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बॉम्बे हाईकोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय : चेक अनादरण मामलों में अंतरिम मुआवज़ा और न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति

बॉम्बे हाईकोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय : चेक अनादरण मामलों में अंतरिम मुआवज़ा और न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति


प्रस्तावना

भारत में व्यापार और लेन-देन की विश्वसनीयता का सबसे बड़ा आधार बैंकिंग प्रणाली है। चेक एक ऐसा साधन है जो लेन-देन में पारदर्शिता और सुरक्षा प्रदान करता है। लेकिन जब कोई चेक पर्याप्त धनराशि के अभाव में बाउंस हो जाता है तो इससे न केवल लेन-देन प्रभावित होता है बल्कि यह अपराध भी बन जाता है। विनिमेय लिखत अधिनियम, 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) में धारा 138 के अंतर्गत चेक बाउंस को दंडनीय अपराध घोषित किया गया है।

समय-समय पर इस अधिनियम में संशोधन कर प्रावधानों को और अधिक प्रभावी बनाया गया है। वर्ष 2018 में जोड़ा गया एक महत्वपूर्ण प्रावधान है धारा 143A, जिसके तहत अदालत को यह शक्ति दी गई है कि वह अभियोजन की लंबी प्रक्रिया के दौरान भी शिकायतकर्ता को अंतरिम मुआवज़ा (Interim Compensation) दिला सके।

इसी विषय पर बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाल ही में M.A. Patil v/s M/s Mansi Labour (Crl. Writ Petition No. 1068/2024, दिनांक 05 फरवरी 2025) में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया।


विवाद की पृष्ठभूमि

  • याचिकाकर्ता M.A. Patil और प्रतिवादी M/s Mansi Labour के बीच वित्तीय लेन-देन हुआ।
  • प्रतिवादी द्वारा जारी किया गया चेक बैंक द्वारा अस्वीकृत (Dishonoured) कर दिया गया।
  • शिकायतकर्ता ने धारा 138 NI Act के अंतर्गत मामला दर्ज किया।
  • मुकदमे की कार्यवाही के दौरान मजिस्ट्रेट ने धारा 143A के तहत आरोपी को अंतरिम मुआवज़ा भुगतान का आदेश दिया।
  • आरोपी ने इस आदेश को चुनौती देते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया और दलील दी कि यह आदेश यांत्रिक (Mechanical) और अनुचित (Unjustified) है।

प्रमुख विधिक प्रावधान

  1. विनिमेय लिखत अधिनियम, 1881 (NI Act, 1881)
    • धारा 138 : चेक अनादरण अपराध है।
    • धारा 118 : लिखत की शुद्धता का अनुमान।
    • धारा 139 : धारक के पक्ष में अनुमान कि चेक ऋण/देनदारी की पूर्ति हेतु जारी हुआ।
    • धारा 143A : शिकायत लंबित रहने तक न्यायालय अंतरिम मुआवज़ा आदेशित कर सकता है।
  2. दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC)
    • धारा 397 : पुनरीक्षण की शक्ति।
  3. भारतीय संविधान, 1949
    • अनुच्छेद 226 : उच्च न्यायालय की रिट शक्ति।

विवाद के मुख्य प्रश्न

  1. क्या धारा 143A के तहत अंतरिम मुआवज़ा देना अदालत का अनिवार्य कर्तव्य है या केवल विवेकाधीन शक्ति?
  2. क्या अदालत केवल धारा 118 और 139 के अनुमान (Presumption) के आधार पर अंतरिम मुआवज़ा दे सकती है?
  3. अंतरिम मुआवज़ा देने से पहले किन-किन कारकों का मूल्यांकन आवश्यक है?
  4. क्या आरोपी की आर्थिक स्थिति (Financial Distress) पर विचार करना आवश्यक है?

न्यायालय की विवेचना

1. “May” शब्द का महत्व

  • धारा 143A में “may” शब्द का प्रयोग किया गया है, न कि “shall”
  • इसका अर्थ है कि अदालत के पास यह अधिकार है कि वह अंतरिम मुआवज़ा आदेशित करे, लेकिन यह अनिवार्य (Mandatory) नहीं है।
  • संसद का उद्देश्य यह था कि शिकायतकर्ता को त्वरित राहत मिले, लेकिन आरोपी को अनुचित रूप से दंडित न किया जाए।

2. Prima Facie परीक्षण आवश्यक

  • अदालत को प्रथम दृष्टया (Prima Facie) यह देखना होगा कि शिकायतकर्ता का दावा मज़बूत है या नहीं।
  • साथ ही, आरोपी द्वारा प्रस्तुत बचाव (Defense) का भी प्रारंभिक मूल्यांकन करना होगा।
  • उदाहरण के लिए, यदि आरोपी यह साबित करता है कि चेक सुरक्षा (Security) के लिए दिया गया था और लेन-देन पूरा हो चुका है, तो यह बचाव महत्व रखेगा।

3. Presumption under Sections 118 & 139

  • इन धाराओं में चेक की वैधता और दायित्व का अनुमान लगाया गया है।
  • परंतु यह अनुमान खंडनीय (Rebuttable) है।
  • अतः केवल अनुमान के आधार पर अंतरिम मुआवज़ा नहीं दिया जा सकता।

4. किन कारकों पर विचार किया जाएगा

  • लेन-देन का स्वरूप।
  • पक्षकारों का आचरण।
  • आरोपी की वित्तीय स्थिति और भुगतान क्षमता।
  • अनुमान को खंडित करने की संभावना।
  • मामले की परिस्थितियाँ।

5. आरोपी की आर्थिक स्थिति (Financial Distress)

  • अदालत ने माना कि यदि आरोपी आर्थिक संकट से गुजर रहा है, तो उस पर अंतरिम मुआवज़ा थोपना अन्यायपूर्ण (Unjust) होगा।
  • आरोपी की आय, व्यवसाय और वास्तविक स्थिति को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

न्यायालय का निर्णय

  1. अंतरिम मुआवज़ा देना अदालत का विवेकाधीन अधिकार है, न कि अनिवार्य कर्तव्य।
  2. केवल अनुमान (Presumption) के आधार पर अंतरिम मुआवज़ा देना उचित नहीं।
  3. अदालत को पक्षकारों के आचरण और आरोपी की क्षमता का परीक्षण करना होगा।
  4. निचली अदालत द्वारा पारित आदेश में इन पहलुओं पर विचार नहीं किया गया, इसलिए उसे संशोधित किया गया।

निर्णय का महत्व

  1. शिकायतकर्ता और आरोपी के अधिकारों का संतुलन
    • यह निर्णय सुनिश्चित करता है कि शिकायतकर्ता को त्वरित राहत मिले लेकिन आरोपी पर अनुचित बोझ न डाला जाए।
  2. न्यायालय की जिम्मेदारी
    • अदालत को अब केवल “यांत्रिक” आदेश पारित करने के बजाय, परिस्थितियों का गहन मूल्यांकन करना होगा।
  3. संसद की मंशा स्पष्ट
    • धारा 143A का उद्देश्य मुकदमे में देरी को रोकना था, लेकिन इसका दुरुपयोग रोकने के लिए अदालत को विवेकपूर्ण दृष्टिकोण अपनाना होगा।
  4. व्यावहारिक असर
    • यह निर्णय भविष्य में चेक बाउंस मामलों में निचली अदालतों को मार्गदर्शन प्रदान करेगा।

निष्कर्ष

बॉम्बे हाईकोर्ट का यह निर्णय चेक अनादरण कानून की न्यायसंगत व्याख्या है। इसने स्पष्ट कर दिया कि धारा 143A के अंतर्गत अंतरिम मुआवज़ा देना अदालत का विवेकाधीन अधिकार है। अदालत को दोनों पक्षों के हितों को ध्यान में रखते हुए ही आदेश पारित करना चाहिए।

यह फैसला न केवल विधिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है बल्कि सामाजिक न्याय और समानता के सिद्धांत का भी संरक्षण करता है। शिकायतकर्ता को राहत मिलती है, साथ ही आरोपी को अनुचित दंड से बचाने की गारंटी भी बनी रहती है।