शीर्षक: “भरण-पोषण मामलों का शीघ्र निपटारा आवश्यक: अदालतों की संवेदनशीलता पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का बल”
परिचय
भरण-पोषण (Maintenance) का अधिकार भारतीय विधि व्यवस्था में एक सामाजिक सुरक्षा की तरह देखा जाता है, जिसका उद्देश्य उन व्यक्तियों को न्याय दिलाना है जो आर्थिक रूप से निर्भर हैं — विशेषकर महिलाएं, बच्चे, और वृद्ध माता-पिता। भारतीय दंड संहिता की धारा 125 से लेकर विभिन्न वैवाहिक कानूनों में यह अधिकार निहित है। हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा कि भरण-पोषण मामलों का शीघ्र निपटारा अत्यंत आवश्यक है क्योंकि यह सीधे पीड़ित व्यक्ति की गरिमा, जीविका और मानवाधिकारों से जुड़ा होता है। अदालतों को इन मामलों में अत्यधिक संवेदनशील और त्वरित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला एक महिला द्वारा अपने पति के खिलाफ भरण-पोषण की मांग को लेकर दाखिल याचिका से संबंधित था, जिसमें कई वर्षों से सुनवाई लंबित थी। आवेदिका ने यह तर्क दिया कि न तो उसे नियमित खर्च मिल रहा है और न ही न्यायालय से शीघ्र राहत। इससे उसकी आजीविका प्रभावित हो रही है। इस पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निचली अदालत को फटकार लगाते हुए कहा कि ऐसे मामलों में देरी “न्याय का अपमान” है और इससे पीड़ित पक्ष को अत्यधिक मानसिक, सामाजिक और आर्थिक क्षति होती है।
कोर्ट का विश्लेषण
माननीय न्यायमूर्ति डॉ. योगेंद्र कुमार श्रीवास्तव की पीठ ने इस मामले में निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं को रेखांकित किया:
- भरण-पोषण न्याय का अभिन्न हिस्सा
कोर्ट ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार में सम्मानपूर्वक जीवन यापन शामिल है, और भरण-पोषण उसका मूल आधार है। यदि भरण-पोषण को समय पर नहीं दिया जाता, तो यह सीधे तौर पर जीवन के मौलिक अधिकार का हनन है। - अदालतों की भूमिका मात्र न्यायाधीश की नहीं, संवेदनशील संस्थान की होनी चाहिए
अदालतों से अपेक्षा की जाती है कि वे सामाजिक न्याय के वाहक बनें, विशेषतः उन मामलों में जहां महिलाएं और बच्चे असहाय स्थिति में होते हैं। इन मामलों में विलंब उनके जीवन पर गंभीर प्रभाव डालता है। - लंबित मामलों का शीघ्र समाधान समय की मांग
हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि भरण-पोषण जैसे मामलों को वर्षों तक लंबित रखना न्यायालयिक नैतिकता के विरुद्ध है। ऐसे मामलों में त्वरित सुनवाई और आदेश सुनिश्चित करने के लिए “Fast-Track Mechanism” की आवश्यकता है।
वर्तमान न्यायिक दृष्टिकोण
पिछले कुछ वर्षों में सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने बार-बार यह दोहराया है कि भरण-पोषण मामलों में विलंब अस्वीकार्य है:
- Rajnesh v. Neha (2020) – सुप्रीम कोर्ट ने विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए, जिसमें कहा गया कि सभी परिवार न्यायालयों को प्रारंभिक सुनवाई के दौरान ही भरण-पोषण की राशि तय करनी चाहिए, ताकि पीड़ित पक्ष को तत्काल राहत मिले।
- Shailja & Anr. v. Khobbanna (2017) – अदालत ने कहा कि महिलाओं का आत्मनिर्भर होना आवश्यक हो सकता है, लेकिन यह भरण-पोषण के अधिकार को समाप्त नहीं करता।
विलंब के कारण और समाधान
विलंब के प्रमुख कारण
- न्यायिक प्रणाली में लंबित मामलों का भारी बोझ
- पक्षकारों की ओर से अनावश्यक स्थगन की मांग
- प्रक्रिया की जटिलता और अदालती उपस्थिति में बाधा
संभावित समाधान
- विशेष न्यायालयों की स्थापना
- डिजिटल सुनवाई और दस्तावेज़ीकरण
- समय-सीमा निर्धारण (टाइम-बाउंड ट्रायल)
- पीड़ित पक्ष को अंतरिम राहत देना
निष्कर्ष
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह निर्णय स्पष्ट संकेत देता है कि भरण-पोषण केवल कानूनी दायित्व नहीं, बल्कि मानवीय और सामाजिक न्याय का भी केंद्र है। अदालतों को इस संवेदनशील विषय पर अधिक सहानुभूतिपूर्वक कार्य करना चाहिए ताकि पीड़ितों को त्वरित और प्रभावी न्याय मिल सके। यह न केवल न्याय प्रणाली की साख को बढ़ाएगा, बल्कि भारतीय संविधान की आत्मा — “सामाजिक न्याय” — को भी जीवंत बनाएगा।