बाल तस्करी और बाल श्रम कानून: भारतीय विधिक परिप्रेक्ष्य में बाल अधिकारों की सुरक्षा
भूमिका
भारत एक विशाल जनसंख्या वाला देश है, जहां बच्चों की संख्या कुल जनसंख्या का लगभग एक-तिहाई है। बालक किसी भी राष्ट्र का भविष्य होते हैं, और उनके सर्वांगीण विकास के बिना किसी भी समाज की प्रगति अधूरी मानी जाती है। किंतु दुर्भाग्यवश, हमारे देश में आज भी लाखों बच्चे शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा से वंचित हैं तथा उन्हें तस्करी, मजबूर श्रम, भिक्षावृत्ति और यौन शोषण जैसी अमानवीय परिस्थितियों में जीवन यापन करना पड़ता है। बाल तस्करी और बाल श्रम भारतीय समाज के सबसे गंभीर अपराधों में से हैं जो न केवल संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, बल्कि बच्चों के मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास को भी स्थायी रूप से बाधित करते हैं।
बाल तस्करी का अर्थ और स्वरूप
बाल तस्करी का अर्थ है — किसी बच्चे को धोखे, लालच, बल प्रयोग या किसी अन्य अनुचित साधन के माध्यम से ले जाना, रखना, या बेचना ताकि उसका शोषण किया जा सके। यह शोषण यौन उद्देश्यों, जबरन श्रम, अवयस्क विवाह, अंग व्यापार या अन्य अवैध गतिविधियों के लिए किया जाता है।
संयुक्त राष्ट्र के “पालर्मो प्रोटोकॉल” (2000) के अनुसार, तस्करी (Trafficking) का अर्थ है किसी व्यक्ति की भर्ती, परिवहन, आश्रय या प्राप्ति किसी प्रकार के शोषण के उद्देश्य से करना। जब यह कार्य किसी बच्चे के साथ होता है, तो इसे बाल तस्करी (Child Trafficking) कहा जाता है।
भारत में बाल तस्करी का स्वरूप विविध है —
- घरेलू सेवक के रूप में कार्य: गरीब राज्यों से बच्चों को महानगरों में नौकर या नौकरानी के रूप में भेजा जाता है।
- यौन शोषण: कई बच्चों को देह व्यापार या बाल पोर्नोग्राफी में धकेला जाता है।
- भिक्षावृत्ति: संगठित गिरोह बच्चों को सड़क पर भीख मांगने के लिए बाध्य करते हैं।
- अवयस्क विवाह: ग्रामीण क्षेत्रों में छोटी बच्चियों की शादी बड़े उम्र के पुरुषों से कर दी जाती है।
- अंग व्यापार: कुछ गिरोह बच्चों के अंगों की तस्करी में लिप्त हैं।
बाल श्रम का अर्थ और प्रकार
बाल श्रम (Child Labour) का अर्थ है — 14 वर्ष से कम आयु के बच्चे से ऐसा कार्य कराना जो उसके स्वास्थ्य, शिक्षा या नैतिक विकास के लिए हानिकारक हो। भारतीय समाज में यह प्रथा गहराई तक जमी हुई है। गरीबी, निरक्षरता, बेरोजगारी और जनसंख्या विस्फोट इसके प्रमुख कारण हैं।
बाल श्रम को मुख्यतः तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है —
- घरेलू श्रम: घरों में बच्चों से काम करवाना, जैसे – खाना बनाना, बर्तन धोना, कपड़े साफ करना।
- औद्योगिक श्रम: फैक्टरी, खदान, ईंट भट्टे, होटल, दुकानों या परिवहन क्षेत्र में काम करना।
- कृषि श्रम: खेतों में बच्चों से बुवाई, निराई, सिंचाई या कटाई करवाना।
बाल तस्करी और बाल श्रम के मुख्य कारण
- गरीबी और बेरोजगारी: परिवारों की आर्थिक कमजोरी बच्चों को श्रम या तस्करी की दिशा में धकेलती है।
- शिक्षा की कमी: अशिक्षित माता-पिता अपने बच्चों को शिक्षा के बजाय काम में लगाना बेहतर समझते हैं।
- सामाजिक असमानता: जातिगत और आर्थिक भेदभाव बच्चों के अवसरों को सीमित करता है।
- बाल सुरक्षा कानूनों का कमजोर प्रवर्तन: कई बार कानून होते हुए भी उनका पालन नहीं किया जाता।
- मध्यस्थ एजेंट और माफिया: जो ग्रामीण क्षेत्रों से बच्चों को बहला-फुसलाकर शहरों में बेच देते हैं।
- अविवेकपूर्ण उपभोक्तावाद: सस्ते श्रम की मांग बाल श्रम को बढ़ावा देती है।
संवैधानिक प्रावधान
भारतीय संविधान में बच्चों के अधिकारों की रक्षा हेतु अनेक प्रावधान किए गए हैं:
- अनुच्छेद 14: कानून के समक्ष समानता का अधिकार।
- अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार, जिसमें गरिमामय जीवन शामिल है।
- अनुच्छेद 21A: 6 से 14 वर्ष की आयु तक नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार।
- अनुच्छेद 23: मानव तस्करी और बंधुआ मजदूरी का निषेध।
- अनुच्छेद 24: 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानों, खदानों या खतरनाक कार्यों में नियोजित करने पर रोक।
- अनुच्छेद 39 (ई) और (एफ): राज्य को यह सुनिश्चित करना है कि बालक और बालिकाएँ दुरुपयोग से सुरक्षित रहें और उनका बचपन स्वस्थ विकास के लिए संरक्षित हो।
मुख्य विधिक प्रावधान और अधिनियम
1. बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986
यह अधिनियम 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को खतरनाक उद्योगों में कार्य करने से प्रतिबंधित करता है और अन्य क्षेत्रों में कार्य की परिस्थितियों को विनियमित करता है।
संशोधन 2016 के बाद, इसे “बाल और किशोर श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986” नाम दिया गया। इसमें 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों के किसी भी रोजगार में कार्य पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया है, जबकि 14 से 18 वर्ष के किशोरों को खतरनाक कार्यों में लगाना वर्जित है।
2. बाल अपराधों से संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO Act)
यह कानून बच्चों के यौन शोषण और यौन अपराधों से सुरक्षा प्रदान करता है। इसमें बाल पीड़ितों के लिए त्वरित न्याय की व्यवस्था की गई है और अपराधियों को कठोर दंड दिया जाता है।
3. मानव तस्करी (रोकथाम, संरक्षण और पुनर्वास) अधिनियम, 2021 (प्रस्तावित)
यह प्रस्तावित विधेयक मानव तस्करी की रोकथाम, पीड़ितों के पुनर्वास और अपराधियों के दंड के लिए व्यापक ढांचा प्रस्तुत करता है।
4. जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन) अधिनियम, 2015
यह अधिनियम उन बच्चों की देखभाल और संरक्षण से संबंधित है जो अपराध के शिकार हैं या जिन्हें परिवार से अलग किया गया है। इसमें बाल तस्करी, भिक्षावृत्ति और शोषण के शिकार बच्चों के पुनर्वास के प्रावधान शामिल हैं।
5. बॉन्डेड लेबर सिस्टम (उन्मूलन) अधिनियम, 1976
यह अधिनियम बंधुआ मजदूरी को अपराध घोषित करता है और ऐसे श्रमिकों की मुक्ति व पुनर्वास की व्यवस्था करता है।
6. बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006
यह कानून 18 वर्ष से कम आयु की लड़की और 21 वर्ष से कम आयु के लड़के के विवाह को अवैध घोषित करता है। बाल विवाह अक्सर बाल तस्करी से जुड़ा होता है, इसलिए यह अधिनियम अप्रत्यक्ष रूप से बाल तस्करी की रोकथाम में सहायक है।
अंतरराष्ट्रीय कानूनी ढांचा
भारत अनेक अंतरराष्ट्रीय संधियों और सम्मेलनों का हस्ताक्षरकर्ता है जो बाल अधिकारों की रक्षा करते हैं:
- संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार सम्मेलन (UNCRC), 1989
यह सबसे व्यापक अंतरराष्ट्रीय संधि है जो बच्चों के जीवन, विकास, शिक्षा और संरक्षण के अधिकार को मान्यता देती है। - ILO कन्वेंशन नंबर 138 (1973): न्यूनतम आयु सीमा से नीचे बाल श्रम पर प्रतिबंध।
- ILO कन्वेंशन नंबर 182 (1999): बाल श्रम के सबसे बुरे रूपों के उन्मूलन से संबंधित।
- पालर्मो प्रोटोकॉल (2000): मानव तस्करी, विशेषकर महिलाओं और बच्चों की तस्करी की रोकथाम पर केंद्रित।
न्यायिक दृष्टिकोण
भारतीय न्यायपालिका ने भी बाल तस्करी और बाल श्रम के मामलों में संवेदनशील और प्रगतिशील रुख अपनाया है।
- बंदुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ (1984) – सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि बंधुआ मजदूरी मानव गरिमा के विरुद्ध है और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करती है।
- एम.सी. मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य (1996) – न्यायालय ने सरकार को निर्देश दिया कि बाल श्रम से मुक्त कराए गए बच्चों को शिक्षा और पुनर्वास प्रदान किया जाए।
- पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम भारत संघ (1982) – अदालत ने मानव तस्करी और जबरन श्रम को अनुच्छेद 23 के तहत निषिद्ध बताया।
- बच्चे बनाम राज्य (विभिन्न उच्च न्यायालयों के मामले) – न्यायालयों ने लगातार यह दोहराया है कि बच्चों से जबरन श्रम करवाना या उनकी तस्करी करना संविधान की भावना के प्रतिकूल है।
सरकारी पहल और कार्यक्रम
- राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना (NCLP), 1988:
इस योजना के तहत बाल श्रमिकों की पहचान कर उन्हें विशेष विद्यालयों में शिक्षा, भोजन और प्रशिक्षण उपलब्ध कराया जाता है। - बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR):
बच्चों के अधिकारों की निगरानी और उनके उल्लंघन के मामलों की जांच करता है। - बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना:
बालिकाओं की शिक्षा और सुरक्षा को प्रोत्साहन देने वाली योजना। - ट्रैफिकिंग पोर्टल और हेल्पलाइन नंबर 1098 (चाइल्डलाइन):
बच्चों की आपातकालीन सहायता के लिए राष्ट्रीय हेल्पलाइन। - मिशन वात्सल्य योजना (2021):
बाल संरक्षण और पुनर्वास के लिए समग्र नीति ढांचा।
सामाजिक दृष्टिकोण और चुनौतियाँ
हालाँकि कानूनी प्रावधान और योजनाएँ पर्याप्त हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर कई समस्याएँ बनी हुई हैं:
- कानूनों का प्रभावी क्रियान्वयन न होना।
- ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता की कमी।
- भ्रष्टाचार और पुलिस की निष्क्रियता।
- पुनर्वास केंद्रों की कमी।
- बाल श्रमिकों को शिक्षा की मुख्यधारा में लाने की कठिनाई।
इसके अलावा, COVID-19 महामारी के दौरान आर्थिक संकट ने बाल तस्करी और बाल श्रम की घटनाओं में वृद्धि की है।
बाल अधिकारों की सुरक्षा हेतु सुझाव
- कानूनों का सख्त प्रवर्तन: स्थानीय प्रशासन को सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।
- शिक्षा का प्रसार: प्रत्येक बच्चे को मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध हो।
- जनजागरण अभियान: ग्रामीण और शहरी दोनों स्तरों पर लोगों को बाल तस्करी और श्रम के खतरों से अवगत कराना।
- NGOs और नागरिक समाज की भूमिका: ये संगठन बाल संरक्षण की दिशा में सरकार के साथ मिलकर कार्य करें।
- सामाजिक उत्तरदायित्व: उद्योगों और नियोक्ताओं को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके कार्यस्थलों पर कोई बच्चा कार्य न करे।
- डिजिटल निगरानी और डेटा संग्रह: बाल श्रम के विरुद्ध आधुनिक तकनीक का उपयोग कर निगरानी प्रणाली स्थापित की जाए।
निष्कर्ष
बाल तस्करी और बाल श्रम हमारे समाज के लिए गंभीर नैतिक और कानूनी चुनौतियाँ हैं। ये अपराध केवल कानून के उल्लंघन नहीं हैं, बल्कि मानवता के विरुद्ध अपराध हैं। एक विकसित और संवेदनशील समाज का दायित्व है कि वह अपने बच्चों के अधिकारों की रक्षा करे।
भारत में संविधान, कानून और न्यायपालिका ने बच्चों की सुरक्षा के लिए मजबूत आधार तैयार किया है, परंतु वास्तविक परिवर्तन तभी संभव होगा जब समाज का प्रत्येक व्यक्ति इस दिशा में अपनी जिम्मेदारी को समझे। बच्चों को शिक्षा, सुरक्षा और सम्मानपूर्ण जीवन देने की दिशा में समर्पित प्रयास ही राष्ट्र के उज्ज्वल भविष्य की गारंटी दे सकते हैं।