बार एसोसिएशन सदस्य के निष्कासन पर बार कौंसिल को सुनवाई का अधिकार नहीं : इलाहाबाद हाईकोर्ट का महत्त्वपूर्ण निर्णय
परिचय
भारत में अधिवक्ता समुदाय (Legal Fraternity) न्याय व्यवस्था का एक अभिन्न अंग है। अधिवक्ताओं के आचरण, पंजीकरण और अनुशासनात्मक नियंत्रण से संबंधित विषयों को Advocates Act, 1961 के तहत नियंत्रित किया जाता है। इसी अधिनियम के अंतर्गत राज्य बार कौंसिलें (State Bar Councils) और बार कौंसिल ऑफ इंडिया (Bar Council of India) गठित की जाती हैं। वहीं, बार एसोसिएशनों (Bar Associations) का गठन अधिवक्ताओं के संगठनात्मक प्रतिनिधित्व के लिए होता है, जिनका पंजीकरण सामान्यतः सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के अंतर्गत किया जाता है।
हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए यह स्पष्ट किया कि राज्य बार कौंसिल को बार एसोसिएशन के किसी सदस्य के निष्कासन (expulsion) के खिलाफ दायर आवेदन पर सुनवाई करने और आदेश पारित करने का अधिकार नहीं है।
यह निर्णय न्यायमूर्ति सरल श्रीवास्तव और न्यायमूर्ति अमिताभ कुमार राय की खंडपीठ ने नरेश कुमार मिश्र व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य बार कौंसिल एवं अन्य (Naresh Kumar Mishra & Ors vs State Bar Council of U.P. & Ors) याचिका में पारित किया।
मामले की पृष्ठभूमि (Background of the Case)
याचिकाकर्ता — नरेश कुमार मिश्र और उनके दो सहयोगी — एकीकृत बार एसोसिएशन, माटी (जिला कानपुर देहात) के सदस्य थे।
एसोसिएशन की आमसभा ने कुछ आंतरिक कारणों से इन तीनों को सदस्यता से निष्कासित (expelled) कर दिया।
निष्कासन से आहत होकर तीनों अधिवक्ताओं ने उत्तर प्रदेश राज्य बार कौंसिल (UP State Bar Council) के समक्ष एक प्रार्थना पत्र (petition) दाखिल किया, जिसमें उन्होंने कहा कि उनका निष्कासन अवैध है और एसोसिएशन ने नियमों के विपरीत कार्रवाई की है।
राज्य बार कौंसिल ने इस प्रार्थना पत्र पर सुनवाई करते हुए एक तीन सदस्यीय समिति (Three-Member Committee) गठित की। समिति ने प्रारंभ में याचिकाकर्ताओं के निष्कासन पर अंतरिम रोक (stay) लगा दी।
लेकिन अगले ही दिन समिति ने अपने आदेश को स्वयं बदलते हुए रोक हटा ली।
याचिकाकर्ताओं ने इस आदेश को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी।
विवाद का मुख्य प्रश्न (Core Legal Issue)
मामले का मुख्य प्रश्न यह था कि —
“क्या राज्य बार कौंसिल को यह अधिकार है कि वह किसी बार एसोसिएशन के सदस्य के निष्कासन के विरुद्ध दायर अर्जी पर सुनवाई कर सके और आदेश पारित करे?”
पक्षकारों के तर्क (Arguments of the Parties)
याचिकाकर्ताओं का पक्ष:
- याचिकाकर्ताओं ने कहा कि बार एसोसिएशन द्वारा उनका निष्कासन मनमाना है।
- उन्होंने यह भी तर्क दिया कि बार एसोसिएशन के निष्कासन से उनकी वकालत करने की स्वतंत्रता और पेशेवर अधिकारों पर असर पड़ता है, अतः बार कौंसिल को इसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार होना चाहिए।
- समिति द्वारा एक दिन में आदेश बदल देना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों (Principles of Natural Justice) के विपरीत है।
राज्य बार कौंसिल का पक्ष:
- बार कौंसिल ने कहा कि उसने अधिवक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए समिति गठित की थी।
- लेकिन अधिवक्ता अधिनियम में ऐसा कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है जो बार कौंसिल को बार एसोसिएशन की सदस्यता से संबंधित विवादों में दखल देने का अधिकार देता हो।
बार एसोसिएशन का पक्ष:
- एसोसिएशन ने तर्क दिया कि यह उसका आंतरिक मामला है और बार कौंसिल का इसमें कोई अधिकार नहीं है।
- बार एसोसिएशन एक स्वतंत्र संस्था है जो अपने संविधान और उपनियमों (Bye-laws) के तहत कार्य करती है।
न्यायालय का विश्लेषण (Court’s Analysis)
हाईकोर्ट ने सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं के वकील से पूछा कि —
“क्या Advocates Act, 1961 में कोई ऐसा प्रावधान है जो राज्य बार कौंसिल को यह अधिकार देता हो कि वह किसी बार एसोसिएशन के सदस्य के निष्कासन के खिलाफ सुनवाई करे?”
याचिकाकर्ताओं के वकील ने स्पष्ट किया कि ऐसा कोई प्रावधान अधिवक्ता अधिनियम में नहीं है।
इस पर कोर्ट ने कहा —
- राज्य बार कौंसिल के अधिकार अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 6 (Section 6) में विनिर्दिष्ट हैं।
- इन अधिकारों में वकीलों के पंजीकरण, रोल में नाम प्रविष्टि, अनुशासनात्मक कार्यवाही, कानूनी शिक्षा का प्रोत्साहन आदि शामिल हैं।
- लेकिन बार एसोसिएशन की सदस्यता विवाद (Membership Dispute) का निर्णय करने का कोई अधिकार कौंसिल को नहीं दिया गया है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि —
“बार एसोसिएशन एक स्वतंत्र निकाय है, जो अपने संविधान के अनुसार कार्य करती है। यदि कोई सदस्य उसके निर्णय से असंतुष्ट है, तो उसे वही कानूनी उपाय अपनाने चाहिए जो उसके संविधान या सामान्य कानून में उपलब्ध हैं।”
न्यायालय का निर्णय (Judgment of the Court)
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा —
- राज्य बार कौंसिल को बार एसोसिएशन के किसी सदस्य के निष्कासन के विरुद्ध दायर अर्जी पर सुनवाई करने या आदेश देने का अधिकार नहीं है।
- चूंकि इस विषय में कोई वैधानिक प्रावधान नहीं है, अतः राज्य बार कौंसिल द्वारा गठित समिति और उसके आदेश शून्य (Void ab initio) हैं।
- इस कारण से उत्तर प्रदेश राज्य बार कौंसिल का आदेश रद्द (set aside) किया जाता है।
हालांकि, कोर्ट ने यह स्वतंत्रता दी कि —
“याचिकाकर्ता कानून के तहत उपलब्ध किसी भी उचित उपाय (appropriate legal remedy) को अपनाने के लिए स्वतंत्र रहेंगे।”
इस प्रकार, याचिका आंशिक रूप से स्वीकार की गई और बार कौंसिल का आदेश निरस्त किया गया।
विधिक महत्व (Legal Significance of the Judgment)
- अधिकारों की सीमाओं का निर्धारण:
यह निर्णय स्पष्ट करता है कि राज्य बार कौंसिल अपने वैधानिक अधिकारों की सीमाओं से परे नहीं जा सकती। - बार एसोसिएशन की स्वायत्तता (Autonomy of Bar Associations):
बार एसोसिएशन अपने संविधान और उपनियमों के अनुसार स्वतंत्र रूप से कार्य करने का अधिकार रखती हैं। - Advocates Act की व्याख्या:
यह निर्णय अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 6 और 35 की व्याख्या करता है कि अनुशासनात्मक कार्यवाही केवल advocates’ professional misconduct से संबंधित होती है, न कि एसोसिएशन सदस्यता विवादों से। - न्यायिक मर्यादा (Judicial Restraint):
कोर्ट ने यह भी बताया कि जब कोई वैधानिक प्रावधान नहीं है, तब प्रशासनिक निकायों को स्वयं अधिकार ग्रहण नहीं करने चाहिए।
संबंधित प्रावधान (Relevant Legal Provisions)
- Section 6, Advocates Act, 1961: Powers and functions of the State Bar Council.
- Section 35, Advocates Act, 1961: Punishment for professional misconduct.
- Societies Registration Act, 1860: जिसके अंतर्गत अधिकांश बार एसोसिएशन पंजीकृत होती हैं।
इन प्रावधानों में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि राज्य बार कौंसिल को किसी एसोसिएशन के आंतरिक विवादों में हस्तक्षेप का अधिकार है।
पूर्ववर्ती न्यायिक दृष्टांत (Relevant Judicial Precedents)
- Bar Council of Maharashtra v. M.V. Dabholkar (1976) 2 SCC 291:
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि बार कौंसिल का अधिकार केवल अधिवक्ताओं के पेशेवर आचरण तक सीमित है। - Harish Uppal v. Union of India (2003) 2 SCC 45:
अदालत ने माना कि बार एसोसिएशन स्वतंत्र संगठन हैं, किंतु उन्हें कानून की सीमाओं में रहकर कार्य करना चाहिए। - R.K. Anand v. Registrar, Delhi High Court (2009) 8 SCC 106:
यह स्पष्ट किया गया कि बार कौंसिल का अनुशासनात्मक अधिकार केवल Misconduct तक सीमित है, न कि एसोसिएशन के संगठनात्मक विवादों तक।
व्यवहारिक प्रभाव (Practical Implications)
- अब किसी बार एसोसिएशन के सदस्य यदि निष्कासित किए जाते हैं, तो वे राज्य बार कौंसिल के समक्ष अपील नहीं कर सकते।
- उन्हें अपने संविधान (Constitution of the Association) में वर्णित अपील तंत्र का प्रयोग करना होगा या सिविल न्यायालय (Civil Court) में राहत मांगनी होगी।
- राज्य बार कौंसिल अब ऐसे विवादों में प्रशासनिक आदेश पारित करने से बचेगी।
निष्कर्ष (Conclusion)
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह निर्णय अधिवक्ता समुदाय में प्रशासनिक सीमाओं और संस्थागत स्वायत्तता का स्पष्ट निर्धारण करता है।
कोर्ट ने यह स्थापित किया कि —
“बार एसोसिएशन और बार कौंसिल दोनों अधिवक्ताओं के संगठन हैं, परंतु उनकी कार्य-सीमाएँ और अधिकार क्षेत्र अलग-अलग हैं।”
बार कौंसिल का कार्य अधिवक्ताओं के पेशेवर अनुशासन और पंजीकरण तक सीमित है, जबकि बार एसोसिएशन का कार्य संगठनात्मक और प्रतिनिधिक है।
इस निर्णय से न केवल राज्य बार कौंसिलों की भूमिका स्पष्ट हुई है, बल्कि यह भी सुनिश्चित हुआ है कि कोई संस्था अपनी वैधानिक सीमाओं से आगे बढ़कर अधिकारों का प्रयोग न करे।
सारांश में:
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह साफ कहा — “राज्य बार कौंसिल के पास बार एसोसिएशन सदस्य के निष्कासन से संबंधित याचिका पर सुनवाई करने का कोई वैधानिक अधिकार नहीं है। अतः ऐसे आदेश ultra vires (अधिकार क्षेत्र से बाहर) होंगे।”