बैंकर और ग्राहक के बीच संबंध (Banker and Customer Relationship) की प्रकृति और प्रकारों को समझाइए।

बैंकर और ग्राहक के बीच संबंध की प्रकृति एवं प्रकार

(Nature and Types of Relationship between Banker and Customer)


1. भूमिका (Introduction)

वर्तमान युग में बैंकिंग प्रणाली किसी भी देश की आर्थिक रीढ़ बन चुकी है। बैंकों का मुख्य उद्देश्य लोगों से जमा स्वीकार करना और उन्हें विभिन्न उद्देश्यों हेतु ऋण देना है। इस प्रक्रिया में एक विशेष संबंध स्थापित होता है जिसे हम बैंकर और ग्राहक के बीच संबंध के रूप में जानते हैं। यह संबंध केवल मौद्रिक लेन-देन तक सीमित नहीं होता, बल्कि यह संविदात्मक, विधिक, नैतिक और दायित्वपूर्ण होता है।


2. बैंकर और ग्राहक की परिभाषा

(i) बैंकर (Banker):

भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 तथा अन्य संबंधित कानूनों के अंतर्गत “बैंक” वह संस्था होती है जो—

  • जनता से जमा स्वीकार करती है,
  • ऋण प्रदान करती है,
  • चेक, ड्राफ्ट, बिल आदि का लेन-देन करती है।

(ii) ग्राहक (Customer):

कोई भी व्यक्ति जो बैंक में खाता खोलता है, बैंकिंग सेवाओं का नियमित रूप से उपयोग करता है और बैंक से अनुबंध करता है, वह ग्राहक होता है।
केवल एक बार खाता खोलना ही पर्याप्त है — उसी क्षण ग्राहक का दर्जा प्राप्त हो जाता है।


3. इस संबंध की प्रकृति (Nature of Relationship)

  • संविदात्मक (Contractual): बैंकर और ग्राहक का संबंध एक संविदा के आधार पर निर्मित होता है।
  • विश्वास पर आधारित (Fiduciary): ग्राहक बैंक को अपनी गोपनीय वित्तीय जानकारी देता है, जो विश्वास का प्रतीक है।
  • कानूनी (Legal): इस संबंध के सभी पहलू विधि द्वारा निर्धारित होते हैं और न्यायालय द्वारा संरक्षित रहते हैं।
  • गतिशील (Dynamic): यह संबंध ग्राहक के खाते की प्रकृति, लेन-देन की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलता रहता है।

4. संबंधों के विविध प्रकार (Types of Banker-Customer Relationships)

(A) सामान्य संबंध (General Relationship)

1. ऋणदाता और उधारकर्ता (Debtor and Creditor):
  • जब ग्राहक बैंक में पैसा जमा करता है, तो बैंक उसका ऋणी होता है।
  • जब ग्राहक ऋण लेता है, तो ग्राहक बैंक का ऋणी बन जाता है।
2. एजेंट और प्रिंसिपल (Agent and Principal):
  • जब ग्राहक बैंक को निवेश, बिल भुगतान या टैक्स जमा करने का निर्देश देता है, तो बैंक एजेंट की भूमिका में होता है।
3. ट्रस्टी और लाभार्थी (Trustee and Beneficiary):
  • जब ग्राहक बैंक को किसी संपत्ति (जैसे: शेयर सर्टिफिकेट, वसीयत, ज्वेलरी) की सुरक्षा के लिए देता है, तो बैंक ट्रस्टी होता है।
4. बैली और बैलर (Bailee and Bailor):
  • बैंक लॉकर सुविधा के अंतर्गत वस्तुएँ रखने पर ग्राहक बैलर और बैंक बैली बनता है।

(B) विशेष संबंध (Special Relationship)

1. गोपनीयता का दायित्व (Duty of Secrecy):

बैंक को ग्राहक की वित्तीय जानकारी को गुप्त रखना होता है, सिवाय निम्न परिस्थितियों के:

  • कानून द्वारा निर्देशित होने पर
  • ग्राहक की अनुमति से
  • सार्वजनिक हित में
  • बैंक के हितों की रक्षा हेतु
2. ग्राहक के निर्देशों का पालन (Duty to Follow Customer’s Instructions):

बैंक को चेक, ड्राफ्ट या किसी अन्य आदेश के अनुसार ही भुगतान करना होता है।

3. भुगतान करने का कर्तव्य (Obligation to Honor Cheques):

यदि ग्राहक के खाते में पर्याप्त राशि है, तो बैंक को चेक का भुगतान करना अनिवार्य है।

4. सावधानीपूर्वक कार्य करने का दायित्व (Duty of Reasonable Care):

बैंक को अपने कार्यों में व्यावसायिक कुशलता और सावधानी का प्रदर्शन करना चाहिए।

5. खातों का सही संचालन (Duty to Maintain Proper Accounts):

बैंक को ग्राहक के खाते को सही ढंग से अद्यतन एवं संचालित करना होता है।


5. खातों के प्रकार के अनुसार संबंधों का भेद

खातों के प्रकार के अनुसार संबंधों का भेद

1. बचत खाता (Saving Account):
इस खाते में जब ग्राहक राशि जमा करता है, तो बैंक उसका ऋणी बनता है और ग्राहक उसका ऋणदाता होता है। ग्राहक समय-समय पर निकासी कर सकता है।

2. चालू खाता (Current Account):
यह खाता व्यापारियों द्वारा उपयोग किया जाता है जिसमें बार-बार जमा और निकासी की सुविधा होती है। यहाँ भी बैंक ग्राहक का ऋणी होता है जब तक खाता में राशि होती है।

3. सावधि जमा खाता (Fixed Deposit Account):
इस खाते में ग्राहक एक निश्चित समय के लिए राशि जमा करता है। इस अवधि तक बैंक उसका ऋणी बना रहता है, और ग्राहक परिपक्वता (maturity) पर भुगतान की मांग कर सकता है।

4. ऋण खाता (Loan Account):
जब ग्राहक बैंक से ऋण लेता है, तो वह बैंक का ऋणी बन जाता है और बैंक उसका ऋणदाता होता है। यह संबंध बैंक की ओर से उधार देने से उत्पन्न होता है।

5. ओवरड्राफ्ट खाता (Overdraft Account):
इस खाते में बैंक ग्राहक को सीमित राशि तक अधिक निकालने की अनुमति देता है। इस स्थिति में ग्राहक बैंक का ऋणी बनता है क्योंकि बैंक अतिरिक्त राशि अग्रिम प्रदान करता है।


6. न्यायिक दृष्टिकोण (Judicial Viewpoint)

(i) Foley v. Hill (1848):

इस प्रसिद्ध केस में यह स्पष्ट किया गया कि जब ग्राहक बैंक में जमा करता है, तो वह एक ऋण देता है और बैंक उसका ऋणी बनता है। बैंक जमा को अपनी इच्छानुसार प्रयोग कर सकता है।

(ii) Joachimson v. Swiss Bank Corporation (1921):

इस केस में यह स्थापित किया गया कि ग्राहक को पहले मांग करनी होती है (जैसे चेक प्रस्तुत करना), तभी बैंक भुगतान करने के लिए बाध्य होता है।

(iii) Tournier v. National Provincial Bank (1924):

इस मामले में बैंक की गोपनीयता की जिम्मेदारी को न्यायालय ने कानूनी रूप में मान्यता दी।


7. आधुनिक युग में संबंध की नई दिशाएँ

(a) इलेक्ट्रॉनिक बैंकिंग (E-Banking):

बैंकर-ग्राहक संबंध अब डिजिटल माध्यमों के द्वारा भी स्थापित हो रहा है — जैसे नेट बैंकिंग, मोबाइल बैंकिंग आदि।

(b) KYC नियमों का अनुपालन:

ग्राहक की पहचान सत्यापित करने हेतु बैंक को Know Your Customer (KYC) नियमों का पालन करना अनिवार्य है।

(c) लोकपाल प्रणाली:

यदि ग्राहक को बैंकिंग सेवा से असंतोष है, तो वह बैंकिंग लोकपाल (Ombudsman) के समक्ष शिकायत कर सकता है।


8. निष्कर्ष (Conclusion)

बैंकर और ग्राहक का संबंध बहुआयामी, संविदात्मक और विश्वास पर आधारित होता है। यह संबंध कानून, व्यवहार, सामाजिक उत्तरदायित्व और आधुनिक तकनीक के मिश्रण से संचालित होता है। ग्राहक की संतुष्टि और बैंक की प्रतिष्ठा इस संबंध की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। इसलिए, यह आवश्यक है कि दोनों पक्ष अपने अधिकारों और दायित्वों को समझें और निभाएँ।


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