“बलात्कार पीड़िता और गर्भपात का कानूनी विकल्प: संवैधानिक अधिकार, न्यायिक हस्तक्षेप और सामाजिक विमर्श”

“बलात्कार पीड़िता और गर्भपात का कानूनी विकल्प: संवैधानिक अधिकार, न्यायिक हस्तक्षेप और सामाजिक विमर्श”


भूमिका

बलात्कार (Rape) केवल शारीरिक हिंसा का कृत्य नहीं है, बल्कि यह पीड़िता के मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक जीवन को गहराई से प्रभावित करता है। जब इस जघन्य अपराध का परिणाम एक अनचाहा गर्भ होता है, तो पीड़िता की पीड़ा और बढ़ जाती है। ऐसे मामलों में गर्भपात (Abortion) न केवल एक चिकित्सा आवश्यकता बल्कि पीड़िता के मानवाधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा बन जाता है।

भारत में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 (संशोधित 2021) बलात्कार पीड़िताओं के लिए गर्भपात का कानूनी विकल्प प्रदान करता है, लेकिन व्यवहारिक रूप से यह रास्ता कई कानूनी प्रक्रियाओं, चिकित्सकीय रिपोर्टों और न्यायालय की अनुमति पर निर्भर करता है। यह लेख इस जटिल कानूनी ढाँचे, न्यायिक दृष्टिकोण और सुधार की दिशा का विस्तृत विश्लेषण करता है।


1. संवैधानिक दृष्टिकोण

1.1 अनुच्छेद 21 – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार

  • गर्भपात का निर्णय महिला की शारीरिक स्वायत्तता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा है।
  • Suchita Srivastava v. Chandigarh Administration (2009) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि महिला को गर्भधारण जारी रखने या समाप्त करने का निर्णय लेने का अधिकार है।

1.2 अनुच्छेद 14 और 15 – समानता और भेदभाव निषेध

  • बलात्कार पीड़िता को गर्भपात के मामले में विशेष संरक्षण देना कानून के तहत उचित है, क्योंकि यह एक विशेष परिस्थिति है।

2. मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 (संशोधन 2021)

2.1 मुख्य प्रावधान

  • धारा 3(2)(b) – बलात्कार के मामलों में 24 सप्ताह तक गर्भपात की अनुमति।
  • एक पंजीकृत चिकित्सा प्रैक्टिशनर (RMP) की राय आवश्यक (20 सप्ताह तक)।
  • 20-24 सप्ताह के बीच दो RMP की राय आवश्यक।
  • समय सीमा पार होने पर गर्भपात केवल Medical Board की सिफारिश और न्यायालय की अनुमति से ही संभव।

2.2 “बलात्कार” का विशेष उल्लेख

  • गर्भपात की अनुमति के आधारों में स्पष्ट रूप से बलात्कार को शामिल किया गया है, ताकि पीड़िता को लंबी कानूनी लड़ाई से बचाया जा सके।

3. भारतीय दंड संहिता (IPC) और प्रासंगिक धाराएँ

  • धारा 375 IPC – बलात्कार की परिभाषा।
  • धारा 376 IPC – बलात्कार की सजा।
  • धारा 312-316 IPC – अवैध गर्भपात को अपराध मानती हैं, लेकिन जीवन बचाने के उद्देश्य से किए गए गर्भपात को अपवाद मानती हैं।
  • बलात्कार पीड़िता के मामले में MTP Act के प्रावधान, IPC पर अग्रता रखते हैं।

4. न्यायिक दृष्टिकोण

  1. Meera Santosh Pal v. Union of India (2017)
    • गंभीर भ्रूण विकृति और बलात्कार पीड़िता के मामले में समय सीमा पार होने पर भी गर्भपात की अनुमति।
  2. X v. Union of India (2022)
    • अविवाहित बलात्कार पीड़िता को भी विवाहित महिलाओं के समान गर्भपात का अधिकार।
  3. Murugan Nayakkar v. Union of India (2017)
    • नाबालिग बलात्कार पीड़िता के मामले में 32 सप्ताह की गर्भावस्था में भी गर्भपात की अनुमति, क्योंकि यह पीड़िता के मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक था।

5. व्यावहारिक चुनौतियाँ

5.1 समय सीमा की पाबंदी

  • 24 सप्ताह की सीमा कई बार समस्या बन जाती है, खासकर नाबालिग पीड़िताओं के मामलों में, जहां गर्भावस्था देर से पता चलती है।

5.2 मेडिकल बोर्ड की प्रक्रिया

  • हर राज्य में मेडिकल बोर्ड तुरंत उपलब्ध नहीं होता, जिससे समय नष्ट होता है।

5.3 सामाजिक कलंक और गोपनीयता

  • पीड़िता कई बार परिवार और समाज के डर से मामला दर्ज ही नहीं कराती, जिससे गर्भपात की कानूनी समय सीमा निकल जाती है।

6. अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण

  • कनाडा – बलात्कार के मामलों में कोई समय-सीमा प्रतिबंध नहीं।
  • आयरलैंड – बलात्कार के मामलों में गर्भपात की अनुमति, लेकिन मेडिकल और कानूनी जांच जरूरी।
  • पोलैंड – अत्यंत सख्त, केवल बलात्कार, अनाचार या महिला की जान बचाने के मामलों में ही अनुमति।
  • भारत का कानून मध्यमार्गी है, लेकिन लागू करने में देरी एक बड़ी समस्या है।

7. सुधार की दिशा

  1. बलात्कार पीड़िताओं के लिए अलग तेज-तर्रार मेडिकल बोर्ड – ताकि त्वरित निर्णय हो सके।
  2. 24 सप्ताह की सीमा पर पुनर्विचार – विशेष रूप से नाबालिग और मानसिक रूप से असमर्थ पीड़िताओं के लिए।
  3. गोपनीयता संरक्षण – अस्पताल और पुलिस स्तर पर पीड़िता की पहचान का खुलासा न हो।
  4. कानूनी जागरूकता – पीड़िताओं और उनके परिवारों को गर्भपात के कानूनी विकल्पों के बारे में समय पर जानकारी।

8. निष्कर्ष

बलात्कार पीड़िता के लिए गर्भपात का कानूनी विकल्प महिला की गरिमा, मानसिक स्वास्थ्य और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से सीधा जुड़ा हुआ है। भारत में MTP Act, 2021 ने कई प्रगतिशील बदलाव किए हैं, लेकिन व्यावहारिक चुनौतियाँ अब भी इस अधिकार के पूर्ण उपयोग में बाधा हैं। तेज, संवेदनशील और गोपनीय प्रक्रिया अपनाकर ही पीड़िताओं को वास्तविक राहत दी जा सकती है।