भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अंतर्गत अभिकर्ता और अभिकर्ता-निर्माता के बीच संबंध (Special Contracts)

भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अंतर्गत अभिकर्ता और अभिकर्ता-निर्माता के बीच संबंध

भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 182 के अनुसार— “अभिकर्ता वह व्यक्ति है जिसे कोई अन्य व्यक्ति (अभिकर्ता-निर्माता या प्रिंसिपल) किसी कार्य को उसके लिए करने या किसी अन्य व्यक्ति के साथ लेन-देन करने के लिए नियुक्त करता है।” अभिकर्ता-निर्माता वह है जो अभिकर्ता को ऐसा करने के लिए नियुक्त करता है। यह संबंध विश्वास (Fiduciary Relationship) पर आधारित होता है, जिसमें अभिकर्ता, प्रिंसिपल के हित में कार्य करता है।

अभिकर्ता का कार्य अनुबंध या नियुक्ति पत्र में निर्दिष्ट अधिकारों के अनुसार होता है। वह प्रिंसिपल का कानूनी प्रतिनिधि होता है, और उसके द्वारा किए गए कार्य, प्रिंसिपल पर वैधानिक रूप से बाध्यकारी होते हैं।


1. अभिकर्ता के अधिकार

अभिकर्ता के अधिकार मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं—

(A) वास्तविक अधिकार (Actual Authority)

यह वे अधिकार हैं जो प्रिंसिपल द्वारा स्पष्ट रूप से (Express) या निहित रूप से (Implied) दिए जाते हैं।

  • स्पष्ट अधिकार: लिखित या मौखिक रूप से दिए गए अधिकार।
  • निहित अधिकार: कार्य की प्रकृति और परिस्थितियों से स्वतः उत्पन्न अधिकार।
    उदाहरण: Pannalal Jankidas v. Mohanlal AIR 1951 SC 144 में न्यायालय ने कहा कि अभिकर्ता के निहित अधिकार व्यवसाय की सामान्य आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।

(B) प्रकट अधिकार (Apparent/Ostensible Authority)

जब प्रिंसिपल के आचरण से तीसरे व्यक्ति को यह विश्वास हो जाए कि अभिकर्ता के पास कुछ अधिकार हैं, तो भले ही वे वास्तव में न हों, प्रिंसिपल उनके लिए बाध्यकारी होगा।
न्यायिक दृष्टांत: Freeman & Lockyer v. Buckhurst Park Properties (1964) — यदि तीसरे पक्ष को यह उचित रूप से प्रतीत हो कि एजेंट के पास अधिकार है, तो प्रिंसिपल उत्तरदायी होगा।


2. अभिकर्ता के कर्तव्य (Duties of Agent)

भारतीय संविदा अधिनियम की धाराएँ 211 से 221 तक अभिकर्ता के कर्तव्यों का उल्लेख करती हैं—

  1. निर्देशों का पालन करना (Sec. 211) — प्रिंसिपल के निर्देशानुसार कार्य करना।
  2. कुशलता और सावधानी से कार्य करना (Sec. 212) — कार्य में यथोचित दक्षता।
  3. हिसाब देना (Sec. 213) — प्रिंसिपल को सभी लेन-देन का सही विवरण देना।
  4. गोपनीयता बनाए रखना — प्रिंसिपल के व्यापारिक रहस्यों को न उजागर करना।
  5. स्वार्थ-संघर्ष से बचना — स्वयं के हित में लेन-देन न करना।
  6. लाभ का हस्तांतरण (Sec. 216) — अपने पद से हुए लाभ को प्रिंसिपल को देना।

न्यायिक दृष्टांत: Lily White v. R. Munuswamy (AIR 1966 Mad 13) में कहा गया कि अभिकर्ता को प्रिंसिपल के हित में ईमानदारी और निष्ठा से कार्य करना चाहिए, अन्यथा वह हानि के लिए उत्तरदायी होगा।


3. अभिकर्ता-निर्माता और अभिकर्ता का कानूनी संबंध

  • यह अनुबंध और विश्वास पर आधारित है।
  • अभिकर्ता प्रिंसिपल का विस्तार (Extension) होता है, और उसके कार्य प्रिंसिपल पर बाध्यकारी होते हैं।
  • प्रिंसिपल अभिकर्ता को कार्य करने का अधिकार देता है, और अभिकर्ता प्रिंसिपल के निर्देशों का पालन करता है।

निष्कर्ष
अभिकर्ता और प्रिंसिपल का संबंध भारतीय संविदा अधिनियम के अंतर्गत एक विश्वासपूर्ण प्रतिनिधि संबंध है, जिसमें अभिकर्ता को वास्तविक एवं प्रकट अधिकार मिलते हैं। साथ ही, अभिकर्ता पर अनेक कर्तव्य होते हैं, जिनका उल्लंघन करने पर वह प्रिंसिपल के प्रति उत्तरदायी होता है। न्यायालयों ने लगातार यह स्पष्ट किया है कि यह संबंध पारदर्शिता, निष्ठा और सद्भावना पर आधारित होना चाहिए।