • हिंदू कोड बिल (1955-56) – विवाह, उत्तराधिकार, गोद लेने आदि के नियमों का आधुनिकीकरण।
  • विशेष विवाह अधिनियम, 1954 – अंतर्धार्मिक विवाहों को वैधता।
  • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 2005 में संशोधन – पुत्रियों को भी बराबरी का अधिकार।
  • भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, बाल श्रम, भ्रष्टाचार, सूचना का अधिकार, उपभोक्ता संरक्षण जैसे क्षेत्रों में अनेक कानून बनाए गए।

1.7 पंचायती राज और ग्राम न्यायालयों की स्थापना

  • संविधान के 73वें और 74वें संशोधन (1992) के द्वारा स्थानीय स्वशासन को संवैधानिक दर्जा मिला।
  • ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में त्वरित न्याय देने की व्यवस्था की गई।

1.8 विधिक सहायता और न्याय तक पहुँच

  • संविधान के अनुच्छेद 39A के अंतर्गत गरीबों को नि:शुल्क विधिक सहायता देने की व्यवस्था की गई।
  • राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) का गठन किया गया।
  • लोक अदालतों की स्थापना द्वारा लोगों को त्वरित और सस्ता न्याय मिलने लगा।

🔷 2. संविधान ने भारतीय विधि परंपरा को किस प्रकार दिशा प्रदान की?

2.1 समावेशिता और बहुलता (Inclusiveness & Pluralism)

  • भारतीय विधिक परंपरा में विभिन्न धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक नियम चलते थे – संविधान ने इसे विधिक रूप से संतुलित किया।
  • उदाहरण: पर्सनल लॉ प्रणाली को कुछ हद तक बनाए रखते हुए धीरे-धीरे समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) की ओर मार्ग प्रशस्त किया गया (अनु. 44)।

2.2 विधिक संहिता आधारित परंपरा को बल

  • भारतीय संविधान ने कोडिफाइड लॉ (Codified Law) को महत्त्व दिया, जो ब्रिटिश परंपरा से प्रेरित था, लेकिन भारत के सामाजिक संदर्भों के अनुसार अनुकूलित किया गया।
  • इसने मनमानी और अस्पष्ट विधिक परंपराओं को समाप्त कर न्यायिक प्रक्रिया को स्पष्ट, सुसंगत और सार्वभौमिक बनाया।

2.3 विधिक नैतिकता और मूल्यों की पुनर्स्थापना

  • संविधान ने न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे मूल्यों को विधिक संरचना का मूलभूत आधार बनाया।
  • विधिक प्रक्रिया अब केवल नियमों का पालन नहीं, बल्कि नैतिक और सामाजिक न्याय को भी लक्षित करती है।

2.4 सामाजिक न्याय का मार्गदर्शन

  • अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान (आरक्षण, संरक्षण, विशेष कानून) बनाए गए।
  • महिलाओं, बच्चों, दिव्यांगों, श्रमिकों आदि के अधिकारों की सुरक्षा के लिए अलग-अलग अधिनियम बनाए गए।

2.5 न्यायिक सक्रियता और लोकहित याचिका (PIL)

  • 1980 के बाद भारतीय न्यायपालिका ने PIL के माध्यम से विधिक हस्तक्षेप बढ़ाया।
  • इससे गरीब और वंचित वर्गों की न्याय तक पहुँच आसान हुई।
  • पर्यावरण, मानवाधिकार, भ्रष्टाचार आदि पर न्यायालयों की सक्रिय भूमिका ने विधिक परंपरा को जन सरोकारों से जोड़ दिया।

🔷 निष्कर्ष:

भारत की स्वतंत्रता के बाद की विधिक प्रणाली ने एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, और समावेशी न्याय व्यवस्था का निर्माण किया। संविधान इस नए विधिक ढांचे का आधार स्तंभ बना, जिसने विधि को केवल शासक वर्ग का औजार नहीं, बल्कि जनहित और सामाजिक न्याय का साधन बनाया।

ब्रिटिश कानूनों की छाया में विकसित प्रणाली अब भारतीय समाज की विविधताओं और अपेक्षाओं के अनुरूप विकसित और आधुनिक होती जा रही है। संविधान के मार्गदर्शन में भारतीय विधिक परंपरा ने आधुनिकता और परंपरा का समन्वय करते हुए सशक्त, संवेदनशील और सुलभ न्याय व्यवस्था की ओर कदम बढ़ाया है।