“बड़े मामलों में पूरा समय खप जाता है, छोटे मुकदमादार अनसुने रह जाते हैं” — चीफ जस्टिस सुर्या कांत की चिंता और न्यायपालिका की प्राथमिकताओं पर बड़ा विमर्श
प्रस्तावना
भारत की न्यायपालिका विश्व की सबसे व्यस्त न्याय व्यवस्थाओं में से एक है। सुप्रीम कोर्ट में हर साल लाखों मामले दायर होते हैं, और लंबित मामलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसी परिप्रेक्ष्य में भारत के नए मुख्य न्यायाधीश (CJI) सुर्या कांत ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है, जिसमें उन्होंने कहा कि “ज्यादा महत्वपूर्ण समझे जाने वाले मामलों में पूरा समय लग जाता है, जबकि छोटे-छोटे मुकदमादार अक्सर सुनवाई से वंचित रह जाते हैं।”
यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट की बढ़ती वर्कलोड, न्यायिक प्राथमिकताओं और आम नागरिकों की न्याय तक पहुंच पर एक गंभीर सवाल उठाती है।
यह लेख इस टिप्पणी के निहितार्थ, न्यायिक ढांचे की मौजूदा चुनौतियों, सुधारों की संभावनाओं और आगे के रास्ते पर विस्तृत रूप से प्रकाश डालता है।
CJI सुर्या कांत की टिप्पणी: संदर्भ और महत्व
एक हालिया सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश सुर्या कांत ने अदालत की कार्यप्रणाली पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि:
- अदालत में ऐसे मामले जिनको अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है,
जैसे—संवैधानिक मुद्दे, चुनाव से जुड़े विवाद, बड़े प्रशासनिक निर्णय, राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामले—
इन्हें सुनने में लंबा समय लगता है और अन्य मामलों को पीछे धकेल दिया जाता है। - वहीं, साधारण मुकदमादार,
जो भूमि विवाद, श्रम विवाद, व्यक्तिगत आपराधिक मामलों, पारिवारिक विवाद या छोटी नागरिक याचिकाओं से जुड़े होते हैं,
वे वर्षों तक सुनवाई की प्रतीक्षा करते रहते हैं।
CJI का यह कथन न्यायपालिका में प्राथमिकताओं के संतुलन को लेकर एक गहरी समस्या की ओर संकेत करता है।
क्यों महत्वपूर्ण है यह टिप्पणी?
1. सुप्रीम कोर्ट का मूल उद्देश्य — आम नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा
सुप्रीम कोर्ट को केवल “बड़े मामलों” की अदालत के रूप में नहीं देखा जा सकता।
यह हर नागरिक की अंतिम उम्मीद की अदालत है।
2. छोटे मुकदमादार ही असल न्याय-प्रणाली की रीढ़
देश में 80% से अधिक मामले सामान्य नागरिकों द्वारा दायर किए जाते हैं।
यदि उनकी सुनवाई में देरी हो, तो न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता प्रभावित होती है।
3. लंबित मामलों का दुष्चक्र
सुप्रीम कोर्ट में इस समय:
- 80,000 से अधिक मामले लंबित,
- हर साल 10,000 से अधिक नए केस,
- सुनवाई के लिए कम समय,
- अंतिम आदेश आने में वर्षों की देरी,
ये सभी समस्याएँ छोटे मुकदमादारों को सबसे अधिक प्रभावित करती हैं।
सुप्रीम कोर्ट में “बड़े” और “छोटे” मामलों का विभाजन क्यों?
मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी एक वास्तविक स्थिति पर आधारित है, जो सुप्रीम कोर्ट की दिनचर्या में दिखाई देती है।
1. संवैधानिक पीठों (Constitution Benches) की सुनवाई
ये सुनवाई सप्ताहों–महीनों तक चलती हैं।
इसमें शामिल होते हैं—
- मौलिक अधिकारों की व्याख्या,
- राज्यों के बीच विवाद,
- चुनावी सुधार,
- आरक्षण संबंधी कानून,
- राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे।
इन मामलों को प्राथमिकता मिलना स्वाभाविक है, लेकिन इसका असर यह होता है कि नियमित अपीलों की सुनवाई पीछे चली जाती है।
2. उच्च-प्रोफ़ाइल या मीडिया फोकस वाले मामले
ऐसे मामलों पर अधिक ध्यान दिया जाता है, ताकि न्यायिक पारदर्शिता बनी रहे।
लेकिन परिणामस्वरूप छोटे याचनाकर्ताओं की सुनवाई प्रभावित होती है।
3. सरकार से जुड़े मामले प्राथमिकता सूची में ऊपर
सरकारी नीतियों और प्रशासनिक फैसलों से जुड़े मामले भी प्राथमिकता में उच्च होते हैं।
छोटे मुकदमादारों पर प्रभाव
CJI सुर्या कांत के अनुसार, इससे आम नागरिकों पर कई प्रभाव पड़ते हैं:
1. न्याय में अनावश्यक देरी
भूमि, संपत्ति, नौकरी, पेंशन, वेतन, पारिवारिक विवाद—
इन मामलों में देरी से व्यक्ति का जीवन प्रभावित होता है।
2. आर्थिक बोझ
लंबे मुकदमे की वजह से—
- वकीलों की फीस
- अदालत के चक्कर
- दस्तावेज़ी खर्च
बढ़ जाते हैं।
3. कमजोर वर्ग सबसे अधिक प्रभावित
- महिलाएँ
- बुजुर्ग
- मजदूर
- गरीब परिवार
इन सबके लिए न्याय में देरी जीवन-यापन को प्रभावित करती है।
4. न्यायिक असमानता का भाव
जब बड़े मामले सुर्खियों में रहते हैं और छोटे मुकदमादार अनसुने रह जाते हैं,
तो लोगों का न्यायपालिका में विश्वास कम होता है।
क्या है समाधान? CJI की दृष्टि से संभावित सुधार
CJI सुर्या कांत का उद्देश्य आलोचना नहीं बल्कि सुधार की दिशा दिखाना है।
उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से कई सुधारों की ओर इशारा किया है—
1. अदालतों के समय का बेहतर प्रबंधन
- संवैधानिक मामलों के लिए तय दिन,
- सामान्य अपीलों के लिए अलग दिन,
- फास्ट-ट्रैक सुनवाई,
ताकि संतुलन बना रहे।
2. केस मैनेजमेंट सिस्टम को मजबूत करना
सुप्रीम कोर्ट पहले से ही डिजिटल केस मैनेजमेंट सिस्टम की दिशा में काम कर रहा है।
इसके और सख्त तथा आधुनिक स्वरूप की आवश्यकता है जैसे—
- सुनवाई का टाइम स्लॉट
- e-listing
- प्राथमिकता निर्धारण तकनीक
- AI-आधारित केस स्क्रूटनी
3. अवकाश (Vacations) को पुनर्गठित करना
अदालतों में लम्बे अवकाश को लेकर जनता में जिज्ञासा रहती है।
CJI का संकेत यह भी माना जा रहा है कि अवकाश कैलेंडर में कुछ बदलाव हो सकते हैं।
4. पीठों की संख्या बढ़ाना
बढ़े हुए काम के बोझ को देखते हुए—
- अधिक जज नियुक्त करना
- अधिक Benches बनाना
- सर्किट बेंचों की स्थापना
महत्वपूर्ण समाधान हो सकते हैं।
5. विशेष बेंचें (Special Benches)
छोटे मुकदमादारों के लिए विशेष बेंच बनाई जा सकती है, जो—
- श्रम
- भूमि विवाद
- पेंशन
- अपराध अपील
- पारिवारिक मामलों
की दैनिक सुनवाई सुनिश्चित करे।
वर्तमान न्यायिक स्थिति: चिंताएं और चुनौतियाँ
1. जजों की कमी
भारत में उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट में जजों की कमी लंबे समय से समस्या रही है।
कई पद लंबे समय तक खाली रहते हैं।
2. मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है
जनसंख्या, कानूनी जागरूकता और सामाजिक विवादों के बढ़ने से—
- हर साल लाखों नए केस
- विशेषकर आपराधिक व नागरिक विवाद
- इससे सुनवाई की गति धीमी
3. सरकार की अपीलों का बोझ
कई रिपोर्टों में पाया गया कि सरकार सबसे बड़ी मुकदमादार है।
अक्सर यह अपीलें अनावश्यक होती हैं।
4. डिजिटल अवसंरचना की कमी
अभी भी कई अदालतें पूरी तरह डिजिटाइज्ड नहीं हैं।
CJI सुर्या कांत की मंशा: न्याय सभी के लिए, न कि कुछ के लिए
CJI की टिप्पणी यह संदेश देती है कि—
- न्यायपालिका का उद्देश्य केवल चंद “बड़े मुद्दों” को हल करना नहीं है,
- बल्कि हर उस व्यक्ति को न्याय देना है जो अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अदालत आया है।
सुप्रीम कोर्ट का भविष्य दृष्टिकोण
CJI के सुझावों से यह संकेत मिलता है कि आने वाले समय में सुप्रीम कोर्ट में—
- बेहतर केस मैनेजमेंट,
- डिजिटल कोर्ट सिस्टम,
- हाई-प्रोफाइल बनाम छोटे मामलों में संतुलित दृष्टिकोण,
- त्वरित सुनवाई,
- न्याय तक समान पहुंच
जैसे सुधार देखने को मिल सकते हैं।
निष्कर्ष
चीफ जस्टिस सुर्या कांत ji द्वारा व्यक्त चिंता न केवल न्यायपालिका के भीतर मौजूद वास्तविक चुनौतियों को उजागर करती है, बल्कि यह भी बताती है कि न्यायपालिका आम नागरिकों के दर्द को समझती है।
जब अदालत का समय केवल बड़े मामलों में खप जाता है, तो छोटे मुकदमादारों की आवाज दब जाती है।
यह स्थिति न केवल न्याय तक पहुंच को प्रभावित करती है, बल्कि यह संविधान में निहित समानता और न्याय के सिद्धांतों को भी कमजोर करती है।
CJI की यह टिप्पणी न्यायिक प्रणाली में व्यापक सुधारों की आवश्यकता को रेखांकित करती है—
ताकि भारत की सर्वोच्च अदालत हर नागरिक के लिए सुलभ, संवेदनशील और न्यायसंगत बनी रहे।