भारतीय न्याय संहिता (BNSS) 2023 और भारतीय संविधान के अंतर्गत गिरफ्तार व्यक्ति के अधिकार (Rights of an Arrested Person)
परिचय:
गिरफ्तारी एक ऐसी कानूनी प्रक्रिया है जो किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को अस्थायी रूप से सीमित करती है। परंतु यह तभी वैध मानी जाती है जब यह कानून और संविधान द्वारा निर्धारित दायरे में की जाए। लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यक्ति की स्वतंत्रता को सर्वोच्च माना गया है, और इसलिए संविधान तथा विधिक व्यवस्थाओं ने यह सुनिश्चित किया है कि गिरफ्तारी के दौरान व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन न हो।
भारतीय न्याय संहिता (Bhartiya Nagrik Suraksha Sanhita – BNSS), 2023, जो दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code – CrPC), 1973 का स्थान ले चुकी है, ने गिरफ्तारी से संबंधित प्रावधानों को आधुनिक और अधिक पारदर्शी बनाया है। संविधान के अनुच्छेद 20, 21, 22 और 39A के साथ मिलकर BNSS यह सुनिश्चित करता है कि गिरफ्तारी का उद्देश्य न्याय की रक्षा हो, न कि व्यक्ति का उत्पीड़न।
1. गिरफ्तारी के कारणों की जानकारी का अधिकार (Right to Know the Grounds of Arrest)
संवैधानिक आधार: अनुच्छेद 22(1)
वैधानिक आधार: धारा 47, BNSS 2023
किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करते समय उसे यह बताना आवश्यक है कि उसकी गिरफ्तारी किन आधारों पर की जा रही है। यह जानकारी मौखिक रूप में भी दी जा सकती है, परंतु यदि संभव हो तो लिखित रूप में देना बेहतर है। यह अधिकार व्यक्ति को अपनी कानूनी स्थिति समझने और अपनी रक्षा की तैयारी करने में मदद करता है।
न्यायिक दृष्टांत: Joginder Kumar v. State of U.P. (1994) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि पुलिस मनमाने ढंग से किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकती। गिरफ्तारी का कारण बताना आवश्यक है ताकि व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा हो सके।
2. मौन रहने का अधिकार (Right to Silence)
संवैधानिक आधार: अनुच्छेद 20(3)
संविधान के अनुच्छेद 20(3) में यह स्पष्ट किया गया है कि किसी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। यह “आत्म-दोषारोपण से मुक्ति” का सिद्धांत है। यह अधिकार जांच प्रक्रिया में भी लागू होता है, जिससे व्यक्ति पुलिस या अन्य अधिकारियों द्वारा दबाव में आकर बयान देने से बच सके।
न्यायिक दृष्टांत: Nandini Satpathy v. P.L. Dani (1978) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आरोपी को मौन रहने का अधिकार है और उसे इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता, भले ही पुलिस उससे प्रश्न पूछे।
3. निष्पक्ष न्याय का अधिकार (Right to Fair Trial)
संवैधानिक आधार: अनुच्छेद 14 और 21
निष्पक्ष सुनवाई प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। किसी व्यक्ति को तब तक दोषी नहीं माना जा सकता जब तक कि न्यायालय उसे दोषी न ठहराए। निष्पक्ष न्याय का अर्थ केवल सुनवाई तक सीमित नहीं है, बल्कि यह प्रक्रिया की पारदर्शिता, समानता और निष्पक्षता से जुड़ा है।
न्यायिक दृष्टांत: Hussainara Khatoon v. State of Bihar (1979) के ऐतिहासिक निर्णय में न्यायालय ने कहा कि त्वरित और निष्पक्ष सुनवाई अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मौलिक अधिकार है। इस फैसले से हज़ारों अंडरट्रायल कैदियों को राहत मिली।
4. गिरफ्तारी की सूचना का अधिकार (Right to Notification of Arrest)
वैधानिक आधार: धारा 48, BNSS 2023
धारा 48 के अंतर्गत यह अनिवार्य किया गया है कि गिरफ्तार व्यक्ति के परिवार या मित्र को उसकी गिरफ्तारी की तुरंत सूचना दी जाए। इससे व्यक्ति की सुरक्षा और कानूनी सहायता सुनिश्चित होती है।
न्यायिक दृष्टांत: D.K. Basu v. State of West Bengal (1997) में सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस हिरासत में पारदर्शिता के लिए कई दिशा-निर्देश जारी किए। इसमें गिरफ्तारी की सूचना परिवार को देना अनिवार्य बताया गया।
5. वकील से परामर्श और विधिक सहायता का अधिकार (Right to Consult and Legal Aid)
संवैधानिक आधार: अनुच्छेद 22(1) एवं अनुच्छेद 39A
वैधानिक आधार: धारा 341, BNSS 2023
गिरफ्तार व्यक्ति को अपने पसंद के वकील से मिलने और परामर्श लेने का अधिकार है। यह अधिकार तभी से लागू होता है जब पुलिस जांच शुरू करती है। यदि व्यक्ति आर्थिक रूप से कमजोर है, तो राज्य को निःशुल्क विधिक सहायता देना अनिवार्य है।
न्यायिक दृष्टांत: Khatri v. State of Bihar (1981) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि गरीब व्यक्ति को विधिक सहायता नहीं दी जाती, तो यह अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।
6. 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किए जाने का अधिकार (Right to be Taken Before Magistrate within 24 Hours)
संवैधानिक आधार: अनुच्छेद 22(2)
वैधानिक आधार: धारा 57, BNSS 2023
गिरफ्तारी के बाद व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करना अनिवार्य है। यह प्रावधान पुलिस द्वारा मनमानी हिरासत और अत्याचार को रोकने के लिए बनाया गया है। केवल मजिस्ट्रेट ही यह निर्णय कर सकता है कि आगे की हिरासत आवश्यक है या नहीं।
न्यायिक दृष्टांत: Madhu Limaye v. Sub-Divisional Magistrate (1971) में कहा गया कि यह नियम व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मूल अंग है, और इसके उल्लंघन से गिरफ्तारी अवैध हो जाती है।
7. चिकित्सकीय परीक्षण का अधिकार (Right to Medical Examination)
वैधानिक आधार: धारा 53, BNSS 2023
यदि गिरफ्तारी के दौरान या हिरासत में व्यक्ति के साथ शारीरिक अत्याचार हुआ है या उसे चोट पहुंचाई गई है, तो उसे चिकित्सकीय परीक्षण का अधिकार है। यह प्रावधान न केवल आरोपी की सुरक्षा सुनिश्चित करता है बल्कि पुलिस की जवाबदेही भी तय करता है।
न्यायिक दृष्टांत: Sheela Barse v. State of Maharashtra (1983) में कहा गया कि महिला कैदियों की जांच केवल महिला डॉक्टर द्वारा ही की जानी चाहिए।
8. हिरासत ज्ञापन और अभिलेख का अधिकार (Right to Custody Memo and Documentation)
वैधानिक आधार: धारा 54, BNSS 2023
गिरफ्तारी की प्रक्रिया पारदर्शी रखने हेतु पुलिस को हिरासत का विस्तृत रिकॉर्ड तैयार करना आवश्यक है। इसमें गिरफ्तारी का समय, स्थान, कारण, गिरफ्तारी करने वाले अधिकारी का नाम, और गवाहों के हस्ताक्षर शामिल होते हैं। इसे “कस्टडी मेमो” कहा जाता है।
न्यायिक दृष्टांत: D.K. Basu v. State of West Bengal (1997) में सुप्रीम कोर्ट ने कस्टडी मेमो को अनिवार्य ठहराया ताकि अवैध हिरासत और पुलिस उत्पीड़न को रोका जा सके।
9. गरिमा और मानवाधिकारों की रक्षा का अधिकार (Right to Dignity and Protection of Human Rights)
संवैधानिक आधार: अनुच्छेद 21
गिरफ्तार व्यक्ति भी एक नागरिक है, और उसके साथ सम्मानजनक व्यवहार किया जाना चाहिए। उसे शारीरिक या मानसिक यातना देना संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है। पुलिस द्वारा किसी भी प्रकार का उत्पीड़न, अपमान या दुर्व्यवहार निषिद्ध है।
न्यायिक दृष्टांत: Sunil Batra v. Delhi Administration (1978) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जेल की दीवारों के भीतर भी मानवाधिकार समाप्त नहीं होते।
निष्कर्ष:
भारतीय न्याय संहिता (BNSS) 2023 ने गिरफ्तारी की प्रक्रिया को अधिक मानवीय, पारदर्शी और संविधान-सम्मत बनाया है। इन अधिकारों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता छीनते समय भी उसके मूल अधिकारों का संरक्षण किया जाए।
संविधान का अनुच्छेद 21 “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता” की गारंटी देता है, और BNSS के प्रावधान इस गारंटी को व्यवहार में लागू करते हैं। पुलिस, न्यायपालिका और वकीलों की संयुक्त जिम्मेदारी है कि वे इन अधिकारों की रक्षा करें और कानून के शासन (Rule of Law) को सशक्त बनाएँ।
इन सभी अधिकारों का सार यह है कि न्याय केवल अपराधी को दंडित करने का माध्यम नहीं है, बल्कि प्रत्येक नागरिक की गरिमा, स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की रक्षा का प्रतीक भी है।