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“फर्जी गिरफ्तारी और ऑनलाइन ठगी पर सुप्रीम कोर्ट की बड़ी पहल: अब CBI करेगी राष्ट्रीय स्तर की जांच”

“समग्र दृष्टि: ‘डिजिटल अरेस्ट’ स्कैम—Supreme Court of India का प्रस्ताव-केंद्रित कदम और चुनौतियाँ”


प्रस्तावित हस्तक्षेप की पृष्ठभूमि

हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने ‘डिजिटल अरेस्ट’ स्कैम (digital arrest scam) की तेजी से बढ़ती घटनाओं को देखते हुए अपनी संवेदनशीलता व्यक्त की है। विशेष रूप से, याचिका के रूप में एक वरिष्ठ नागरिक दम्पति ने हरियाणा (अम्बाला) से यह दावा किया कि उन्हें फर्जी अदालत-आदेशों, पुलिस व न्यायिक अधिकारी का रूप धारण करके ऑनलाइन धमकियों के माध्यम से करोड़ों रुपये से वंचित किया गया।
इसे देखते हुए, उस बेन्च — न्यायमूर्ति Surya Kant एवं न्यायमूर्ति Joymalya Bagchi की — ने इस प्रकार के स्कैम की जांच केंद्रीय एजेंसी Central Bureau of Investigation (CBI) को सौंपने का संभावित प्रस्ताव रखा है।
सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों और संघ-शासित क्षेत्रों को नोटिस जारी किया है कि वे अपनी-अपनी अधिकार-क्षेत्र में दर्ज ‘डिजिटल अरेस्ट’ स्कैम से संबंधित FIRs व अन्य विवरण प्रस्तुत करें।


‘डिजिटल अरेस्ट’ स्कैम: स्वरूप एवं कारण

स्वरूप

‘डिजिटल अरेस्ट’ स्कैम में आमतौर पर निम्नलिखित तंत्र देखने को मिलता है:

  • अपराधी समूह (भारतीय या विदेश-आधारित) सीधे या सोशल मीडिया/व्हाट्सएप कॉल के माध्यम से एक व्यक्ति से संपर्क करते हैं।
  • विरोधी पक्ष पक्ष को बताते हैं कि उन पर कोई बड़ा अपराध (धनशोधन, नशीला पदार्थ, गलत पासपोर्ट इत्यादि) चल रहा है, और उन्हें गिरफ्तार किया जाना है — इसमें न्यायालय या पुलिस अधिकारी का रूप लिया जाता है।
  • वे फर्जी अदालत-आदेश, न्यायिक पत्र, पुलिस नोटिस आदि दिखाते हैं — जिनमें उच्च न्यायलय जैसे नाम या लोगो होते हैं, ताकि पीड़ित का विश्वास टूट जाए।
  • पीड़ित को कहा जाता है कि यदि आप तत्काल राशि ट्रांसफर नहीं करेंगे, तो आप गिरफ्तारी, संपत्ति जब्ती आदि का सामना करेंगे। तार-टेलिफोन कॉल व वीडियोकॉल में डराने-धमकाने का माहौल बनाया जाता है।
  • राशि प्राप्त करने के बाद पैसे को मनी मूल्यन, क्रिप्टो में बदलकर या विदेशों में ट्रांसफर करके वस्तुतः धुलाई की जाती है।

कारण व प्रेरक कारक

  • साइबर तकनीक के व्यापक उपयोग ने अपराधियों को सहज रूप से दूर-से काम करने का अवसर दिया है।
  • जालसाजी-उपकरण (फर्जी आदेश, व्हाट्सएप वीडियो कॉल, पहचान-छल) सस्ता और प्रभावी साबित हुआ है।
  • पीड़ित आमतौर पर बुजुर्ग, अनुभवहीन इंटरनेट-उपयोगकर्ता या वित्तीय निर्णय-संचालन में सहज नहीं लोग होते हैं, जिन्हें डराया-धमकाया जा सकता है।
  • यह क्राइम नेटवर्क अक्सर अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर संचालित होता है—जिससे राज्य-पुलिस अथवा स्थानीय एजेंसियाँ अकेले हार सकती हैं। न्यायालय ने विशेष रूप से यह कारण उद्धृत किया है कि ये नेटवर्क “पैन-इंडिया या फिर सीमा से परे” हैं।

न्यायालय की चिंताएँ एवं प्रस्ताव

चिंताएँ

  • न्यायालय ने कहा है कि इस तरह के अपराध “अभेद्य” अथवा सीमित राज्य-क्षेत्र में नहीं हैं, बल्कि पूरे देश में फैले हैं — इसलिए राज्य-पुलिसों द्वारा अलग-अलग खर्च व प्रयास करना असंगत प्रतीत होता है।
  • यह भी ध्यान दिया गया कि ऐसी घटनाएँ न्याय-प्रति, न्यायालय एवं पुलिस सिस्टम की विश्वसनीयता को प्रभावित कर रही हैं—क्योंकि फर्जी आदेशों व गिरफ्तारी की धमकियों से आम नागरिकों में डर व अविश्वास बढ़ रहा है।
  • न्यायालय ने CBI से पूछा है कि यदि सारे मामलों को केंद्र-एजेंसी के पास भेजा जाए, तो क्या पर्याप्त मानव-साधन, तकनीकी विशेषज्ञता एवं अवसंरचना है?

प्रस्ताव

  • सुप्रीम कोर्ट ने संकेत दिया है कि सभी राज्यों/संघ-शासित областों में दर्ज ‘डिजिटल अरेस्ट’ स्कैम संबंधी FIRs तथा जांचाधीन मामलों को CBI को स्थानांतरित करने पर वे विचार कर रहे हैं।
  • साथ ही, CBI को निर्देश दिए गए हैं कि वे एक समग्र “जांच योजना” प्रस्तुत करें, जिसमें साइबर, वित्तीय, मानव (मानव-शोषण) पहलुओं की समन्वित जाँच शामिल हो।
  • states/UTs को आदेश दिया गया है कि वे अपने-अपने क्षेत्र में इस तरह के मामलों की जानकारी सुप्रीम कोर्ट को उपलब्ध कराएं।
  • अगली सुनवाई 3 नवम्बर 2025 को निर्धारित की गई है, जिसमें CBI की प्रस्तुति व राज्यों के उत्तरों पर आगे विचार होगा।

क्यों केंद्र-एजेंसी-तंत्र उपयुक्त माना गया?

केन्द्र में इस प्रस्ताव के पीछे कुछ स्पष्ट तर्क मौजूद हैं:

  1. पैन-इंडिया/सीमा-पार आपूर्ति: चूंकि अपराध सिर्फ एक राज्य-क्षेत्र तक सीमित नहीं हैं, बल्कि ‘मल्टी-स्टेट’ एवं ‘ओवरसीज’ नेटवर्क से संचालित हैं, इसलिए केंद्रीकृत एजेंसी द्वारा समन्वित कार्रवाई बेहतर है।
  2. सामाजिक एवं तकनीकी विशेषज्ञता: साइबर अपराध में तकनीकी जाँच, बैंक ट्रांज़ैक्शन-ट्रेल, विदेशी सर्वर-लिंक, कॉम्प्लेक्स मनी-लॉन्ड्रिंग आदि शामिल होते हैं—ऐसी जाँच में अनुभव एवं संसाधन की आवश्यकता है जो सभी राज्य-पुलिस के पास न हो।
  3. न्याय-विश्वास की रक्षा: जब सामान्य नागरिक त्यो धोखे का शिकार होते हैं, और उनके सामने ‘न्यायालय की फर्जी कार्यवाही’ की डरावनी कहानी आती है, तो इसे व्यापक रूप से देखने-सुनने-समझने की आवश्यकता है, जिससे न्याय-संस्था की प्रतिष्ठा बनी रहे।
  4. समन्वित ट्रेन-अप एवं सीख-विस्तार: एक केन्द्र-एजेंसी इस तरह के मामलों से नियमित निपटने के अनुभव को इकट्ठा कर सकती है, राज्यों को मार्गदर्शन दे सकती है, और पुनरावृत्ति को रोक सकती है।

लाभ एवं संभावित सकारात्मक प्रभाव

  • प्रभावी जाँच एवं आरोप-स्थापन: जब एक समेकित एजेंसी जाँच करेगी, तो डेटा-शेयरिंग, मोनेटरी-ट्रैकिंग, बैंक एवं साइबर सर्वर इंटेलिजेंस एक स्थान पर होगी, जिससे आरोप-स्थापन की गति बढ़ सकती है।
  • दोबारा-हत्या कम होगी: ऐसे स्कैम घटक जिनमें विदेशीय नेटवर्क, मनी मूलयकरण व बहु-मूल्यवित ट्रांसफर शामिल हैं — केंद्र-एजेंसी इसका बेहतर सामना कर सकती है।
  • निवारक कार्रवाई एवं जागरूकता: प्रमुख केंद्रीय निर्देश राज्य-स्तर पर जागरूकता अभियानों एवं सावधानी-सूचनाओं को तेजी से फैला सकते हैं।
  • न्याय-विश्वास का पुनरुद्धार: जब शीर्ष न्यायालय सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करता है, तो इससे आम नागरिक को एक संकेत मिलता है कि धोखाधड़ी-पर “बड़ा कदम” उठाया जा रहा है, जिससे भय और असमर्थता की भावना कम हो सकती है।

चुनौतियाँ एवं सावधानी-सूत्र

हालाँकि प्रस्तावित हस्तक्षेप के लाभ स्पष्ट हैं, पर इसके समक्ष कई चुनौतियाँ भी मौजूद हैं:

  • संसाधन-अभाव: सुप्रीम कोर्ट ने खुद प्रश्न उठाया है कि CBI के पास पर्याप्त तकनीकी-मानव संसाधन एवं साइबर एक्सपर्ट्स हैं या नहीं।
  • राज्य-एजेंसी सहकारिता: राज्यों को FIRs और अन्य विवरण साझा करना होगा; यदि राज्य सहयोग न करें या डेटा अधूरा हो, तो समन्वित कार्रवाई में रुकावट होगी।
  • कानूनी अधिकार एवं केंद्र-राज्य शक्तियाँ: भारत में अपराध अनुसंधान के विषय में राज्य-पुलिस की भूमिका प्रचलित है; सीबीआई का हस्तक्षेप तभी संभव है जब राज्य ने अनुमति दी हो या मामला संवैधानिक रूप से केंद्र-एजेंसी के अधीन हो। कुछ राज्यों ने पहले से ही सीबीआई की जांच के लिए सामान्य सहमति वापस ली है।
  • अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क-परिस्थितियाँ: यदि अपराधी विदेशों से संचालित हो रहे हैं तो भारतीय एजेंसियों को विदेश सरकारों, इंटरपोल, बैंकिंग-सिस्टम के साथ सहयोग करना पड़ेगा। यह जटिल और समय-साध्य हो सकता है।
  • जागरूकता का अभाव: पीड़ित अक्सर डर-शोषित होते हैं, इसलिए उन्हें ही तुरंत जांच-प्रपत्र भरने या पुलिस से सम्पर्क करने में देरी हो जाती है; समय-बर्बादी जाँच को कठिन बना सकती है।
  • साइबर डेटा की सुरक्षा व गोपनीयता: जाँच में बैंक, सर्वर, व्यक्तिगत कॉल-डेटा आदि का उपयोग होगा — इसे निजता-कानून व साइबर-विधि के अनुरूप करना होगा।

आगे की दिशा एवं सुझाव

  1. डेटा समेकन प्लेटफार्म: राज्य व केन्द्र द्वारा एक राष्ट्रीय पोर्टल स्थापित किया जाना चाहिए जहाँ ‘डिजिटल अरेस्ट’ से जुड़े FIRs, मोनेटरी ट्रांसफर डेटा, साइबर सर्वर लिंक-इंटेलिजेंस आदि एकीकृत हों।
  2. मानव-शिक्षण एवं साइबर एक्सपर्ट नेटवर्क: CBI के पास पर्याप्त संख्या में साइबर-विशेषज्ञ रखने के साथ-साथ राज्यों के साइबर पुलिस यूनिट्स को निरंतर प्रशिक्षण देना ज़रूरी है।
  3. जागरूकता-अभियान: लक्षित समूह जैसे वृध्द नागरिक, सरल बैंकिंग उपभोक्ता व डिजिटल-नवोदित उपयोगकर्ता के लिए ‘डिजिटल अरेस्ट’ स्कैम की पहचान, बचाव उपाय व शिकायत-प्रक्रिया पर व्यापक सूचना अभियान चलाना चाहिए।
  4. राज्य-केंद्र समन्वय मेमोरेंडम: प्रत्येक राज्य के गृह-विभाग, साइबर क्राइम शाखा, बैंकिंग नियामक एजेंसियाँ व CBI के बीच MoU या समझौते होने चाहिए, ताकि केस ट्रांसफर, सूचना-शेयरिंग व कार्रवाई तेजी से हो सके।
  5. विदेशी भागीदारी व ट्रैकिंग: विदेशों में स्थित ‘स्कैम कंपाउंड्स’ व मनी-मूल्यन नेटवर्क तक पहुँचने हेतु विदेश मंत्रालय, इंटरपोल, अन्य देशों की साइबर एजेंसियों के साथ समन्वय बढ़ाना होगा।
  6. नियमित मूल्यांकन-मेकैनिज्म: सुप्रीम कोर्ट द्वारा CBI की प्रगति पर नियमित निगरानी व समीक्षा होनी चाहिए — जैसे कि प्रत्येक ६-महीने में प्रगति रिपोर्ट, संख्या-परिणाम-चिंता आदि। न्यायमूर्ति ने स्वयं यह बात कही है कि वे CBI के काम को मॉनिटर करेंगे।

निष्कर्ष

डिजिटल युग में अपराध का स्वरूप तेजी से बदल रहा है — अब ‘वर्चुअल गिरफ्तारी’, फर्जी न्याय आदेश और साइबर-धोखाधड़ी नए रूप ले चुके हैं। इस परिदृश्य में, सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक केन्द्रीय समन्वित जाँच तंत्र के निर्माण का प्रस्ताव महत्वपूर्ण एवं समयोचित है। यदि सही तरह से लागू हुआ, तो यह प्रस्ताव न सिर्फ अनगिनत नागरिकों को इस भयावह स्कैम से बचा सकता है बल्कि न्यायप्रणाली और कानून-व्यवस्था की विश्वसनीयता को भी पुनर्स्थापित कर सकता है।

हालाँकि, प्रस्ताव की सफलता राज्य-एजेंसियों, बैंकिंग-सिस्टम, साइबर विशेषज्ञों तथा सार्वजनिक जागरूकता पर निर्भर करेगी। इसके लिए निरंतर संसाधन, समन्वित सहयोग एवं तकनीकी क्षमता उतनी ही आवश्यक है जितनी कि कानूनी अधिकारों का सही उपयोग।

इस प्रकार, यह प्रस्ताव सिर्फ एक जाँच-योजना नहीं बल्कि देशव्यापी साइबर-सुरक्षा, न्याय-विश्वास और नागरिक-सुरक्षा के लिए एक संकेत-प्रक्रम है। इस दिशा में उठाया गया कदम सफल हो सके, इसके लिए विधिक, संवैधानिक, तकनीकी व संगठनात्मक स्तर पर अभी कई काम शेष हैं।