शीर्षक:
“बाल हित सर्वोपरि सिद्धांत की पुष्टि: मानसिक स्थिति पर प्रभाव के आधार पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा मां की कस्टडी याचिका अस्वीकृत”
परिचय:
भारतीय पारिवारिक न्यायशास्त्र में बाल संरक्षण एवं उनके सर्वोत्तम हित (Welfare of the Child) को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है। जब माता-पिता के बीच विवाद हो और बालक की अभिरक्षा (Custody) का प्रश्न न्यायालय के समक्ष आए, तो निर्णय का आधार केवल माता-पिता के अधिकार नहीं, बल्कि बच्चे का मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक हित होता है।
इसी सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए हाल ही में एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मां की अपने चार वर्षीय पुत्र की अभिरक्षा की मांग वाली याचिका को खारिज कर दिया, यह कहते हुए कि इस समय अभिरक्षा में परिवर्तन करने से बच्चे की मानसिक स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
मामले की पृष्ठभूमि:
मामले में चार वर्षीय बालक अपने पिता के पास रह रहा था। मां ने न्यायालय में याचिका दायर कर बालक की अभिरक्षा की मांग की, यह कहते हुए कि एक मां के रूप में वह बच्चे के पालन-पोषण के लिए अधिक उपयुक्त है। लेकिन अदालत ने बच्चे की वर्तमान परिस्थिति, भावनात्मक स्थिरता, और मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर विचार करते हुए यह पाया कि अचानक अभिरक्षा में परिवर्तन करना बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है।
न्यायालय का दृष्टिकोण:
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि –
“बालक का हित सर्वोपरि है” और उसकी मानसिक और भावनात्मक स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए ही अभिरक्षा का निर्णय लिया जाएगा।
न्यायालय ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण बिंदुओं पर बल दिया:
- बालक की वर्तमान दिनचर्या और उसकी स्थिरता को अचानक तोड़ना उचित नहीं होगा।
- बालक चार वर्ष की अवस्था में अत्यंत भावनात्मक रूप से संवेदनशील होता है और नई परिस्थिति उसके मानसिक विकास पर प्रभाव डाल सकती है।
- मां की भूमिका महत्वपूर्ण है, किंतु वह तभी स्वीकार्य होगी जब बच्चे के समग्र हित में हो।
- बालक के साथ न्यायालय में बातचीत से यह स्पष्ट हुआ कि वह अपने वर्तमान परिवेश में सहज और संतुलित है।
बाल हित सिद्धांत (Principle of Best Interest of the Child):
यह सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय और भारतीय कानून दोनों में स्वीकृत है।
- संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार संधि (UNCRC) और
- बाल न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015
भी इस सिद्धांत को मान्यता देते हैं।
भारतीय न्यायालयों ने “Gaurav Nagpal v. Sumedha Nagpal” जैसे अनेक मामलों में यह प्रतिपादित किया है कि अभिरक्षा का निर्णय माता या पिता के अधिकार नहीं, बल्कि बच्चे के हित को केंद्र में रखकर किया जाना चाहिए।
इस निर्णय के प्रभाव:
- यह स्पष्ट करता है कि भावनात्मक और मानसिक स्थिरता को न्यायिक प्रक्रिया में गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
- यह निर्णय सभी अभिभावकों को यह संदेश देता है कि बाल अधिकार और बाल मानसिकता को समझते हुए ही अभिरक्षा के लिए आग्रह करें।
- यह न्यायालयों के बाल मनोविज्ञान की समझ और संवेदनशील दृष्टिकोण को रेखांकित करता है।
- यह महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करते हुए भी बच्चे के हित को प्राथमिकता देता है।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय पारिवारिक कानून में संतुलन, संवेदनशीलता और दूरदर्शिता का परिचायक है। यह स्पष्ट करता है कि माता-पिता के अधिकारों से अधिक महत्वपूर्ण बच्चे की मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक स्थिति है।
जहां एक ओर यह निर्णय मां के लिए पीड़ादायक हो सकता है, वहीं यह बच्चे के सर्वोत्तम हित की रक्षा के लिए एक साहसिक और संवेदनशील न्यायिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
यह निर्णय न केवल भारतीय न्यायव्यवस्था के बाल केंद्रित दृष्टिकोण को दर्शाता है, बल्कि भविष्य के पारिवारिक विवादों में बालक के हित को केंद्रीय स्थान देने की आवश्यकता पर भी बल देता है।