बाल अपराध और दंड प्रक्रिया: नाबालिगों के लिए अलग कानूनी दृष्टिकोण

बाल अपराध और दंड प्रक्रिया: नाबालिगों के लिए अलग कानूनी दृष्टिकोण

भूमिका
बाल अपराध (Juvenile Delinquency) आधुनिक समाज के लिए एक गंभीर सामाजिक और कानूनी चुनौती है। यह उस स्थिति को दर्शाता है जब कोई नाबालिग (18 वर्ष से कम आयु का बच्चा) कानून के विरुद्ध कोई ऐसा कार्य करता है जिसे अपराध की श्रेणी में रखा गया है। बच्चों के साथ जुड़ी आपराधिक घटनाओं के निपटारे में कानून का दृष्टिकोण वयस्क अपराधियों से अलग होता है, क्योंकि नाबालिगों के मामले में दंड के स्थान पर सुधार और पुनर्वास पर अधिक जोर दिया जाता है।
भारत में नाबालिग अपराधों के मामलों के लिए विशेष कानून, संस्थान और प्रक्रियाएं अपनाई जाती हैं, ताकि उनके मानसिक, सामाजिक और शैक्षिक विकास को बाधित किए बिना उन्हें समाज का जिम्मेदार नागरिक बनाया जा सके।


1. नाबालिग की परिभाषा और आयु सीमा

भारतीय कानून में नाबालिग की परिभाषा समय-समय पर संशोधित हुई है।

  • किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015 के अनुसार, 18 वर्ष से कम आयु का व्यक्ति नाबालिग (Juvenile) कहलाता है।
  • यह अधिनियम नाबालिगों को दो श्रेणियों में बांटता है –
    1. देखरेख और संरक्षण की आवश्यकता वाले बच्चे (Children in Need of Care and Protection)
    2. कानून के उल्लंघन करने वाले बच्चे (Children in Conflict with Law)

2. बाल अपराध के प्रमुख कारण

नाबालिग अपराध के पीछे अनेक सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक कारण होते हैं, जैसे:

  1. गरीबी और आर्थिक अभाव – आर्थिक कठिनाइयों के कारण कुछ बच्चे चोरी, डकैती या अन्य अपराधों की ओर बढ़ जाते हैं।
  2. शिक्षा की कमी – अशिक्षा और स्कूल छोड़ने की प्रवृत्ति अपराध के रास्ते पर ले जाती है।
  3. पारिवारिक विघटन – माता-पिता के अलगाव, घरेलू हिंसा या नशाखोरी का असर बच्चों पर नकारात्मक पड़ता है।
  4. मित्रों का गलत प्रभाव – असामाजिक समूहों में रहकर बच्चे गलत आदतें अपनाते हैं।
  5. मीडिया और इंटरनेट का दुरुपयोग – हिंसक खेल, अश्लील सामग्री और अपराध आधारित वीडियो बच्चों को प्रभावित कर सकते हैं।
  6. मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं – अवसाद, गुस्सा या व्यवहार संबंधी विकार भी अपराध की ओर धकेलते हैं।

3. नाबालिग अपराध के प्रकार

बाल अपराध कई रूपों में सामने आता है, जैसे:

  • संपत्ति से संबंधित अपराध – चोरी, डकैती, घरफोड़
  • व्यक्तिगत अपराध – मारपीट, यौन अपराध
  • नशे से जुड़े अपराध – नशीले पदार्थों का सेवन या व्यापार
  • साइबर अपराध – हैकिंग, ऑनलाइन धोखाधड़ी
  • यातायात संबंधी अपराध – बिना लाइसेंस वाहन चलाना, सड़क दुर्घटनाएं

4. नाबालिगों के लिए अलग कानूनी दृष्टिकोण

भारतीय दंड प्रक्रिया में नाबालिगों के साथ वयस्क अपराधियों जैसा व्यवहार नहीं किया जाता। इसका कारण यह है कि कानून यह मानता है कि बच्चे में सुधार और पुनर्वास की संभावना अधिक होती है।
मुख्य विशेषताएं:

  1. पुनर्वास पर जोर – नाबालिग को सजा देने के बजाय समाज में दोबारा स्थापित करने की कोशिश।
  2. बंद अदालत में सुनवाई – नाबालिग के मामले की सुनवाई सामान्य अदालत के बजाय किशोर न्याय बोर्ड (JJB) में की जाती है।
  3. सजा की सीमा – किसी भी नाबालिग को मृत्युदंड या आजीवन कारावास (बिना रिहाई की संभावना के) नहीं दिया जा सकता।
  4. विशेष संस्थाएं – सुधार गृह, बाल संरक्षण गृह, ऑब्जर्वेशन होम आदि।

5. किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015

यह अधिनियम बाल अपराध के मामलों में प्रमुख कानून है। इसकी प्रमुख विशेषताएं हैं:

  • किशोर न्याय बोर्ड (Juvenile Justice Board) – 18 वर्ष से कम उम्र के अपराधियों के मामलों की सुनवाई करता है।
  • चाइल्ड वेलफेयर कमेटी (Child Welfare Committee) – देखरेख और संरक्षण की आवश्यकता वाले बच्चों के मामलों को देखती है।
  • गंभीर अपराधों के मामले में विशेष प्रावधान – यदि 16-18 वर्ष का बच्चा हत्या, बलात्कार या अन्य गंभीर अपराध करता है, तो विशेष परिस्थितियों में उसे वयस्क की तरह ट्रायल किया जा सकता है, परंतु यह निर्णय मेडिकल, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक रिपोर्ट के आधार पर होता है।
  • पुनर्वास योजना – शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, काउंसलिंग और परिवार में पुनर्वास।

6. दंड प्रक्रिया में नाबालिगों के लिए विशेष प्रावधान

दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) और किशोर न्याय अधिनियम मिलकर नाबालिग अपराधियों के लिए विशेष प्रक्रिया निर्धारित करते हैं:

  1. गिरफ्तारी से बचाव – पुलिस नाबालिग को गिरफ्तार करने के बजाय उसे किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत करती है।
  2. हिरासत के बजाय सुधार गृह – नाबालिग को थाने या जेल में नहीं रखा जाता, बल्कि ऑब्जर्वेशन होम में रखा जाता है।
  3. परिवार और अभिभावक को सूचना – नाबालिग की गिरफ्तारी या पेशी पर तुरंत अभिभावक को सूचित किया जाता है।
  4. काउंसलिंग और मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन – बच्चे की मानसिक स्थिति का आकलन।

7. अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण और UNCRC का प्रभाव

भारत संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार अभिसमय (UNCRC), 1989 का सदस्य है, जिसने बाल न्याय प्रणाली में सुधार पर गहरा प्रभाव डाला। इसके अनुसार:

  • बच्चों के साथ गरिमापूर्ण व्यवहार किया जाए।
  • हिरासत अंतिम उपाय हो, और कम से कम समय के लिए हो।
  • शिक्षा, स्वास्थ्य और पुनर्वास पर ध्यान केंद्रित किया जाए।
  • न्यायिक प्रक्रिया में बच्चे की भागीदारी सुनिश्चित हो।

8. न्यायालयों के महत्वपूर्ण निर्णय

भारतीय न्यायालयों ने कई मामलों में नाबालिगों के अधिकारों और कानूनी प्रक्रिया को मजबूत किया है:

  • Sheela Barse v. Union of India (1986) – सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि नाबालिगों को पुलिस थानों में नहीं रखा जाएगा, बल्कि उन्हें सुधार गृह में भेजा जाएगा।
  • Pratap Singh v. State of Jharkhand (2005) – यह स्पष्ट किया कि अपराध की तिथि पर आरोपी की उम्र 18 वर्ष से कम होनी चाहिए, तभी उसे नाबालिग माना जाएगा।
  • Salil Bali v. Union of India (2013) – अदालत ने कहा कि नाबालिग अपराधियों के लिए दंड का उद्देश्य सुधार होना चाहिए, प्रतिशोध नहीं।

9. नाबालिग न्याय प्रणाली की चुनौतियां

हालांकि भारत में बाल न्याय कानून मजबूत है, लेकिन व्यावहारिक रूप में कई चुनौतियां हैं:

  1. संसाधनों की कमी – सुधार गृहों में भीड़ और पर्याप्त सुविधाओं का अभाव।
  2. कर्मचारियों का प्रशिक्षण – पुलिस, काउंसलर और बोर्ड सदस्यों में संवेदनशीलता और विशेष प्रशिक्षण की कमी।
  3. सामाजिक कलंक – नाबालिग अपराधी के रूप में पहचाने जाने से बच्चे के भविष्य पर असर।
  4. गंभीर अपराधों में समाज का दबाव – जनता अक्सर कठोर दंड की मांग करती है, जिससे सुधारात्मक दृष्टिकोण कमजोर पड़ सकता है।

10. समाधान और सुधार के उपाय

  • शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण – अपराध से दूर रखने के लिए रोजगार और शिक्षा के अवसर।
  • पारिवारिक परामर्श – परिवार में संवाद और सहानुभूति बढ़ाना।
  • सामुदायिक भागीदारी – NGO और सामाजिक संगठनों की मदद।
  • पुलिस और न्यायिक अधिकारियों का प्रशिक्षण – बच्चों के साथ संवेदनशील व्यवहार सुनिश्चित करना।
  • मीडिया की जिम्मेदारी – नाबालिग का नाम और पहचान गोपनीय रखना।

निष्कर्ष
नाबालिग अपराध और दंड प्रक्रिया का उद्देश्य केवल अपराध रोकना नहीं, बल्कि बच्चों के जीवन को सही दिशा में ले जाना है। भारत का कानूनी ढांचा, अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप, नाबालिगों के लिए अलग और सुधारात्मक दृष्टिकोण अपनाता है। इसके तहत बच्चे को सजा देने के बजाय शिक्षा, काउंसलिंग, पुनर्वास और सामाजिक पुनर्स्थापन पर जोर दिया जाता है। यदि समाज, परिवार और सरकार मिलकर इन उपायों को गंभीरता से लागू करें, तो न केवल बाल अपराधों में कमी लाई जा सकती है, बल्कि नाबालिगों को जिम्मेदार और उत्पादक नागरिक बनाया जा सकता है।