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“बाइबल बांटना और धर्म का प्रचार करना अपराध नहीं” : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश पुलिस की कार्यशैली पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कन्वर्ज़न केस में दिया महत्वपूर्ण निर्णय

“बाइबल बांटना और धर्म का प्रचार करना अपराध नहीं” : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश पुलिस की कार्यशैली पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कन्वर्ज़न केस में दिया महत्वपूर्ण निर्णय

       भारत जैसे लोकतांत्रिक और बहुधर्मी देश में धार्मिक स्वतंत्रता संविधान द्वारा संरक्षित सबसे मौलिक अधिकारों में से एक है। अनुच्छेद 25 प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म का पालन, प्रचार और प्रसार करने का अधिकार देता है, बशर्ते कि इससे सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य को कोई हानि न हो। लेकिन कई बार धार्मिक गतिविधियों को गलत ढंग से “धर्मांतरण” या “अनुचित धर्म प्रचार” मानकर पुलिस कार्रवाई कर देती है।

        इसी संदर्भ में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक अहम फैसला दिया, जिसमें स्पष्ट कहा गया कि—
“बाइबल बांटना और धर्म का प्रचार करना स्वयं में अपराध नहीं है। इसे जबरन धर्मांतरण की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, जब तक यह साबित न हो कि किसी पर दबाव, प्रलोभन या धमकी दी गई है।”

        हाईकोर्ट ने न केवल पुलिस FIR को कठोर शब्दों में खारिज किया, बल्कि उत्तर प्रदेश पुलिस की ‘ओवररीच’ और मनमानी पर भी गंभीर टिप्पणी की। यह फैसला धार्मिक स्वतंत्रता और पुलिस की कार्यप्रणाली पर गहरा प्रभाव डालने वाला है। इस 1700 शब्दों के विस्तृत विश्लेषण में हम इस निर्णय की पृष्ठभूमि, कानूनी सिद्धांत, न्यायालय की टिप्पणी और इसके व्यापक प्रभाव को समझेंगे।


मामले की पृष्ठभूमि : क्या था पूरा विवाद?

      यह मामला उत्तर प्रदेश के एक जिले में दर्ज FIR से जुड़ा था, जहाँ कुछ व्यक्तियों के खिलाफ आरोप लगाया गया था कि वे—

  • बाइबल वितरित कर रहे थे,
  • प्रार्थना सभा आयोजित कर रहे थे,
  • और लोगों को ईसाई धर्म अपनाने के लिए प्रेरित कर रहे थे।

       FIR में उन्हें उत्तर प्रदेश धर्मांतरण विरोधी कानून (UP Prohibition of Unlawful Conversion of Religion Act) के प्रावधानों के तहत अभियुक्त बना दिया गया।

पुलिस ने दावा किया कि आरोपी “धर्मांतरण के उद्देश्य से” लोगों को प्रलोभन दे रहे थे। लेकिन FIR या केस डायरी में—

  • किसी पर दबाव,
  • किसी धमकी,
  • किसी प्रलोभन,
  • किसी धोखे

का कोई प्रत्यक्ष आरोप नहीं था।

इसके बावजूद पुलिस ने मामला दर्ज कर लिया। आरोपियों ने FIR को हाईकोर्ट में चुनौती दी।


हाईकोर्ट की मूल टिप्पणी : “धर्म प्रचार और धर्मांतरण में भेद समझें”

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दो टूक कहा कि—

1. धर्म का प्रचार (Propagating Religion) पूरी तरह कानूनी है

अनुच्छेद 25 के तहत कोई भी धर्म प्रचार कर सकता है — यह मौलिक अधिकार है।

2. बाइबल बांटना धर्म प्रचार का एक रूप है, अपराध नहीं

बाइबल या किसी धार्मिक पुस्तक का वितरण किसी प्रकार का अवैध कृत्य नहीं है।

3. धर्मांतरण तभी अपराध है जब—

  • किसी को जबरदस्ती,
  • प्रलोभन,
  • धोखे,
  • या धमकी

से धर्म बदलने पर मजबूर किया जाए।

4. पुलिस ने कानून को गलत तरह से लागू किया

कोर्ट का कहना था कि पुलिस ने मात्र धार्मिक गतिविधि को धर्मांतरण मानकर “ओवररीच” किया।

5. FIR में ‘अपराध’ का कोई आधार नहीं था

न तो कोई पीड़ित था, न कोई दबाव का आरोप।


हाईकोर्ट की कड़ी टिप्पणी : “पुलिस ने कानून का दुरुपयोग किया”

न्यायालय ने कहा कि—

  • लोग शांतिपूर्ण ढंग से प्रार्थना कर रहे थे,
  • बाइबल पढ़ा या दिया जाना किसी भी प्रकार से ‘राज्य की सुरक्षा’ या ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ के खिलाफ नहीं था
  • ऐसा करने वाले को “अपराधी” मान लेना पुलिस की अज्ञानता और अतिरेकपूर्ण प्रवृत्ति है।

कोर्ट ने लिखा:

“धर्म प्रचार करना संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार है। इसे अवैध धर्मांतरण के बराबर समझना कानून के गलत प्रयोग की सीमा पार करना है।”


धार्मिक स्वतंत्रता का कानूनी ढांचा : कोर्ट ने क्या समझाया?

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि—

1. अनुच्छेद 25 सभी को धर्म प्रचार का अधिकार देता है

यह अधिकार केवल पूजा–अर्चना तक सीमित नहीं है, बल्कि—

  • धार्मिक साहित्य बांटना,
  • धार्मिक उपदेश देना,
  • प्रार्थना सभा आयोजित करना

भी इसी का हिस्सा है।

2. धर्मांतरण अपराध नहीं है, “अवैध/जबरन धर्मांतरण” अपराध है

यदि कोई व्यक्ति अपनी मर्जी और स्वतंत्र इच्छा से धर्म बदलता है, तो यह कानूनी रूप से वैध है।

3. पुलिस को अनुच्छेद 25 की संवैधानिक सीमाएँ समझनी होंगी

कोर्ट ने कहा कि पुलिस कानून को धार्मिक स्वतंत्रता सीमित करने के साधन के रूप में उपयोग नहीं कर सकती।


UP धर्मांतरण कानून की व्याख्या : कोर्ट ने क्या कहा?

कोर्ट ने UP Religion Conversion Prohibition Act की सही व्याख्या करते हुए कहा:

1. कानून धर्मांतरण रोकने के लिए नहीं, ‘जबरन/भ्रमित’ धर्मांतरण रोकने के लिए है।

2. प्रलोभन, दबाव, धोखे की ठोस शिकायत हो तभी मामला बनता है।

3. FIR में न तो पीड़ित था, न कोई ऐसा आरोप।

अतः FIR पूरी तरह से बेमानी और कानून के गलत इस्तेमाल का उदाहरण थी।


पुलिस की कार्यवाही पर कोर्ट की कड़ी फटकार

कोर्ट ने पुलिस की कार्यवाही को “मनमानी” और “संविधान विरोधी” बताया।

उसने कहा कि—

  • पुलिस धार्मिक स्वतंत्रता को खतरे में नहीं डाल सकती।
  • पुलिस का काम कानून और व्यवस्था बनाए रखना है, लोगों की निजी धार्मिक गतिविधियों को अपराध घोषित करना नहीं।
  • किसी व्यक्ति का धार्मिक पुस्तक देना या अपने धर्म के बारे में बताना पुलिस के अपराध रजिस्टर का विषय नहीं है।

कोर्ट ने उत्तर प्रदेश पुलिस को सलाह देते हुए कहा कि—

“कानून लागू करते समय यह समझें कि कौन सा कार्य वास्तव में अपराध है और कौन सा नहीं।”


अदालत का फैसला : FIR रद्द

अदालत ने स्पष्ट किया—

  • FIR में कोई अपराध नहीं बनता
  • न कोई जबरन धर्मांतरण का आरोप
  • न कोई प्रलोभन
  • न कोई धमकी
  • न कोई पीड़ित

अतः FIR को धारा 482 (Cr.P.C.) के तहत रद्द कर दिया गया।


इस फैसले का व्यापक प्रभाव : क्या बदलेगा?

1. धार्मिक स्वतंत्रता मजबूत होगी

अब पुलिस किसी भी धार्मिक गतिविधि को तुरंत धर्मांतरण नहीं मान सकेगी।

2. पुलिस के मनमाने FIR रजिस्ट्रेशन पर रोक लगेगी

पुलिस को अब अधिक सतर्क और संवेदनशील होना होगा।

3. अल्पसंख्यक समुदायों में भय कम होगा

इस तरह के मामलों में बिना आधार गिरफ्तारी या FIR होने का जोखिम कम होगा।

4. संविधानिक मूल्यों का सम्मान बढ़ेगा

यह निर्णय याद दिलाता है कि—
संविधान किसी धर्म विशेष को नहीं, बल्कि सभी धर्मों को समान अधिकार देता है।

5. भविष्य में जाँच और FIR की प्रक्रिया में बदलाव

पुलिस को यह सुनिश्चित करना होगा कि—

  • कोई पीड़ित है या नहीं
  • क्या वास्तव में दबाव/प्रलोभन था
  • क्या मामला केवल धार्मिक प्रचार का है

निर्णय का सामाजिक महत्व

यह फैसला किसी एक धर्म या समुदाय की जीत नहीं बल्कि—

  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता,
  • धार्मिक सहिष्णुता,
  • और संवैधानिक अधिकारों

की जीत है।

कोर्ट ने दिखाया कि—

भारत किसी भी प्रकार के जबरन धर्मांतरण का समर्थन नहीं करता, लेकिन साथ ही शांतिपूर्ण धार्मिक प्रचार को अपराध भी नहीं मानता।

धर्म का प्रचार करना स्वाभाविक और शांतिपूर्ण गतिविधि है। इसे अपराध मानना समाज में तनाव, डर और अविश्वास फैलाता है।


निष्कर्ष : एक ऐतिहासिक और संतुलित फैसला

        इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह निर्णय धार्मिक स्वतंत्रता से जुड़े मामलों में स्पष्टता लाता है। अदालत ने कानून के मूल उद्देश्य को समझाया और पुलिस के अत्यधिक हस्तक्षेप पर सख्त चेतावनी दी।

         यह फैसला न केवल कानूनी दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक सौहार्द और संवैधानिक मूल्यों की दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण है।

“धर्म प्रचार अपराध नहीं है, जबरन धर्मांतरण अपराध है।”

          इस सरल लेकिन गहरे संदेश के साथ हाईकोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि भारत का संविधान हर नागरिक को समान धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करता है।