IndianLawNotes.com

बॉम्बे हाई कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय: 75 दिन की देरी को माफ़ करते हुए लिमिटेशन की शुरुआत समन्स की सेवा से मानी

बॉम्बे हाई कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय: 75 दिन की देरी को माफ़ करते हुए लिमिटेशन की शुरुआत समन्स की सेवा से मानी

परिचय

न्यायिक प्रक्रिया में समय सीमा का पालन एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के अंतर्गत विभिन्न प्रक्रियात्मक नियम प्रतिवादी और वादी दोनों पक्षों के हितों की सुरक्षा के लिए बनाए गए हैं। हाल ही में बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसमें 75 दिन की देरी को माफ़ करते हुए यह स्पष्ट किया कि लिखित बयान दाखिल करने की सीमा समन्स की सेवा के दिन से शुरू होती है, न कि वकालतनामा दाखिल करने की तिथि से।

यह निर्णय “गौतम धाम को-ऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी लिमिटेड बनाम फंड्स एंड प्रॉपर्टीज़ ऑफ पारसी पंचायात, बॉम्बे” मामले में न्यायमूर्ति जितेंद्र जैन द्वारा 20 सितंबर 2025 को दिया गया। यह फैसला सिविल मुकदमों में देरी और न्यायिक विवेक के इस्तेमाल के दृष्टांत के रूप में महत्वपूर्ण है।


मामले का संक्षिप्त विवरण

इस मामले में वादी ने प्रतिवादी के खिलाफ एक गैर-वाणिज्यिक दीवानी मुकदमा दायर किया। समन्स और याचिका की प्रति 8 मार्च 2023 को प्रतिवादी को सेवा की गई। प्रतिवादी ने 75 दिन की देरी के बाद 21 जून 2023 को लिखित बयान दाखिल किया।

प्रतिवादी ने अदालत को बताया कि देरी का कारण उसके वकील के कार्यालय की लापरवाही थी। वकील को समन्स की प्राप्ति के बारे में समय पर सूचना नहीं दी गई थी। जब यह लापरवाही सामने आई, तो प्रतिवादी ने तुरंत कदम उठाते हुए लिखित बयान तैयार कर अदालत में प्रस्तुत किया।

इस पृष्ठभूमि में अदालत ने विचार किया कि क्या देरी को माफ़ किया जा सकता है और लिखित बयान दाखिल करने की समय सीमा किस तिथि से शुरू होती है।


न्यायालय की टिप्पणियाँ

1. लिमिटेशन की शुरुआत का बिंदु

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि लिखित बयान दाखिल करने की समय सीमा समन्स की सेवा के दिन से शुरू होती है, न कि वकालतनामा दाखिल करने की तिथि से।

न्यायालय ने कहा कि:

“वकालतनामा दाखिल करने से समन्स की सेवा की तिथि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, जब तक कि समन्स की सेवा पर कोई विवाद न हो।”

इसका अर्थ यह है कि प्रतिवादी को अपनी रक्षा प्रस्तुत करने का अधिकार समन्स की सेवा के समय से ही प्राप्त हो जाता है।

2. वकालतनामा और समन्स की सेवा

न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि वकालतनामा केवल यह दर्शाता है कि वकील ने अदालत में पेश होने की स्वीकृति दी है। यह समन्स की सेवा का विकल्प नहीं है। समन्स की सेवा प्रतिवादी को मुकदमे की जानकारी देती है और उसे अपनी रक्षा प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान करती है।

3. देरी के लिए पर्याप्त कारण

अदालत ने यह माना कि प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत किया गया कारण—वकील के कार्यालय की लापरवाही—”पर्याप्त कारण” के अंतर्गत आता है।

न्यायालय ने कहा:

“वकील के कार्यालय की लापरवाही के कारण प्रतिवादी को दंडित नहीं किया जा सकता, विशेषकर जब देरी केवल 75 दिन की हो।”

यह निर्णय यह संकेत देता है कि अदालत ने प्रतिवादी की स्थिति को समझा और उसे न्याय देने का प्रयास किया।

4. न्यायालय का विवेकाधिकार

न्यायालय ने यह भी कहा कि:

“न्यायालय के पास देरी को माफ़ करने का विवेकाधिकार है, विशेषकर जब देरी मामूली हो और प्रतिवादी ने तुरंत कदम उठाए हों।”

इस बात से स्पष्ट होता है कि न्यायालय ने न्यायिक विवेक का प्रयोग करते हुए प्रतिवादी को राहत प्रदान की।


निर्णय का कानूनी महत्व

इस फैसले का महत्व कई दृष्टियों से समझा जा सकता है:

  1. समन्स की सेवा से प्रारंभ होने वाली समय सीमा
    यह निर्णय सुनिश्चित करता है कि प्रतिवादी को अपनी रक्षा प्रस्तुत करने का पर्याप्त अवसर प्राप्त हो। समय सीमा वकालतनामा की तारीख से नहीं, बल्कि समन्स की सेवा के दिन से शुरू होती है।
  2. वकील की लापरवाही के प्रभाव का विश्लेषण
    अदालत ने स्पष्ट किया कि मामूली देरी के लिए प्रतिवादी को दंडित नहीं किया जाएगा, यदि देरी का कारण वकील की गलती हो और प्रतिवादी ने तुरंत कार्रवाई की हो। यह निर्णय वकील की लापरवाही के कारण प्रतिवादी को होने वाले नुकसान को कम करता है।
  3. न्यायिक विवेक का प्रयोग
    अदालत ने स्पष्ट किया कि मामूली देरी को माफ़ करने का निर्णय न्यायालय के विवेकाधिकार में आता है। यह न्याय की भावना और निष्पक्षता को बढ़ावा देता है।
  4. मार्गदर्शक सिद्धांत
    यह निर्णय अन्य अदालतों के लिए भी मार्गदर्शक के रूप में काम करेगा। भविष्य में ऐसे मामलों में समय सीमा, देरी के कारण और न्यायिक विवेक के प्रयोग के संदर्भ में यह निर्णय सहायक होगा।

व्यवहारिक और सामाजिक प्रभाव

  1. प्रतिवादी की सुरक्षा
    इस निर्णय से प्रतिवादी को अपनी रक्षा प्रस्तुत करने का पर्याप्त समय और अवसर मिलेगा, जिससे न्याय प्रक्रिया अधिक निष्पक्ष होगी।
  2. न्यायिक पारदर्शिता और विश्वास
    अदालत ने यह स्पष्ट किया कि मामूली देरी के कारण प्रतिवादी को दंडित नहीं किया जाएगा। इससे आम जनता का न्यायिक प्रणाली पर विश्वास बढ़ेगा।
  3. वकीलों और अदालतों के लिए संकेत
    यह निर्णय वकीलों को अपनी जिम्मेदारी समझाने और अदालतों को विवेकपूर्ण निर्णय लेने का एक संदर्भ प्रदान करता है।

निष्कर्ष

बॉम्बे हाई कोर्ट का यह निर्णय सिविल प्रक्रिया और न्यायिक विवेक के महत्व को रेखांकित करता है।

  • लिखित बयान दाखिल करने की सीमा समन्स की सेवा के दिन से शुरू होती है।
  • वकील की लापरवाही मामूली देरी के लिए प्रतिवादी को दंडित करने का कारण नहीं बनती।
  • न्यायालय का विवेक मामूली देरी के मामलों में राहत प्रदान करने की अनुमति देता है।

यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया में न्याय की भावना और पारदर्शिता को बढ़ाता है। भविष्य में ऐसे मामले आने पर अदालतें इसी निर्णय को मार्गदर्शक मानकर समान परिस्थिति में न्याय दे सकती हैं।

इस प्रकार, “गौतम धाम को-ऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी लिमिटेड बनाम फंड्स एंड प्रॉपर्टीज़ ऑफ पारसी पंचायात” का यह फैसला सिविल प्रक्रिया में समय सीमा, देरी के कारण, और न्यायिक विवेक के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण मिसाल प्रस्तुत करता है।