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“फर्जी अकाउंट की सार्वजनिक पहुँच मानहानि कानून में ‘प्रकाशन’ की शर्त को पूरा करती है” : कर्नाटक हाईकोर्ट

“फर्जी अकाउंट की सार्वजनिक पहुँच मानहानि कानून में ‘प्रकाशन’ की शर्त को पूरा करती है” : कर्नाटक हाईकोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय

भूमिका

        मानहानि (Defamation) भारतीय दंड संहिता की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणाओं में से एक है, जिसमें किसी व्यक्ति के सम्मान, प्रतिष्ठा और छवि को ठेस पहुँचाने वाले झूठे आरोपों या कथनों पर दायित्व तय होता है। IPC की धारा 499 मानहानि की परिभाषा निर्धारित करती है, जबकि धारा 500 इसके लिए दंड का प्रावधान देती है। डिजिटल युग में मानहानि के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं, विशेषकर सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म जैसे—Facebook, Instagram, X (Twitter), YouTube—जहाँ फर्जी अकाउंट बनाकर किसी की छवि को नुकसान पहुँचाना बेहद आसान हो गया है।

हाल ही में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण और दूरगामी प्रभाव वाला निर्णय दिया है, जिसमें कहा गया है कि—

यदि किसी फर्जी अकाउंट (Fake Account) को आम जनता के लिए उपलब्ध रखा गया है, तो यह ‘Publication’ की कानूनी आवश्यकता को पूरा करता है, जो मानहानि कानून का अनिवार्य तत्व है।

यह निर्णय मानहानि मामलों की प्रकृति, डिजिटल अपराधों, और सोशल मीडिया जिम्मेदारी पर गहरा प्रभाव डालता है। इस लेख में हम पूरे फैसले को विस्तार से समझेंगे।


पृष्ठभूमि : मामला क्या था?

मामले के संक्षिप्त तथ्यों के अनुसार—

  • आरोपी पर आरोप था कि उसने एक फर्जी सोशल मीडिया अकाउंट बनाकर शिकायतकर्ता के बारे में अपमानजनक व झूठे संदेश प्रसारित किए।
  • शिकायतकर्ता ने इसके आधार पर IPC की धारा 499/500 (मानहानि) और आईटी अधिनियम के प्रासंगिक प्रावधानों के तहत कार्यवाही प्रारंभ की।
  • आरोपी ने दलील दी कि उसकी ओर से कोई ‘Publication’ नहीं हुआ, क्योंकि कथित पोस्ट बहुत कम लोगों तक पहुँची या किसी विशेष व्यक्ति को लक्षित नहीं किया गया।
  • आरोपी का तर्क था कि फर्जी अकाउंट का अस्तित्व मात्र ‘प्रकाशन’ नहीं माना जा सकता, जब तक कि यह सिद्ध न हो कि किसी विशेष व्यक्ति ने उन पोस्ट को पढ़ा।

ट्रायल कोर्ट ने मामला आगे बढ़ाने की अनुमति दी।
इसके खिलाफ आरोपी ने कर्नाटक हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की


मुख्य प्रश्न : क्या फर्जी अकाउंट की सार्वजनिक उपलब्धता ‘Publication’ मानी जाएगी?

मानहानि कानून में ‘प्रकाशन’ (Publication) का मतलब है—

किसी तीसरे व्यक्ति तक ऐसा सामग्री पहुँचना, जो शिकायतकर्ता की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचा सके।

यह तत्व अनिवार्य है। यदि प्रकाशन सिद्ध नहीं होता, तो मामला मानहानि नहीं बनता।

याचिकाकर्ता का मुख्य तर्क था—

  • केवल एक फर्जी अकाउंट बनाना और उस पर कुछ लिख देना ‘Publication’ नहीं है।
  • जब तक यह सिद्ध न हो कि पोस्ट किसी तीसरे व्यक्ति ने पढ़ी, तब तक अपराध पूरा नहीं होता।

हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्णय

कर्नाटक हाईकोर्ट ने इन तर्कों को अस्वीकार करते हुए कहा—

1. फर्जी अकाउंट का सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होना ही ‘Publication’ है

न्यायालय ने माना कि—

  • सोशल मीडिया एक ओपन पब्लिक प्लेटफ़ॉर्म है।
  • यदि कोई अकाउंट Public Mode पर है, न कि Private,
    तो कोई भी व्यक्ति सामग्री देख सकता है।

इसलिए:

ऐसे अकाउंट पर की गई अपमानजनक पोस्ट अपनेआप में ‘Publication’ मानी जाएंगी, भले ही यह सिद्ध न हो कि कितने लोगों ने पोस्ट पढ़ी।

यह डिजिटल मानहानि को देखने का आधुनिक दृष्टिकोण है।


2. मानहानि के लिए संख्या साबित करना आवश्यक नहीं

अदालत ने साफ किया:

  • IPC धारा 499 में यह नहीं कहा गया है कि कितने लोगों ने मानहानिकारक सामग्री पढ़ी, इसका प्रमाण जरूरी है।
  • यदि सामग्री सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है और किसी अन्य व्यक्ति द्वारा पढ़े जाने की संभावना है—

तो यह पर्याप्त है कि ‘प्रकाशन’ हुआ।


3. फर्जी अकाउंट बनाने का मकसद ही संकेत देता है कि अपमान का उद्देश्य था

अदालत ने यह भी कहा—

  • फर्जी अकाउंट बनाना अपने आप में “मालिस (Malice)” का संकेत देता है।
  • यह उद्देश्य बताता है कि व्यक्ति पहचान छुपाकर दूसरे को नुकसान पहुँचाना चाहता था।

इसलिए:

फर्जी अकाउंट डिजिटल मंच पर मानहानि के गंभीर रूप का प्रतिनिधित्व करता है।


4. सोशल मीडिया मंच ‘पब्लिक स्पेस’ है

अदालत ने स्पष्ट किया—

  • यह बहस अब अप्रासंगिक है कि सोशल मीडिया पर कितने लोग सामग्री देखते हैं।
  • डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म वैश्विक पहुँच प्रदान करते हैं।
  • पोस्ट को देखने वाले व्यक्तियों की संख्या बाद की बात है,
    वह ‘प्रकाशन’ की शर्त को प्रभावित नहीं करती।

फैसले का कानूनी महत्व

1. डिजिटल युग का नया मानदंड

यह निर्णय बताता है कि कानून तकनीकी वास्तविकताओं के अनुसार आगे बढ़ रहा है।
अब अदालतें डिजिटल संदर्भ में ‘Publication’ को अधिक व्यापक और आधुनिक दृष्टिकोण से देखेंगी।


2. शिकायतकर्ताओं के लिए राहत

ऐसे मामलों में शिकायतकर्ता को यह साबित करने की आवश्यकता नहीं होगी कि—

  • अमुक व्यक्ति ने पोस्ट पढ़ी,
  • कितने लोगों ने पोस्ट को देखा,
  • औसत ‘रीच’ क्या थी।

अब केवल यह दिखाना पर्याप्त होगा कि—

  • अकाउंट पब्लिक था,
  • सामग्री मानहानिकारक थी।

3. आरोपी के लिए दलीलें कमज़ोर

अब आरोपी यह कहकर नहीं बच पाएँगे कि—

  • “पोस्ट पढ़ी ही नहीं गई”
  • “लाइक/कमेंट कम थे”
  • “कोई स्क्रीनशॉट नहीं है”

पब्लिक मोड में पोस्ट का होना ही अपराध को पूर्ण बनाता है।


4. सोशल मीडिया दुरुपयोग पर सख्ती

यह फैसला उन लोगों के लिए चेतावनी है जो फर्जी अकाउंट से—

  • किसी की छवि खराब करते हैं,
  • व्यक्तिगत हमले करते हैं,
  • गलत सूचनाएँ फैलाते हैं।

अदालतों का संदेश स्पष्ट है:

इंटरनेट की गुमनामी आपको कानून से नहीं बचा सकती।


मानहानि कानून का संक्षिप्त विश्लेषण (IPC 499 & 500)

धारा 499 IPC : मानहानि की परिभाषा

मानहानि तब होती है, जब कोई व्यक्ति—

  • शब्दों द्वारा (मौखिक या लिखित),
  • संकेतों द्वारा,
  • दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा,

किसी अन्य के बारे में ऐसा कथन करे,
जो उसकी प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचाए।

मानहानि के आवश्यक तत्व

  1. कथन मानहानिकारक हो
  2. कथन शिकायतकर्ता से संबंधित हो
  3. कथन प्रकाशित हुआ हो
  4. कथन दुर्भावनापूर्वक या बिना उचित कारण किए गए हों

धारा 500 IPC : दंड

दंड –
दो वर्ष तक का कारावास,
या जुर्माना,
या दोनों


डिजिटल मानहानि (Online Defamation) के संदर्भ में यह निर्णय क्यों अत्यंत महत्वपूर्ण है?

1. सोशल मीडिया की ‘वायरल’ प्रकृति

आज एक पोस्ट पलभर में हजारों लोगों तक पहुँच सकती है।
इसलिए:

  • प्रकाशन की अवधारणा को ‘रीच’ के आधार पर नहीं आँका जा सकता।
  • पब्लिक पोस्ट का अस्तित्व ही उसके व्यापक प्रभाव का संकेत है।

2. फर्जी अकाउंट = गुमनामी + दुर्भावना

फर्जी प्रोफाइल आमतौर पर दो उद्देश्यों से बनाए जाते हैं—

  • पहचान छुपाना
  • दूसरों को निशाना बनाना

अदालत ने इसे गंभीर माना।


3. साइबर क्राइम और मानहानि का बढ़ता जुड़ाव

डिजिटल कदाचार अब IPC + IT Act दोनों के तहत दंडनीय है।
इस निर्णय ने इन दोनों क्षेत्रों को और स्पष्ट रूप से जोड़ा है।


फैसले का भविष्य पर प्रभाव

A. पुलिस और अभियोजन के लिए आसानी

अब FIR और चार्जशीट में यह सिद्ध करना पर्याप्त होगा कि—

  • अकाउंट पब्लिक था,
  • पोस्ट अपमानजनक थी।

B. सोशल मीडिया कंपनियों पर अप्रत्यक्ष दायित्व

हालाँकि यह फैसला प्लेटफ़ॉर्म्स पर सीधे दायित्व नहीं डालता,
लेकिन—

  • फर्जी अकाउंट ट्रेसिंग,
  • यूजर वेरीफिकेशन,
  • अनैतिक गतिविधियों की रिपोर्टिंग

इन्हें मज़बूत करने की जरूरत और बढ़ गई है।


C. डिजिटल युग में निजता और प्रतिष्ठा का संतुलन

यह फैसला बताता है कि—

अदालतें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Article 19(1)(a)) और
व्यक्ति की प्रतिष्ठा (Article 21)
दोनों का संतुलन बनाए रखने के पक्ष में हैं।


निष्कर्ष : डिजिटल मानहानि पर कड़ा संदेश

कर्नाटक हाईकोर्ट का यह निर्णय यह स्पष्ट संदेश देता है कि—

  • सोशल मीडिया पर की गई मानहानि को अदालतें बेहद गंभीरता से लेंगी,
  • फर्जी अकाउंट का बहाना अब नहीं चलेगा,
  • सार्वजनिक रूप से उपलब्ध अपमानजनक सामग्री ‘Publication’ मानी जाएगी,
  • यह मामले आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त आधार है।

डिजिटल दुनिया में प्रतिष्ठा की रक्षा उतनी ही महत्वपूर्ण है,
जितनी वास्तविक दुनिया में।
अदालत ने समय के साथ कदम मिलाते हुए,
इस फैसले से एक मजबूत न्यायिक सिद्धांत स्थापित किया है।