शीर्षक: “बलात्कार मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अग्रिम जमानत की पुष्टि: न्याय और संतुलन के बीच संवैधानिक विवेक”
Ankit Barnwal v. State of Bihar
— इस मामले में आरोपी अंकिन बर्नवाल को पटना हाईकोर्ट ने अग्रिम जमानत दी थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 16–17 जुलाई 2025 को बरकरार रखा।
📝 संक्षिप्त विवरण
अंकिन बर्नवाल पर आरोप था कि उसने एक विवाहित महिला को विवाह का झांसा देकर कई बार होटलों में बुलाया, मानसिक व शारीरिक शोषण किया, और बाद में ब्लैकमेल भी किया था। महिला का कहना था कि उसने उसे मादक पदार्थ का सेवन कराया और जब वह बेहोश थी तब बलात्कार किया गया। जांच के बाद महिला ने मार्च 2025 में तलाक भी लिया था ।
पटना हाईकोर्ट ने अग्रिम जमानत देते हुए पाया कि तलाक के बाद दोनों के बीच कोई अवैध संबंध जारी नहीं रहा ।
सुप्रीम कोर्ट की खण्डपीठ (न्यायमूर्ति एम एम सुन्दरश और एन कोतिस्वर सिंह) ने हाईकोर्ट के निर्णय को उचित ठहराया और कहा कि महिला का विवाहित होते हुए भी संबंध रखना भी खुद एक अपराध हो सकता है । कोर्ट ने महिला के संबंधों पर सवाल उठाते हुए कहा कि “तलाक के बाद कोई सम्बन्ध नहीं बना — इसलिए अग्रिम जमानत बरकरार रहेगी।”
इस प्रकार, Ankit Barnwal v. State of Bihar में सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाईकोर्ट की अग्रिम जमानत की स्थापना को बरकरार रखा।
भूमिका
हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने एक बलात्कार के मामले में आरोपी को दी गई अग्रिम जमानत को बरकरार रखते हुए पटना हाईकोर्ट के निर्णय को सही ठहराया। यह निर्णय भारतीय न्याय व्यवस्था में अग्रिम जमानत के सिद्धांतों और आरोपी के मौलिक अधिकारों के बीच संतुलन का एक महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करता है। सुप्रीम कोर्ट ने पीड़िता की शिकायत को गंभीरता से लेते हुए, मामले की संवेदनशीलता को भी स्वीकार किया, परन्तु आरोपी की गिरफ्तारी की आवश्यकता न होने को प्राथमिकता दी।
मामले की पृष्ठभूमि
पीड़िता द्वारा दर्ज प्राथमिकी में आरोप लगाया गया था कि आरोपी ने झांसा देकर उसके साथ बलात्कार किया। आरोपी ने गिरफ्तारी की आशंका से पटना हाईकोर्ट में अग्रिम जमानत की याचिका दायर की थी। हाईकोर्ट ने मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आरोपी को अग्रिम जमानत दे दी थी। पीड़िता ने इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी।
सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि अग्रिम जमानत एक मौलिक अधिकार नहीं है, परंतु यह एक संवैधानिक रक्षक है जो व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है। अदालत ने यह माना कि मामला विचाराधीन है और अभी तक ठोस साक्ष्य सामने नहीं आए हैं जो आरोपी की गिरफ्तारी को अनिवार्य बना सकें। अदालत ने पीड़िता की चिंता को नजरअंदाज नहीं किया, लेकिन यह भी माना कि अभियोजन पक्ष को आरोपी के साथ निष्पक्षता बरतनी चाहिए।
न्यायिक संतुलन का उदाहरण
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों पक्षों की भावनाओं और अधिकारों के बीच संतुलन स्थापित किया। एक ओर जहां यौन अपराधों की गंभीरता को स्वीकार किया गया, वहीं दूसरी ओर आरोपी के गिरफ्तारी से पहले न्यायिक सुरक्षा के अधिकार को भी महत्व दिया गया। अदालत ने स्पष्ट किया कि अग्रिम जमानत का अर्थ यह नहीं है कि आरोपी निर्दोष है, बल्कि यह केवल जांच प्रक्रिया के दौरान उसकी स्वतंत्रता की अस्थायी सुरक्षा है।
निष्कर्ष
यह निर्णय भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के अंतर्गत अग्रिम जमानत के प्रावधानों की व्याख्या को स्पष्ट करता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह दिखाया कि न्याय केवल सजा देने का नाम नहीं है, बल्कि यह उस प्रक्रिया का नाम है जिसमें दोनों पक्षों को निष्पक्षता और गरिमा के साथ सुना जाए। यह मामला न्यायिक विवेक, संवेदनशीलता और संवैधानिक संतुलन का आदर्श उदाहरण बनकर उभरा है।