शीर्षक: “बहुविवाह की सशर्त अनुमति और वर्तमान दुरुपयोग: इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणी और समान नागरिक संहिता की जरूरत”
प्रस्तावना:
भारत एक बहु-धार्मिक और बहु-सांस्कृतिक देश है, जहाँ विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता संविधान द्वारा दी गई है। लेकिन जब धार्मिक प्रथाओं का दुरुपयोग समाजिक अन्याय का कारण बनने लगे, तब न्यायपालिका का हस्तक्षेप अपरिहार्य हो जाता है। हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक द्विविवाह मामले की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की कि प्रारंभिक इस्लामी काल में बहुविवाह की अनुमति एक सामाजिक आवश्यकता थी, किंतु अब इसका स्वार्थवश दुरुपयोग हो रहा है।
इतिहास में बहुविवाह का सन्दर्भ:
इस्लाम धर्म में बहुविवाह की अनुमति कोई बिना शर्त दी गई सुविधा नहीं, बल्कि एक समय-विशेष की सामाजिक ज़रूरत थी। कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि प्रारंभिक इस्लामी काल, विशेषकर मदीना में जब इस्लाम एक नवजात धर्म था, तब कबीलाई युद्धों और झगड़ों में बहुत-सी महिलाएं विधवा हो गई थीं और बच्चे अनाथ हो गए थे। उस समय इन अनाथों और विधवाओं की सुरक्षा, पुनर्वास और सामाजिक प्रतिष्ठा की रक्षा हेतु इस्लाम ने सशर्त बहुविवाह को स्वीकार किया।
इस्लामी बहुविवाह की शर्तें:
- न्याय की शर्त: पुरुष को सभी पत्नियों के साथ समानता और न्याय का व्यवहार करना अनिवार्य है।
- सामाजिक उत्तरदायित्व: बहुविवाह का उद्देश्य यौन सुख नहीं, बल्कि अनाथों और उनकी माताओं की सामाजिक सुरक्षा था।
- संवेदनशीलता और पारिवारिक संतुलन: यदि कोई पुरुष पहले से परिवार संभालने में असमर्थ है, तो उसे दूसरा विवाह नहीं करना चाहिए।
कोर्ट की वर्तमान टिप्पणी और चिंता:
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस्लामिक सन्दर्भों का हवाला देते हुए कहा कि आज के समय में कुछ लोग बहुविवाह को धार्मिक ढाल बना कर स्वार्थवश इस्तेमाल कर रहे हैं। यह इस्लाम की मूल भावना का उल्लंघन है।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि:
- धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25) निर्बाध नहीं है। यह सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य जैसे कारकों से नियंत्रित हो सकती है।
- कानूनी प्रावधान और धार्मिक अधिकारों में संतुलन बनाए रखना जरूरी है।
- यदि पहला विवाह विशेष विवाह अधिनियम, हिंदू विवाह अधिनियम या अन्य धर्म के अंतर्गत हुआ है और बाद में व्यक्ति इस्लाम धर्म अपना कर दूसरी शादी करता है, तो यह अपराध होगा।
मुरादाबाद केस का संदर्भ:
इस मामले में फुरकान नामक व्यक्ति पर उसकी पहली पत्नी ने दूसरी शादी छिपाकर करने का आरोप लगाया था। पुलिस ने द्विविवाह व दुष्कर्म की धाराओं में मुकदमा दर्ज कर चार्जशीट दाखिल की। याची ने दलील दी कि इस्लाम में चार विवाह की अनुमति है, अतः मुकदमा अवैध है। लेकिन कोर्ट ने कहा कि विवाह की कानूनी प्रकृति, धार्मिक सच्चाई और नैतिक उत्तरदायित्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
समान नागरिक संहिता (UCC) की आवश्यकता पर कोर्ट की राय:
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अब समय आ गया है जब विधायिका को समान नागरिक संहिता पर गंभीर विचार करना चाहिए। भारत में विभिन्न धर्मों के लिए अलग-अलग पारिवारिक कानून हैं, जिससे न्याय की प्रक्रिया जटिल हो जाती है। UCC लागू होने से:
- सभी नागरिकों के लिए एक समान पारिवारिक कानून होगा, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति से हों।
- महिलाओं के अधिकारों की बेहतर रक्षा होगी।
- धार्मिक प्रथाओं के नाम पर अन्यायपूर्ण कृत्य रोके जा सकेंगे।
निष्कर्ष:
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह निर्णय केवल एक कानूनी मामले का निपटारा नहीं है, बल्कि यह समाज के व्यापक नैतिक और विधिक विमर्श को जन्म देता है। कोर्ट ने इस्लामी परंपराओं की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की व्याख्या करते हुए वर्तमान सामाजिक यथार्थ से जोड़ा है। साथ ही, इस निर्णय से समान नागरिक संहिता की बहस को नया बल मिला है, जो आने वाले समय में समानता और न्याय के लिए एक आवश्यक कदम बन सकता है।