“बॉम्बे हाईकोर्ट ने खारिज की प्राडा पर कोल्हापुरी चप्पलों की नकल का आरोप लगाने वाली जनहित याचिका”

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“बॉम्बे हाईकोर्ट ने खारिज की प्राडा पर कोल्हापुरी चप्पलों की नकल का आरोप लगाने वाली जनहित याचिका”

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हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में लक्ज़री फैशन ब्रांड प्राडा (Prada) पर कोल्हापुरी चप्पलों की नकल करने का आरोप लगाते हुए दायर की गई एक जनहित याचिका (PIL) को खारिज कर दिया। याचिकाकर्ता का दावा था कि प्राडा द्वारा डिजाइन की गई एक हाई-एंड फुटवियर रेंज, महाराष्ट्र की पारंपरिक हस्तकला ‘कोल्हापुरी चप्पल’ की नकल है, और यह राज्य की सांस्कृतिक विरासत के साथ व्यापारिक अन्याय है।

याचिकाकर्ता की दलीलें

याचिका में कहा गया कि प्राडा द्वारा बेचे जा रहे कुछ सैंडल और स्लिपर्स, पारंपरिक कोल्हापुरी चप्पलों से इस हद तक मिलते-जुलते हैं कि यह सांस्कृतिक चोरी और पारंपरिक कारीगरों के अधिकारों का हनन है। याचिकाकर्ता ने अदालत से मांग की कि प्राडा को न केवल इन चप्पलों की बिक्री से रोका जाए, बल्कि कोल्हापुरी डिज़ाइन को वैश्विक स्तर पर ‘जियोग्राफिकल इंडिकेशन (GI) टैग’ के तहत सुरक्षित किया जाए।

याचिकाकर्ता के अनुसार, इस तरह के बड़े ब्रांड अगर पारंपरिक डिज़ाइनों का इस्तेमाल करते हैं, तो स्थानीय कारीगरों और कुटीर उद्योगों को आर्थिक और पहचान संबंधी नुकसान होता है। याचिका में यह भी अपील की गई थी कि केंद्र और राज्य सरकारें इस मामले में हस्तक्षेप करें और कोल्हापुरी चप्पलों को कानूनी सुरक्षा प्रदान करें।

हाईकोर्ट का दृष्टिकोण

बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस याचिका को “जनहित का वास्तविक मामला नहीं” मानते हुए खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता ने यह नहीं दिखाया कि किस प्रकार उनके या किसी विशेष समुदाय के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है, और यह भी स्पष्ट नहीं किया गया कि क्या वास्तव में प्राडा ने GI टैग का उल्लंघन किया है या नहीं।

अदालत ने यह टिप्पणी भी की कि इस तरह के मुद्दों के लिए जनहित याचिका का रास्ता उचित नहीं है, बल्कि इसके लिए कॉपीराइट, ट्रेडमार्क और GI टैग से संबंधित विशेष प्राधिकरणों के माध्यम से कार्रवाई होनी चाहिए। कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि किसी कारीगर या समुदाय को ऐसा लगता है कि उनके डिज़ाइन का दुरुपयोग हुआ है, तो वे खुद उपयुक्त मंच पर कानूनी प्रक्रिया अपना सकते हैं।

GI टैग और कोल्हापुरी चप्पल

कोल्हापुरी चप्पलों को वर्ष 2019 में महाराष्ट्र और कर्नाटक के कुछ क्षेत्रों के पारंपरिक उत्पाद के रूप में GI टैग प्रदान किया गया था। यह टैग दर्शाता है कि उत्पाद का विशेष सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और भौगोलिक महत्व है। हालांकि GI टैग होने के बावजूद, उसकी रक्षा के लिए उचित प्रवर्तन की आवश्यकता होती है, जो अक्सर कारीगरों की जानकारी या संसाधनों के अभाव में नहीं हो पाता।

सांस्कृतिक विरासत और वैश्विक फैशन

यह मामला एक बार फिर इस सवाल को सामने लाता है कि वैश्विक ब्रांड कब तक पारंपरिक शिल्पकला से “प्रेरित” होकर उत्पाद बनाते रहेंगे, और क्या इसका कोई नैतिक और कानूनी उत्तरदायित्व भी बनता है? हाल के वर्षों में अंतरराष्ट्रीय ब्रांडों पर भारत, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका की पारंपरिक डिज़ाइनों की नकल करने के आरोप लगते रहे हैं।

निष्कर्ष

बॉम्बे हाईकोर्ट का निर्णय यह स्पष्ट करता है कि कानूनी लड़ाई के लिए उचित मंच और पद्धति का चुनाव बेहद आवश्यक है। जनहित याचिका, भले ही विषय संवेदनशील हो, तब तक स्वीकार नहीं की जा सकती जब तक याचिकाकर्ता प्रत्यक्ष हानि या अधिकारों के उल्लंघन को स्पष्ट रूप से स्थापित न कर सके।

हालाँकि, यह मामला इस बात का प्रमाण है कि स्थानीय कारीगरों की सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने के लिए गंभीर नीति-निर्माण और कानूनी प्रवर्तन की आवश्यकता है, जिससे कि उनका शोषण न हो और वे वैश्विक मंच पर सम्मान के साथ अपनी पहचान बना सकें।