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भरण–पोषण का अधिकार कमाई की क्षमता से नहीं छिन सकता: पत्नी को स्थायी आय न होने पर सहायता मिलनी ही चाहिए — केरल हाईकोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय

भरण–पोषण का अधिकार कमाई की क्षमता से नहीं छिन सकता: पत्नी को स्थायी आय न होने पर सहायता मिलनी ही चाहिए — केरल हाईकोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय

      भारतीय पारिवारिक कानून में भरण–पोषण (Maintenance) का सिद्धांत हमेशा से न्यायपालिका की संवेदनशील व्याख्याओं के केंद्र में रहा है। विवाह टूटने या दांपत्य संबंध बिगड़ने की स्थिति में पति–पत्नी और बच्चों की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करना कानून का प्राथमिक उद्देश्य है। ऐसे मामलों में अदालतें इस बात का आकलन करती हैं कि पति की आय, पत्नी की जरूरतें, बच्चों की भरण-पोषण आवश्यकताएँ और दोनों पक्षों की आर्थिक क्षमता क्या है। हाल ही में केरल हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए स्पष्ट किया कि सिर्फ इसलिए कि पत्नी कमाने में सक्षम (capable of earning) है, यह आधार नहीं हो सकता कि उसे भरण-पोषण से वंचित कर दिया जाए, विशेषकर तब जब उसकी आय स्थायी नहीं हो या वह अपने तथा बच्चों का खर्च वहन करने की वास्तविक स्थिति में न हो।

       यह निर्णय न केवल प्रगतिशील है बल्कि सुप्रीम कोर्ट की पूर्ववर्ती व्याख्याओं के अनुरूप है, जिनमें यह बार-बार कहा गया है कि earning capacity और actual sufficient income — ये दोनों अलग-अलग बाते हैं। जस्टिस कौसर एडप्पगाथ द्वारा दिया गया यह निर्णय भारतीय तलाक कानूनों के संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा, सामाजिक यथार्थ और भरण–पोषण के अधिकार की संवैधानिक भावना पर एक बार फिर जोर देता है।

        यह विस्तृत लेख इस मामले के तथ्य, हाईकोर्ट के कानूनी अवलोकन, सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों, भरण-पोषण से जुड़े व्यापक सिद्धांतों और इस निर्णय के दूरगामी प्रभावों का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है।


1. मामले की पृष्ठभूमि: अलग रह रही पत्नी ने अपने और दो बच्चों के लिए भरण–पोषण की मांग की

       मामला एक महिला की याचिका से संबंधित था, जो अपने पति से अलग रह रही थी। पति–पत्नी के बीच वैवाहिक संबंध बिगड़ चुके थे और महिला अपने दो नाबालिग बच्चों के साथ रहती थी। आर्थिक रूप से संघर्ष करते हुए उसने अदालत से भरण-पोषण की मांग की थी।

       जिला न्यायालय ने उसके लिए कुछ राशि निर्धारित की, परंतु पति ने इस आदेश को चुनौती देते हुए कहा कि पत्नी स्वयं कमाई करने में सक्षम है और इसलिए वह भरण-पोषण की हकदार नहीं हो सकती। पति का तर्क यह था कि पत्नी कुछ काम करती है और इस प्रकार वह “earning woman” की श्रेणी में आती है।

      यहीं से यह मामला केरल हाईकोर्ट पहुँचा, जहाँ न्यायमूर्ति कौसर एडप्पगाथ ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि कमाने की क्षमता और पर्याप्त आय — दोनों एक नहीं हैं।


2. केरल हाईकोर्ट का अवलोकन: कमाई की क्षमता को आधार बनाकर भरण–पोषण न denying करना गलत

हाईकोर्ट ने कहा:

“यह एक स्थापित सिद्धांत है कि केवल earning capacity के आधार पर महिला को भरण–पोषण से वंचित नहीं किया जा सकता, जब तक कि उसकी आमदनी पर्याप्त और स्थायी न हो।”

अदालत ने कहा कि:

  • महिला की थोड़ी-बहुत आय उससे यह उम्मीद नहीं जगाती कि वह स्वयं और बच्चों का पूरा खर्च वहन कर सके।
  • अनियमित कमाई (sporadic income) स्थायी आर्थिक सुरक्षा नहीं देती।
  • पत्नी का आर्थिक अधिकार केवल इसलिए समाप्त नहीं हो जाता कि वह कहीं पार्ट-टाइम काम कर लेती है या कभी-कभार छोटी आय प्राप्त कर लेती है।
  • भारतीय परिवारिक ढांचे में महिलाओं का आर्थिक योगदान अक्सर अदृश्य, गैर-मान्यता प्राप्त और अस्थायी होता है।

3. सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण निर्णयों का हवाला

जस्टिस एडप्पगाथ ने कई सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसलों का उल्लेख किया, जिनमें मुख्यतः निम्न सिद्धांत स्थापित किए गए:

(A) पत्नी की earning capacity (कमाने की क्षमता) पर्याप्त आय के बराबर नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में कहा है कि:

  • अगर पत्नी के पास स्थायी नौकरी नहीं है,
  • आय न्यूनतम है,
  • खर्चों और जरूरतों के अनुरूप नहीं है,
  • या वह बच्चों की देखभाल में लगी हुई है,

तो भरण–पोषण देना जरूरी है।

(B) पति की जिम्मेदारी तब तक बनी रहती है जब तक पत्नी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं

सुप्रीम कोर्ट की दृष्टि में विवाह टूट जाने के बाद भी पति का कर्तव्य है कि वह पत्नी और बच्चों को उपयुक्त जीवनस्तर सुनिश्चित करे।
भरण-पोषण कोई charity नहीं बल्कि कानूनी अधिकार (legal entitlement) है।

(C) पत्नी को अपने माता-पिता के घर निर्भर रहने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता

कई अवसरों पर अदालत ने स्पष्ट कहा है कि:

“Financial dependency is a form of cruelty and indignity.”

इससे बचाने के लिए भरण–पोषण का प्रावधान है।


4. भरण–पोषण का कानूनी ढाँचा: धारा 125 CrPC और अन्य कानून

भारत में पत्नी को भरण–पोषण का अधिकार निम्न कानूनों में निहित है:

1. धारा 125 दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC)

यह सबसे व्यापक प्रावधान है, जहाँ पत्नी, बच्चे और माता-पिता भरण–पोषण मांग सकते हैं।
मुख्य सिद्धांत है:

  • “सक्षम व्यक्ति अपनी पत्नी और बच्चों को बेसहारा छोड़ नहीं सकता।”

2. हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 — धारा 24 और 25

  • अंतरिम भरण-पोषण
  • स्थायी भरण–पोषण
    इसमें पति–पत्नी दोनों एक-दूसरे से मांग सकते हैं, पर अधिकांश मामलों में पत्नी ही मांग करती है।

3. घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005

धारा 20 और 22 के तहत monetary relief और compensation का अधिकार मिलता है।

4. पर्सनल लॉ

मुस्लिम, ईसाई, पारसी आदि व्यक्तिगत कानूनों में भी भरण–पोषण के अधिकार की व्यवस्था है।


5. अदालत ने क्यों कहा कि पत्नी हकदार है भले ही उसकी कुछ कमाई हो?

अदालत के अनुसार पत्नी को भरण–पोषण देने के पीछे निम्न तर्क हैं:

(1) पत्नी की कमाई अस्थायी और अपर्याप्त है

  • पार्ट-टाइम या अस्थायी आय से परिवार का खर्च नहीं चलता।
  • बच्चों की शिक्षा, चिकित्सा, जीवन-यापन की लागत लगातार बढ़ रही है।

(2) बच्चों की जिम्मेदारी अधिकांश समय माँ पर होती है

एकल अभिभावक (single mother) को दोहरी जिम्मेदारी निभानी पड़ती है, जिससे पूर्णकालिक नौकरी करना आसान नहीं है।

(3) पति की आय और आर्थिक क्षमता पत्नी से अधिक है

भरण-पोषण निर्धारित करते समय अदालत पति की आय, জীবনस्तर और खर्चों को भी देखती है।

(4) पत्नी का सामाजिक योगदान भी आर्थिक मूल्य रखता है

अदालतें घरेलू कार्य को भी मूल्यवान और मेहनत-भरा काम मानती हैं।


6. हाईकोर्ट का निष्कर्ष

हाईकोर्ट ने स्पष्ट कहा:

“पत्नी आर्थिक रूप से पूरी तरह आत्मनिर्भर नहीं है। उसकी आय स्थायी नहीं है। अतः उसे भरण–पोषण से वंचित नहीं किया जा सकता।”

अदालत ने जिला अदालत द्वारा दिए गए भरण–पोषण आदेश को सही ठहराया।


7. यह फैसला क्यों महत्वपूर्ण है?

महिलाओं की वास्तविक आर्थिक स्थिति को पहचानना

कई बार महिलाएं थोड़ी बहुत कमाई करती हैं, परंतु इससे वे आत्मनिर्भर नहीं हो जातीं। अदालत ने समाज की इस सच्चाई को स्वीकार किया।

पुरुष के कर्तव्य को स्पष्ट करना

अदालत ने दोहराया कि पति अपनी जिम्मेदारी से केवल इस आधार पर मुक्त नहीं हो सकता कि पत्नी “कुछ” कमाती है।

सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक नीति का पालन

हाईकोर्ट का निर्णय सर्वोच्च न्यायालय की स्थापित नीति पर आधारित है।

बच्चों के अधिकार की सुरक्षा

महिलाओं को मिलने वाला भरण–पोषण अक्सर बच्चों पर भी खर्च होता है, इसलिए यह उनके अधिकारों से भी जुड़ा है।

न्यायिक संवेदनशीलता का उत्कृष्ट उदाहरण

भरण–पोषण के मामलों में अदालतें केवल कानून नहीं, बल्कि मानवीय दृष्टि से भी विचार करती हैं।


8. भरण–पोषण के मामलों में ये सिद्धांत फिर से मजबूत हुए

इस निर्णय से निम्न सिद्धांत एक बार फिर पुष्ट हुए:

  • महिला को भरण–पोषण से वंचित करने का आधार केवल earning capacity नहीं हो सकता।
  • पति की क्षमता और पत्नी की वास्तविक जरूरतें महत्वपूर्ण हैं।
  • बच्चों के खर्च को भरण-पोषण में विशेष महत्व दिया जाता है।
  • साबित करना पति का दायित्व है कि पत्नी आत्मनिर्भर है।
  • भरण–पोषण “right to life with dignity” का हिस्सा है।

9. निष्कर्ष: आर्थिक अधिकारों को मजबूत करने वाला फैसला

      केरल हाईकोर्ट का यह निर्णय उन हजारों महिलाओं के लिए राहत लेकर आता है, जो विवाह टूटने या अलगाव की स्थिति में आर्थिक असुरक्षा का सामना करती हैं। यह फैसला बताता है कि:

  • भरण–पोषण कोई दान (charity) नहीं, बल्कि अधिकार (legal right) है।
  • पत्नी की कमाई की क्षमता उसके वास्तविक आर्थिक हितों को कम नहीं कर सकती।
  • बच्चों और पत्नी का सम्मानजनक जीवन पति की प्राथमिक जिम्मेदारी है।

      यह निर्णय न केवल न्यायिक दृष्टि से, बल्कि सामाजिक और मानवीय दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह भरण–पोषण कानून के उस मूलभूत सिद्धांत को मजबूत करता है, जिसके अनुसार पति—पत्नी और बच्चों की आर्थिक सुरक्षा, सम्मान और जीवन की गरिमा किसी भी परिस्थिति में प्राथमिकता होनी चाहिए।