बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986: भारत में बच्चों के अधिकारों की रक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम

बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986: भारत में बच्चों के अधिकारों की रक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम

प्रस्तावना:
भारत जैसे विकासशील देश में बाल श्रम एक गम्भीर सामाजिक और कानूनी समस्या रही है। गरीबी, अशिक्षा, और सामाजिक असमानता के चलते लाखों बच्चे बचपन में ही श्रमिक बन जाते हैं। इन्हीं परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986 पारित किया। यह अधिनियम बच्चों को शोषण से बचाने और उनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए बनाया गया था।

अधिनियम का उद्देश्य:
इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को खतरनाक व्यवसायों और प्रक्रियाओं में कार्य करने से रोकना तथा 14 से 18 वर्ष के किशोरों के लिए कार्य की शर्तों को विनियमित करना है। यह अधिनियम बालकों को शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास के अधिकार से वंचित होने से रोकने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

प्रमुख प्रावधान:

  1. निषेधात्मक प्रावधान: 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को खतरनाक उद्योगों, जैसे कि खनन, पटाखा निर्माण, और अन्य जोखिमपूर्ण कार्यों में नियोजित करना कानूनन निषिद्ध है।
  2. विनियमन प्रावधान: जिन कार्यों में बच्चों का काम करना पूर्णतः निषिद्ध नहीं है, वहाँ कार्य की शर्तों को नियंत्रित किया गया है, जैसे—कार्य के घंटे, विश्राम की अवधि, स्वास्थ्य और सुरक्षा के उपाय।
  3. बाल श्रम (संशोधन) अधिनियम, 2016: इस संशोधन ने अधिनियम को और सख्त बनाया। अब 14 वर्ष से कम बच्चों का किसी भी कार्य में नियोजन वर्जित है, भले ही वह खतरनाक हो या न हो। केवल पारिवारिक व्यवसायों और मनोरंजन उद्योग में, कुछ सीमाओं के तहत, छूट दी गई है।
  4. दंडात्मक प्रावधान: अधिनियम के उल्लंघन पर दंड का प्रावधान है जिसमें जुर्माना और कारावास दोनों शामिल हो सकते हैं।

प्रभाव और चुनौतियाँ:
इस अधिनियम के कारण कई बाल श्रमिकों को बंधनमुक्त कराया गया और उन्हें शिक्षा की ओर अग्रसर किया गया। हालांकि, अब भी ग्रामीण क्षेत्रों और असंगठित क्षेत्रों में बाल श्रम की समस्या बनी हुई है। प्रवासी मजदूरों के बच्चों, घरेलू सहायकों और मनोरंजन उद्योग में बच्चों के शोषण के मामले सामने आते रहते हैं।

न्यायपालिका की भूमिका:
भारतीय न्यायपालिका ने इस विषय पर कई महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं, जैसे—MC Mehta बनाम राज्य (1996), जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने बाल श्रमिकों के पुनर्वास के लिए दिशा-निर्देश दिए। न्यायालयों ने यह स्पष्ट किया कि शिक्षा बच्चों का मौलिक अधिकार है, जिसे कार्य के बोझ से वंचित नहीं किया जा सकता।

निष्कर्ष:
बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986 भारत में बच्चों के अधिकारों की रक्षा हेतु एक ऐतिहासिक कानून है। यद्यपि इस अधिनियम ने बाल श्रम पर काफी हद तक रोक लगाने में सफलता प्राप्त की है, फिर भी इसके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए सामाजिक जागरूकता, सशक्त प्रशासनिक व्यवस्था और शिक्षा के प्रसार की आवश्यकता बनी हुई है। जब तक हर बच्चा स्कूल में नहीं होगा और हर परिवार को पर्याप्त आजीविका नहीं मिलेगी, तब तक बाल श्रम पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता। अतः सरकार, समाज और नागरिकों का समन्वित प्रयास ही इस कानून को वास्तविक सफलता दिला सकता है।