भारतीय संविधान: मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निदेशक तत्व – उनके संबंध और सामंजस्य
भारतीय संविधान एक अद्वितीय और संतुलित दस्तावेज़ है जिसने स्वतंत्रता, समानता और न्याय के मूल्यों को संरक्षित करने के लिए व्यापक प्रावधान किए हैं। संविधान निर्माताओं ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय को सुनिश्चित करने हेतु संविधान में दो अत्यंत महत्वपूर्ण भागों को सम्मिलित किया— भाग III (मौलिक अधिकार – Fundamental Rights) और भाग IV (राज्य के नीति निदेशक तत्व – Directive Principles of State Policy)। ये दोनों भाग भारतीय लोकतंत्र की आत्मा हैं, परंतु इनकी प्रकृति, उद्देश्य और न्यायालयीन प्रवर्तनीयता (enforceability) में भिन्नता पाई जाती है।
इस प्रश्न में हमें यह समझना होगा कि मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्वों के बीच संबंध क्या है? क्या दोनों के बीच कोई टकराव है या इन्हें सामंजस्यपूर्ण बनाया जा सकता है?
1. मौलिक अधिकारों का परिचय
भारतीय संविधान के भाग III (अनुच्छेद 12 से 35) में मौलिक अधिकारों का उल्लेख है। ये अधिकार नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता और न्याय की गारंटी प्रदान करते हैं। इनका उद्देश्य व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करना और उसे राज्य के अनुचित हस्तक्षेप से बचाना है।
मुख्य मौलिक अधिकार हैं –
- समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
- स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
- शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
- धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
- सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
- संवैधानिक उपचार का अधिकार (अनुच्छेद 32)
इन अधिकारों को न्यायालय में प्रवर्तित किया जा सकता है। यदि राज्य इनका उल्लंघन करता है तो व्यक्ति सीधे उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर सकता है।
2. राज्य के नीति निदेशक तत्वों का परिचय
संविधान के भाग IV (अनुच्छेद 36 से 51) में नीति निदेशक तत्वों का उल्लेख है। इनका उद्देश्य राज्य को ऐसी नीतियाँ बनाने के लिए मार्गदर्शन देना है जो सामाजिक और आर्थिक न्याय पर आधारित हों। इनकी प्रेरणा आयरलैंड के संविधान और गांधीवादी दर्शन से ली गई है।
मुख्य नीति निदेशक तत्व हैं –
- सामाजिक और आर्थिक न्याय की स्थापना (अनुच्छेद 38, 39)
- मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति – समान मजदूरी, जीवन स्तर का सुधार (अनुच्छेद 39, 41, 42)
- शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य का संवर्द्धन (अनुच्छेद 45, 47)
- पर्यावरण संरक्षण और पशु कल्याण (अनुच्छेद 48, 48A)
- अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा (अनुच्छेद 51)
इन तत्वों को न्यायालय में प्रवर्तित नहीं किया जा सकता, परंतु ये राज्य के लिए “संवैधानिक निर्देश” हैं।
3. मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्वों के बीच अंतर
आधार | मौलिक अधिकार | नीति निदेशक तत्व |
---|---|---|
प्रकृति | नकारात्मक (राज्य पर प्रतिबंध लगाते हैं) | सकारात्मक (राज्य को कार्य करने हेतु प्रेरित करते हैं) |
प्रवर्तनीयता | न्यायालय में प्रवर्तनीय | न्यायालय में प्रवर्तनीय नहीं |
उद्देश्य | व्यक्ति की स्वतंत्रता और अधिकारों की रक्षा | सामाजिक और आर्थिक न्याय की स्थापना |
स्रोत | अमेरिका के संविधान से प्रेरित | आयरलैंड के संविधान से प्रेरित |
लाभार्थी | मुख्यतः व्यक्ति | सम्पूर्ण समाज |
4. मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्वों के बीच टकराव
संविधान लागू होने के बाद यह प्रश्न उठा कि यदि किसी नीति निदेशक तत्व को लागू करने हेतु बनाई गई नीति या कानून मौलिक अधिकार का उल्लंघन करे तो क्या होगा? उदाहरण –
- भूमि सुधार कानून (भूमि ceiling laws) – यह समानता के अधिकार (अनु. 14) और संपत्ति के अधिकार (उस समय मौलिक अधिकार) से टकराता था।
- 42वें संशोधन (1976) के बाद कई नीति निदेशक तत्वों को अधिक प्रभावी बनाया गया और न्यायालय ने बार-बार कहा कि दोनों को सामंजस्यपूर्ण ढंग से पढ़ा जाना चाहिए।
5. न्यायिक दृष्टिकोण
भारतीय न्यायपालिका ने समय-समय पर इस विवाद पर महत्वपूर्ण निर्णय दिए:
- State of Madras v. Champakam Dorairajan (1951)
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मौलिक अधिकारों को नीति निदेशक तत्वों पर प्राथमिकता है। यदि दोनों में टकराव हो तो मौलिक अधिकार प्रभावी होंगे।
- Golak Nath v. State of Punjab (1967)
- कहा गया कि मौलिक अधिकार संविधान का “अत्यावश्यक हिस्सा” हैं और इन्हें संशोधित नहीं किया जा सकता।
- Kesavananda Bharati v. State of Kerala (1973)
- अदालत ने कहा कि संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) को नष्ट नहीं किया जा सकता।
- मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्वों के बीच सामंजस्य स्थापित करने पर बल दिया।
- Minerva Mills v. Union of India (1980)
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्व संविधान के दो पहिये हैं, दोनों में संतुलन होना चाहिए।
- “एक को दूसरे पर प्राथमिकता नहीं दी जा सकती।”
- Unni Krishnan v. State of Andhra Pradesh (1993)
- शिक्षा का अधिकार (अनु. 21-A) मौलिक अधिकार के रूप में विकसित हुआ, जो नीति निदेशक तत्व (अनु. 45) से प्रेरित था।
इन निर्णयों से स्पष्ट है कि न्यायपालिका ने धीरे-धीरे नीति निदेशक तत्वों को भी महत्व दिया और उन्हें मौलिक अधिकारों के साथ सामंजस्य स्थापित किया।
6. सामंजस्य की आवश्यकता
यदि केवल मौलिक अधिकारों पर ध्यान दिया जाए तो समाज में अत्यधिक व्यक्तिवाद और असमानता का खतरा रहेगा। वहीं, यदि केवल नीति निदेशक तत्वों पर ध्यान दिया जाए तो व्यक्ति की स्वतंत्रता और अधिकार प्रभावित होंगे। इसलिए दोनों में संतुलन आवश्यक है।
- मौलिक अधिकार व्यक्ति की नकारात्मक स्वतंत्रता (राज्य के हस्तक्षेप से मुक्ति) की गारंटी देते हैं।
- नीति निदेशक तत्व व्यक्ति को सकारात्मक स्वतंत्रता (जीवन की मूलभूत सुविधाओं की उपलब्धता) प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
7. सामंजस्य के उपाय
- न्यायिक व्याख्या द्वारा – सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने बार-बार दोनों की ऐसी व्याख्या की है कि वे परस्पर विरोधी न होकर पूरक दिखाई दें।
- संविधान संशोधनों द्वारा – 42वें, 44वें, 86वें आदि संशोधनों ने नीति निदेशक तत्वों को मजबूत किया।
- नीति निर्माण द्वारा – संसद और राज्य विधानमंडल ऐसे कानून बनाएँ जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किए बिना नीति निदेशक तत्वों को लागू करें।
- मूल संरचना सिद्धांत – यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी संशोधन मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों के बीच असंतुलन न पैदा करे।
8. निष्कर्ष
भारतीय संविधान ने मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्वों को अलग-अलग स्थान दिया, लेकिन उनका अंतिम उद्देश्य एक ही है— समाज में न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता की स्थापना।
मौलिक अधिकार व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करते हैं, जबकि नीति निदेशक तत्व समाज में आर्थिक और सामाजिक समानता लाने का प्रयास करते हैं। इसलिए, दोनों को परस्पर विरोधी न मानकर पूरक और सहायक समझा जाना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही कहा है कि –
“Fundamental Rights and Directive Principles are like two wheels of a chariot; one cannot function without the other.”
इस प्रकार निष्कर्ष यह है कि मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्वों को सामंजस्यपूर्ण बनाना न केवल संभव है बल्कि भारतीय लोकतंत्र की सफलता के लिए अनिवार्य भी है।