‘प्लीडिंग्स’ (Pleadings) की परिभाषा, उद्देश्य, सिद्धांत एवं संशोधन के नियम
I. प्रस्तावना
दीवानी प्रक्रिया संहिता, 1908 (Civil Procedure Code – CPC) में प्लीडिंग्स का विशेष महत्व है। प्लीडिंग्स वे लिखित बयान (Written Statements) होते हैं, जिनके माध्यम से वाद के पक्षकार अपने दावों, बचाव, तथ्यों एवं विधिक आधारों को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। इनसे न्यायालय को वाद के वास्तविक विवाद (Real Issue) की पहचान करने और निष्पक्ष निर्णय देने में सहायता मिलती है।
II. प्लीडिंग्स की परिभाषा (Definition of Pleadings)
धारा 2(2) CPC में प्रत्यक्ष परिभाषा नहीं दी गई है, परंतु Order VI Rule 1 के अनुसार –
“Pleading shall mean plaint or written statement.”
अर्थात, प्लीडिंग्स का अर्थ है —
(i) वादी द्वारा प्रस्तुत वादपत्र (Plaint)
(ii) प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत लिखित बयान (Written Statement)
न्यायिक दृष्टांत:
- Bachhaj Nahar v. Nilima Mandal, (2008) 17 SCC 491 – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्लीडिंग्स में केवल वही तथ्य लिखे जाने चाहिए, जिन पर वादी या प्रतिवादी अपना दावा या बचाव आधारित करता है, न कि साक्ष्य।
III. प्लीडिंग्स का उद्देश्य (Object of Pleadings)
- वाद की स्पष्टता (Clarity of Issues) – विवाद के मुद्दों को स्पष्ट कर न्यायालय और पक्षकारों को सही दिशा मिलती है।
- न्याय की त्वरित प्रक्रिया (Speedy Trial) – अस्पष्टता कम होने से अनावश्यक विलंब रोका जा सकता है।
- न्यायिक अर्थव्यवस्था (Judicial Economy) – केवल विवादित तथ्यों पर ही साक्ष्य प्रस्तुत किए जाते हैं।
- अप्रत्याशितता से बचाव (Avoidance of Surprise) – विरोधी पक्ष को पहले से पता रहता है कि दूसरे पक्ष का दावा या बचाव क्या है।
- अपील में सुविधा (Ease in Appeals) – लिखित रूप में तथ्यों का रिकॉर्ड भविष्य की अपील या पुनरीक्षण में मदद करता है।
IV. प्लीडिंग्स के सिद्धांत (Principles of Pleadings)
Order VI Rule 2 CPC के अनुसार:
- तथ्य, न कि साक्ष्य (Facts, Not Evidence) – केवल वास्तविक और भौतिक तथ्यों का उल्लेख होना चाहिए; साक्ष्य का विवरण नहीं।
- संक्षिप्तता और स्पष्टता (Conciseness and Clarity) – भाषा सरल और स्पष्ट हो, अनावश्यक विस्तार न हो।
- विवादित और प्रासंगिक तथ्य (Material Facts) – वही तथ्य लिखे जाएं जो विवाद के निपटान के लिए आवश्यक हों।
- कानूनी भाषा में सटीकता (Legal Precision) – आरोप और बचाव विधिक दृष्टि से स्पष्ट हों।
- संगति (Consistency) – वादपत्र और गवाहियों में विरोधाभास न हो।
केस लॉ:
- Virendra Kashinath Ravat v. Vinayak N. Joshi, (1999) 1 SCC 47 – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्लीडिंग्स में ऐसे तथ्यों का उल्लेख आवश्यक है, जिनसे दावा या बचाव सिद्ध हो सके, न कि निष्कर्ष या राय।
V. प्लीडिंग्स में संशोधन (Amendment of Pleadings) – Order VI Rule 17
A. प्रावधान (Provision)
Order VI Rule 17 के अनुसार –
“The Court may at any stage of the proceedings allow either party to alter or amend his pleadings in such manner and on such terms as may be just, and all such amendments shall be made as may be necessary for the purpose of determining the real questions in controversy between the parties.”
अर्थात, न्यायालय किसी भी अवस्था में प्लीडिंग्स में संशोधन की अनुमति दे सकता है, यदि –
- वह विवाद के वास्तविक मुद्दे के निपटान के लिए आवश्यक हो, और
- न्यायालय के लिए उचित और न्यायसंगत हो।
B. संशोधन के सिद्धांत (Principles for Amendment)
- वाद का स्वरूप न बदले (No Change in Nature of Suit)
- संशोधन से वाद की प्रकृति में मौलिक परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
- वास्तविक विवाद का समाधान (Real Controversy Test)
- संशोधन उसी स्थिति में स्वीकार होगा जब यह विवाद के वास्तविक मुद्दे को स्पष्ट करने में मदद करे।
- अनावश्यक विलंब से बचाव (Avoidance of Delay)
- देर से किए गए संशोधन, विशेषकर जब मुकदमा अंतिम चरण में हो, सामान्यतः अस्वीकार किए जाते हैं।
- बुरे इरादे से संशोधन नहीं (No Malafide)
- संशोधन का उद्देश्य मुकदमे में देरी करना या विरोधी पक्ष को नुकसान पहुँचाना नहीं होना चाहिए।
C. 2002 संशोधन का प्रभाव (Impact of 2002 Amendment)
2002 के संशोधन से पहले किसी भी समय संशोधन की अनुमति थी, पर अब वाद के प्रारंभ के बाद यदि सुनवाई शुरू हो चुकी है, तो संशोधन तभी होगा जब –
“Court comes to the conclusion that in spite of due diligence, the party could not have raised the matter before the commencement of trial.”
D. न्यायिक दृष्टांत (Case Laws)
- Revajeetu Builders v. Narayanaswamy, (2009) 10 SCC 84 – सुप्रीम कोर्ट ने संशोधन की अनुमति तय करने के लिए निम्न मानदंड दिए:
- संशोधन आवश्यक है या नहीं?
- क्या यह विवाद के वास्तविक मुद्दे को सुलझाएगा?
- क्या इससे विरोधी पक्ष को अन्यायपूर्ण नुकसान होगा?
- क्या यह वाद की प्रकृति बदल देगा?
- Kailash v. Nanhku, (2005) 4 SCC 480 – संशोधन का उद्देश्य न्याय की सेवा करना है, न कि तकनीकी आधार पर पक्षकार को वंचित करना।
- Baldev Singh v. Manohar Singh, (2006) 6 SCC 498 – प्लीडिंग्स में संशोधन की उदारतापूर्वक अनुमति दी जानी चाहिए, बशर्ते कि इससे विरोधी पक्ष के अधिकारों का गंभीर हनन न हो।
VI. निष्कर्ष
प्लीडिंग्स न्यायिक प्रक्रिया की नींव हैं, जिनके आधार पर विवाद के मुद्दों की पहचान होती है और मुकदमे की दिशा तय होती है। Order VI न केवल इनके प्रारूप और सिद्धांत तय करता है, बल्कि संशोधन का प्रावधान भी देता है ताकि न्यायिक प्रक्रिया वास्तविक विवाद के समाधान पर केंद्रित रह सके।
संशोधन का उद्देश्य न्याय के हित में लचीलापन प्रदान करना है, लेकिन यह किसी पक्ष के साथ अन्याय किए बिना और वाद की प्रकृति बदले बिना ही होना चाहिए। न्यायालयों ने अनेक दृष्टांतों में यह सिद्ध किया है कि प्रक्रिया न्याय की सहायक है, बाधा नहीं, और इसीलिए प्लीडिंग्स एवं उनके संशोधन के प्रावधानों की व्याख्या न्याय के उद्देश्यों के अनुरूप की जानी चाहिए।