IndianLawNotes.com

“फिल्म कल्पना है, हकीकत नहीं” — शाहबानो की बेटी की याचिका पर मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय का बड़ा निर्णय: ‘हक’ फिल्म की रिलीज़ पर रोक से इंकार

“फिल्म कल्पना है, हकीकत नहीं” — शाहबानो की बेटी की याचिका पर मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय का बड़ा निर्णय: ‘हक’ फिल्म की रिलीज़ पर रोक से इंकार

भारतीय न्यायपालिका ने एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Expression) के पक्ष में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने हाल ही में “Haq” नामक फिल्म की रिलीज़ पर रोक लगाने से इंकार करते हुए यह स्पष्ट किया कि “फिल्म एक कल्पना है, वास्तविक घटना नहीं।” यह निर्णय उस समय आया जब प्रसिद्ध शाहबानो केस की बेटी ने अदालत में याचिका दायर कर कहा कि यह फिल्म उनकी मां की कहानी पर आधारित है और इससे परिवार की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचेगी।

न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि जब तक किसी फिल्म में सीधे तौर पर किसी व्यक्ति का नाम, पहचान या स्पष्ट संदर्भ न दिया गया हो, तब तक मात्र समान परिस्थितियों या घटनाओं का चित्रण “निजता के अधिकार” का उल्लंघन नहीं माना जा सकता। यह फैसला न केवल सिनेमा और रचनात्मक स्वतंत्रता के दायरे को परिभाषित करता है, बल्कि यह भी बताता है कि न्यायालय किस प्रकार व्यक्ति की प्रतिष्ठा और कलात्मक स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश कर रहा है।


🔹 शाहबानो केस की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

इस विवाद को समझने के लिए 1985 के सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक “Mohd. Ahmed Khan vs Shah Bano Begum” मामले को याद करना आवश्यक है। शाहबानो, जो इंदौर की निवासी थीं, को उनके पति ने तीन तलाक देकर छोड़ दिया था। उन्होंने Criminal Procedure Code (CrPC) की धारा 125 के तहत गुज़ारा भत्ता (maintenance) की मांग की थी।

सुप्रीम कोर्ट ने उनके पक्ष में निर्णय देते हुए कहा था कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला को भी भरण-पोषण का अधिकार है, चाहे धार्मिक कानून कुछ भी कहे। यह निर्णय उस समय एक बड़ा सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा बन गया था, जिसके परिणामस्वरूप Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act, 1986 पारित किया गया।

यही केस वर्षों बाद भी धार्मिक, सामाजिक और नारी अधिकारों की बहस का केंद्र बना हुआ है। इसी पृष्ठभूमि में ‘Haq’ फिल्म बनाई गई, जो कथित तौर पर शाहबानो के जीवन से प्रेरित बताई गई।


🔹 याचिका का तर्क: प्रतिष्ठा और निजता का उल्लंघन

शाहबानो की बेटी ने मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में यह कहते हुए याचिका दायर की कि ‘Haq’ फिल्म उनकी मां की वास्तविक जीवन घटना पर आधारित है और इससे परिवार की भावनाएं आहत होंगी। उनका कहना था कि फिल्म में दिखाए गए कुछ दृश्य और संवाद मानहानिकारक हैं तथा इससे जनता में गलत संदेश जाएगा कि यह उनके परिवार की वास्तविक कहानी है।

उन्होंने यह भी दावा किया कि फिल्म निर्माता ने किसी भी प्रकार की अनुमति या सहमति परिवार से नहीं ली है, और यह निजता के अधिकार (Right to Privacy) तथा मानहानि के अधिकार (Right to Reputation) का उल्लंघन है।


🔹 निर्माता का पक्ष: “फिल्म काल्पनिक है”

फिल्म के निर्माताओं ने अदालत में यह स्पष्ट किया कि ‘Haq’ पूरी तरह काल्पनिक रचना (work of fiction) है। उनका कहना था कि यह किसी व्यक्ति या घटना पर आधारित नहीं है, बल्कि यह “सामाजिक न्याय और महिला अधिकारों” पर केंद्रित एक सामान्य कथा है।

उन्होंने यह भी कहा कि फिल्म में किसी का नाम, पहचान, पता या परिवार का सीधा संदर्भ नहीं दिया गया है। इसलिए किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचने का सवाल ही नहीं उठता। साथ ही उन्होंने यह भी दलील दी कि यदि हर फिल्म पर इस प्रकार की रोक लगाई जाने लगे, तो रचनात्मक स्वतंत्रता समाप्त हो जाएगी।


🔹 न्यायालय की सुनवाई और तर्क

मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति (Justice) ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद कहा कि अदालत किसी भी कला कृति को सेंसर बोर्ड का विकल्प नहीं बन सकती। यदि फिल्म को पहले ही Central Board of Film Certification (CBFC) से प्रमाणपत्र प्राप्त हो चुका है, तो यह मान लिया जाता है कि वह सार्वजनिक प्रदर्शन के योग्य है।

न्यायालय ने कहा कि —

“फिल्म एक काल्पनिक रचना होती है, जो समाज में प्रचलित मुद्दों को दर्शाने का माध्यम है। इसे वास्तविक घटनाओं से जोड़कर देखना अनुचित है, जब तक कि उसमें किसी व्यक्ति की स्पष्ट पहचान या संदर्भ न हो।”

अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि फिल्में समाज का दर्पण होती हैं। उन्हें रोकना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Article 19(1)(a)) पर अनुचित अंकुश होगा।


🔹 निजता और अभिव्यक्ति के अधिकार में संतुलन

भारत का संविधान एक ओर प्रत्येक व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है, वहीं दूसरी ओर निजता और प्रतिष्ठा के अधिकार की भी रक्षा करता है। न्यायालयों का कार्य इन दोनों के बीच संतुलन स्थापित करना है।

हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने K.S. Puttaswamy v. Union of India (2017) मामले में निजता को मौलिक अधिकार माना है। लेकिन न्यायालय ने यह भी कहा है कि निजता का अधिकार पूर्ण नहीं है; यह तभी सीमित किया जा सकता है जब कोई सार्वजनिक हित या वैध उद्देश्य जुड़ा हो।

‘Haq’ फिल्म के मामले में अदालत ने माना कि चूंकि फिल्म किसी व्यक्ति की पहचान को सीधे प्रभावित नहीं करती, और इसका विषय सामाजिक सुधार है, इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।


🔹 सिनेमा की भूमिका: समाज का दर्पण या विवाद का कारण?

भारतीय सिनेमा हमेशा से समाज के प्रतिबिंब के रूप में देखा गया है। चाहे “आर्टिकल 15”, “पिंक”, “थप्पड़” या “द कश्मीर फाइल्स” जैसी फिल्में हों — ये सभी सामाजिक मुद्दों को कलात्मक रूप में प्रस्तुत करती हैं।

‘Haq’ फिल्म भी इसी श्रेणी में आती है। यह महिला अधिकारों, न्याय और धार्मिक सीमाओं से परे समानता की बात करती है। लेकिन हर बार जब कोई फिल्म किसी ऐतिहासिक या वास्तविक घटना से प्रेरणा लेती है, तब यह विवाद का विषय बन जाती है।

न्यायालय का यह निर्णय बताता है कि लोकतांत्रिक समाज में कला को इतना स्वतंत्र होना चाहिए कि वह सामाजिक मुद्दों पर खुलकर चर्चा कर सके।


🔹 सेंसर बोर्ड की भूमिका

फिल्म प्रमाणन के लिए भारत में CBFC (Central Board of Film Certification) की व्यवस्था है। जब एक फिल्म सेंसर बोर्ड से “U” या “A” सर्टिफिकेट प्राप्त कर लेती है, तब यह माना जाता है कि उसने कानून द्वारा निर्धारित मानकों का पालन किया है।

न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि यदि कोई व्यक्ति इस प्रमाणपत्र के बाद फिल्म पर आपत्ति करता है, तो उसे ठोस प्रमाण देने होंगे कि फिल्म उसकी पहचान को नुकसान पहुंचा रही है। केवल अनुमान या समानता के आधार पर फिल्म पर रोक नहीं लगाई जा सकती।


🔹 न्यायालय का निर्णय

मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि —

“फिल्म ‘Haq’ एक कल्पना है। यह किसी व्यक्ति की वास्तविक जीवन कथा नहीं है। महज समानता या सामाजिक प्रसंग को आधार बनाकर इसे प्रतिबंधित करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा।”

इस प्रकार, अदालत ने याचिका खारिज करते हुए फिल्म की रिलीज़ पर रोक लगाने से इंकार कर दिया। साथ ही यह भी कहा कि यदि किसी व्यक्ति को लगता है कि फिल्म में उसकी मानहानि हुई है, तो वह अलग से सिविल या क्रिमिनल प्रक्रिया के तहत मानहानि का मुकदमा दायर कर सकता है, परंतु रिलीज़ को रोकना समाधान नहीं है।


🔹 व्यापक प्रभाव

यह निर्णय केवल ‘Haq’ फिल्म तक सीमित नहीं है। यह आने वाले समय में उन सभी रचनाओं के लिए मिसाल बनेगा जो सामाजिक या धार्मिक संवेदनशीलता से जुड़े मुद्दों को छूती हैं।

न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि —

  • कला और फिल्म अभिव्यक्ति का माध्यम हैं।
  • अदालतें सेंसर बोर्ड का विकल्प नहीं हो सकतीं।
  • जब तक फिल्म में किसी व्यक्ति की पहचान स्पष्ट रूप से नहीं दिखाई गई, तब तक रोक असंवैधानिक होगी।

यह फैसला कलाकारों, लेखकों और निर्देशकों के लिए एक राहत के रूप में देखा जा रहा है।


🔹 आलोचना और समर्थन

जहां एक ओर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर इस फैसले का स्वागत कर रहे हैं, वहीं कुछ लोगों का मत है कि इससे “वास्तविक पीड़ितों” की भावनाओं की उपेक्षा होती है। उनका कहना है कि फिल्म निर्माता अकसर “सच्ची घटनाओं से प्रेरित” कहकर लोगों की व्यक्तिगत कहानियों का व्यावसायिक उपयोग करते हैं।

हालांकि अदालत ने यह स्पष्ट किया है कि यदि कोई फिल्म वास्तव में झूठे आरोप लगाती है या किसी की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाती है, तो कानूनी उपचार का रास्ता खुला है। लेकिन रचनात्मकता पर अग्रिम रोक लगाना संविधान की भावना के विरुद्ध है।


🔹 निष्कर्ष

मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की दिशा में एक मजबूत कदम है। इसने यह सिद्ध किया कि सिनेमा समाज का आईना है, जिसे प्रतिबंधों से ढकना उचित नहीं।

‘Haq’ फिल्म का विवाद केवल एक फिल्म का मामला नहीं, बल्कि यह उस मूल प्रश्न का उत्तर है कि — क्या कला को स्वतंत्र रूप से सामाजिक मुद्दों पर बोलने का अधिकार है, भले ही वह किसी वास्तविक घटना से प्रेरित क्यों न हो?

अदालत ने अपने विवेक से यह स्पष्ट किया है कि “फिल्म कल्पना है, हकीकत नहीं।
और जब तक वह किसी की पहचान को सीधे चोट नहीं पहुँचाती, तब तक उसे रोकना अभिव्यक्ति की हत्या होगी।

इस फैसले ने भारतीय न्यायपालिका की उस परंपरा को मजबूत किया है जो सृजनात्मक स्वतंत्रता को लोकतंत्र का आधार मानती है — जहाँ न्याय केवल कानून की व्याख्या नहीं, बल्कि विचारों की स्वतंत्रता का संरक्षण भी है।