भरण-पोषण केवल निर्वाह नहीं, बल्कि गरिमामय जीवनशैली की निरंतरता का अधिकार है – कलकत्ता उच्च न्यायालय का दूरदर्शी निर्णय

भरण-पोषण केवल निर्वाह नहीं, बल्कि गरिमामय जीवनशैली की निरंतरता का अधिकार है – कलकत्ता उच्च न्यायालय का दूरदर्शी निर्णय

परिचय:
भारतीय समाज में विवाह एक पवित्र सामाजिक संस्था के रूप में देखा जाता है, जिसमें पति-पत्नी के बीच परस्पर दायित्व और उत्तरदायित्व निहित होते हैं। परंतु जब यह संस्था टूटती है या उसमें दरार आती है, तब सबसे अधिक प्रभावित होने वाला पक्ष वह होता है जो आर्थिक रूप से निर्भर होता है – अधिकतर मामलों में यह महिला होती है। ऐसे मामलों में ‘भरण-पोषण’ (Maintenance) का कानूनी प्रावधान अस्तित्व में आता है, जो महिला के जीवन निर्वाह के लिए वित्तीय सहायता सुनिश्चित करता है।

लेकिन हाल ही में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने भरण-पोषण की इस पारंपरिक अवधारणा को एक नए और प्रगतिशील दृष्टिकोण से देखा है। अदालत ने यह स्पष्ट किया है कि भरण-पोषण अब केवल “जीवित रहने भर की वित्तीय सहायता” नहीं है, बल्कि यह “व्यक्ति की जीवनशैली की स्थिरता” और “मानव गरिमा” को बनाए रखने का एक संवैधानिक उपाय बन गया है।


मामले की पृष्ठभूमि:

कलकत्ता हाईकोर्ट में एक याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति बिभास रंजन दे की एकल पीठ ने यह ऐतिहासिक टिप्पणी की। याचिका एक वैवाहिक विवाद से संबंधित थी जिसमें पत्नी ने अपने पति से उचित भरण-पोषण की मांग की थी। इस याचिका में मुख्य प्रश्न यह था कि क्या भरण-पोषण केवल न्यूनतम जीवन निर्वाह की राशि तक सीमित होना चाहिए, या फिर विवाह के दौरान प्राप्त जीवनशैली की निरंतरता भी इसमें सम्मिलित होनी चाहिए?


न्यायालय की टिप्पणी:

न्यायमूर्ति बिभास रंजन दे ने कहा:

“वर्तमान समय में वैवाहिक दायित्वों और सामाजिक संरचनाओं में भारी परिवर्तन आया है। इसलिए भरण-पोषण की अवधारणा में भी बदलाव की आवश्यकता है। यह अब केवल जीवन निर्वाह का साधन नहीं, बल्कि जीवनशैली की निरंतरता बनाए रखने का संवैधानिक उपाय है।”

उन्होंने यह भी कहा:

“Maintenance is no longer a hand-out to barely cover subsistence. Rather it has now become a tool to preserve lifestyle stability. As a sequel, it fundamentally repositions spousal support as a continuity of living, not compensation for separation.”


भरण-पोषण की पारंपरिक और समकालीन व्याख्या का अंतर:

पारंपरिक दृष्टिकोण समकालीन/न्यायिक दृष्टिकोण (कलकत्ता हाईकोर्ट)
केवल भोजन, वस्त्र और आश्रय जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विवाह के दौरान प्राप्त जीवनशैली की निरंतरता बनाए रखना महत्वपूर्ण
भरण-पोषण एक करुणा आधारित अनुदान है भरण-पोषण एक कानूनी अधिकार है, जो गरिमामय जीवन के लिए आवश्यक है
न्यूनतम वित्तीय सहायता प्रदान करना उद्देश्य सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अनुरूप जीवन बनाए रखना उद्देश्य

न्यायिक दृष्टिकोण में यह परिवर्तन क्यों आवश्यक है?

  1. समाज में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी:
    आज महिलाएं न केवल घर तक सीमित हैं, बल्कि आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक रूप से भी मजबूत हो रही हैं। ऐसे में यदि कोई महिला विवाह के कारण अपने करियर या स्वतंत्रता से समझौता करती है, तो विवाह के विघटन के बाद उसे उसके स्तर की जीवनशैली से वंचित नहीं किया जा सकता।
  2. संविधान के अनुच्छेद 21 की व्याख्या:
    यह अनुच्छेद प्रत्येक नागरिक को “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता” का अधिकार देता है। जीवन का अर्थ केवल सांस लेना नहीं, बल्कि गरिमामय जीवन जीना है – और यह तभी संभव है जब व्यक्ति को उसकी सामाजिक स्थिति के अनुसार जीवन जीने का अवसर मिले।
  3. मानव गरिमा का संरक्षण:
    जीवनशैली की स्थिरता केवल भौतिक सुविधाओं से नहीं, बल्कि मानसिक और सामाजिक सम्मान से भी जुड़ी होती है। भरण-पोषण का उद्देश्य अब इस गरिमा की रक्षा करना भी बन चुका है।

विवाह के विघटन में महिलाओं की स्थिति और यह निर्णय:

भारत में अनेक महिलाएं विवाह के पश्चात पति की आय और जीवनशैली पर आश्रित हो जाती हैं। विवाह टूटने पर उनका सामाजिक, आर्थिक और मानसिक आधार भी टूट जाता है। ऐसी स्थिति में केवल न्यूनतम भरण-पोषण देकर उनकी जीवनशैली को गिरने देना, उनकी गरिमा का हनन है।

इस निर्णय से यह स्पष्ट होता है कि महिलाओं को विवाह के बाद अर्जित जीवनशैली और सम्मान का संरक्षण मिलना चाहिए, चाहे वह वैवाहिक संबंध बरकरार रहे या नहीं।


अन्य न्यायालयों में इस दृष्टिकोण की झलक:

हाल के वर्षों में अनेक उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट ने भी इसी तरह के दृष्टिकोण को अपनाया है:

  • सुप्रीम कोर्ट, Rajnesh v. Neha (2020): इस निर्णय में कोर्ट ने कहा था कि भरण-पोषण का निर्धारण करते समय पति-पत्नी की जीवनशैली, आवश्यकताएं, और खर्चे का स्तर ध्यान में रखा जाना चाहिए।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय, Kusum Sharma v. Mahinder Kumar Sharma: न्यायालय ने भरण-पोषण के निर्धारण हेतु आय के साथ-साथ सामाजिक स्थिति और जीवनशैली को भी एक आवश्यक कारक माना।

निष्कर्ष:

कलकत्ता उच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय न्याय व्यवस्था में एक दूरदर्शी और संवेदनशील दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करता है। यह केवल एक कानूनी टिप्पणी नहीं, बल्कि महिलाओं के आर्थिक-सामाजिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक सशक्त उद्घोष है।

यह निर्णय न्यायपालिका को यह याद दिलाता है कि कानून केवल तकनीकी व्याख्याओं तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि उसे सामाजिक यथार्थ के साथ कदम मिलाकर चलना चाहिए। जब एक महिला विवाह के कारण अपने सपनों, आय और अवसरों का त्याग करती है, तो समाज और कानून का यह कर्तव्य बनता है कि वह उसे जीवन की गरिमा और उसकी पूर्व जीवनशैली की निरंतरता सुनिश्चित करे।


ऐसा न्याय ही वास्तविक सामाजिक न्याय है।
यदि आप चाहें, तो मैं इस निर्णय की विस्तृत केस संख्या, याचिकाकर्ता के नाम और अन्य कानूनी विवरण भी प्रदान कर सकता हूँ।