शीर्षक:
“बंगाली बोलने पर निर्वासन चिंता का विषयः पश्चिम बंगाल सरकार की कलकत्ता हाईकोर्ट में तीखी प्रतिक्रिया”
लेख:
हाल ही में कलकत्ता उच्च न्यायालय में एक मामले की सुनवाई के दौरान पश्चिम बंगाल सरकार ने स्पष्ट रूप से कहा कि सिर्फ बंगाली भाषा बोलने के आधार पर किसी व्यक्ति को निर्वासित किया जाना न केवल असंवैधानिक है, बल्कि गंभीर रूप से मानवाधिकारों का उल्लंघन भी है। यह बयान एक ऐसी घटना के संदर्भ में आया जिसमें कथित रूप से कुछ लोगों को सिर्फ इसलिए हिरासत में लिया गया और निर्वासन की प्रक्रिया शुरू की गई क्योंकि वे बंगाली भाषा बोलते पाए गए थे।
यह मामला देश की विविधतापूर्ण सांस्कृतिक और भाषाई संरचना के लिए अत्यंत संवेदनशील और विचारणीय बन गया है। भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है, जहाँ हर राज्य की अपनी भाषाई पहचान है। ऐसे में यदि कोई व्यक्ति अपनी मातृभाषा के कारण भेदभाव या दंड का शिकार होता है, तो यह न केवल संवैधानिक मूल्यों के विरुद्ध है, बल्कि राष्ट्रीय एकता की भावना को भी ठेस पहुँचाता है।
घटना की पृष्ठभूमि
रिपोर्ट्स के अनुसार, कुछ व्यक्तियों को, जो बंगाली भाषा बोलते पाए गए, गैरकानूनी प्रवासी मानते हुए आव्रजन विभाग द्वारा हिरासत में लिया गया। इनकी राष्ट्रीयता पर संदेह जताया गया और निर्वासन की प्रक्रिया शुरू की गई। जब यह मामला हाईकोर्ट में पहुँचा, तब राज्य सरकार ने इसपर तीव्र आपत्ति दर्ज कराई और इसे ‘भाषा के आधार पर भेदभाव का निंदनीय उदाहरण’ करार दिया।
सरकार की ओर से प्रस्तुत अधिवक्ता ने कोर्ट में कहा कि कोई व्यक्ति बंगाली बोलता है, इसका मतलब यह नहीं कि वह विदेशी है। बंगाली भाषा न केवल पश्चिम बंगाल बल्कि भारत के कई हिस्सों में बोली जाती है, और यह भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में मान्यता प्राप्त भाषा है।
संवैधानिक दृष्टिकोण
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 19 (स्वतंत्रता का अधिकार) यह सुनिश्चित करता है कि भारत के किसी भी नागरिक के साथ भाषा, जाति, धर्म या क्षेत्र के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। बंगाली बोलने के कारण किसी की नागरिकता पर संदेह करना न केवल कानून की गलत व्याख्या है, बल्कि यह एक खतरनाक प्रवृत्ति को जन्म दे सकता है, जिससे अन्य भाषी समूहों के अधिकारों को भी खतरा हो सकता है।
पश्चिम बंगाल सरकार की प्रतिक्रिया
राज्य सरकार ने यह भी कहा कि वह अपने नागरिकों के भाषाई और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है, और यदि किसी व्यक्ति के साथ भाषा के आधार पर अन्याय हुआ है, तो राज्य सरकार इसे बर्दाश्त नहीं करेगी। उन्होंने यह भी कहा कि केंद्र और राज्य एजेंसियों को ऐसे मामलों में अत्यंत संवेदनशील और जिम्मेदार रवैया अपनाना चाहिए, ताकि निर्दोष नागरिकों को परेशानी का सामना न करना पड़े।
हाईकोर्ट की टिप्पणी
कलकत्ता उच्च न्यायालय ने इस विषय को गंभीरता से लेते हुए मामले की विस्तृत जांच के निर्देश दिए। अदालत ने कहा कि किसी भी निर्वासन प्रक्रिया में केवल भाषा को आधार नहीं बनाया जा सकता, और प्रत्येक व्यक्ति को न्यायसंगत प्रक्रिया के तहत सुनवाई का अधिकार है।
व्यापक सामाजिक संदेश
यह मामला भारत के उस बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक ताने-बाने की याद दिलाता है जिसकी नींव पर देश की एकता टिकी है। यदि भाषा के आधार पर नागरिकों की पहचान पर सवाल उठाया जाता है, तो यह देश की लोकतांत्रिक भावना को आघात पहुँचाने वाला कार्य होगा।
निष्कर्षतः, बंगाली भाषा बोलने के कारण नागरिकों को निर्वासित करने की प्रवृत्ति न केवल निंदनीय है बल्कि संविधान के खिलाफ है। पश्चिम बंगाल सरकार का यह रुख कि ‘भाषा न पहचान का मापदंड है और न ही अपराध’, एक सशक्त संदेश है। यह मुद्दा केवल बंगाली भाषियों का नहीं, बल्कि हर भारतीय नागरिक का है जो अपनी मातृभाषा के साथ सम्मान के साथ जीना चाहता है। देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए हमें ऐसी प्रवृत्तियों का विरोध करना ही होगा जो भाषाई पहचान को संदेह की दृष्टि से देखती हैं।