“पैसे देकर विशेष पूजा से भगवान का विश्राम भंग करना गलत” सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी, मंदिरों में वीआईपी पूजा संस्कृति पर सवाल
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (15 दिसंबर) को देशभर के मंदिरों में प्रचलित एक विवादास्पद परंपरा पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि धनवान लोगों को पैसे लेकर ‘विशेष पूजा’ (Special Puja) की अनुमति देना, जिससे देवता के विश्राम समय में व्यवधान पड़े, न केवल अनुचित बल्कि धार्मिक मूल्यों के भी विपरीत है। अदालत ने इस प्रवृत्ति को आस्था से अधिक व्यवसायीकरण और विशेषाधिकार की संस्कृति से जोड़ते हुए गंभीर चिंता व्यक्त की।
सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी ऐसे समय में आई है जब मंदिरों में वीआईपी दर्शन, विशेष पूजा और अतिरिक्त शुल्क लेकर समय-सारिणी बदलने की परंपरा लगातार बढ़ती जा रही है। अदालत ने साफ संकेत दिया कि धर्म, पूजा और ईश्वर के समक्ष समानता के सिद्धांत को पैसे के आधार पर कमजोर नहीं किया जा सकता।
मामले की पृष्ठभूमि
यह टिप्पणी एक ऐसे मामले की सुनवाई के दौरान आई, जिसमें मंदिर प्रशासन द्वारा कुछ श्रद्धालुओं को अतिरिक्त शुल्क लेकर विशेष पूजा या विशेष दर्शन की अनुमति देने का प्रश्न उठा था। आरोप यह था कि—
- सामान्य श्रद्धालुओं के लिए निर्धारित समय और नियमों को दरकिनार कर,
- धनवान व्यक्तियों को अतिरिक्त पैसे के बदले
- देवता के विश्राम काल (Resting Time) में भी पूजा-अर्चना की अनुमति दी जाती है।
इससे न केवल मंदिर की परंपरागत धार्मिक व्यवस्था प्रभावित होती है, बल्कि आम भक्तों में भी असमानता और असंतोष पैदा होता है।
सुप्रीम कोर्ट की तीखी टिप्पणी
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा—
“यह समझ से परे है कि केवल पैसे के आधार पर किसी को यह अनुमति कैसे दी जा सकती है कि वह देवता के विश्राम समय को भंग करे। भगवान भी एक निश्चित समय-सारिणी के अनुसार पूजे जाते हैं और उनका विश्राम भी उतना ही महत्वपूर्ण है।”
अदालत ने यह भी कहा कि ईश्वर के सामने सभी समान हैं, और पूजा-पद्धति में धन के आधार पर विशेष सुविधा देना संवैधानिक समानता और धार्मिक नैतिकता—दोनों के खिलाफ है।
देवता का विश्राम: धार्मिक महत्व
हिंदू धर्म और मंदिर परंपराओं में—
- देवता के जागरण, पूजा, भोग और विश्राम का एक निश्चित क्रम होता है।
- यह क्रम शास्त्रों, आगमों और सदियों पुरानी परंपराओं पर आधारित है।
देवता का विश्राम काल केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि धार्मिक अनुशासन और श्रद्धा का अभिन्न हिस्सा माना जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस पहलू पर टिप्पणी करते हुए कहा कि—
- यदि मंदिर प्रशासन स्वयं इन परंपराओं को धन के लिए तोड़ता है,
- तो यह आस्था की पवित्रता को कमजोर करता है।
वीआईपी पूजा संस्कृति पर सवाल
अदालत की टिप्पणी ने अप्रत्यक्ष रूप से देश में व्याप्त वीआईपी दर्शन और विशेष पूजा संस्कृति पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं।
आज कई बड़े मंदिरों में—
- सामान्य श्रद्धालु घंटों कतार में खड़े रहते हैं,
- जबकि विशेष शुल्क अदा करने वाले लोग
- सीधे गर्भगृह तक पहुंच जाते हैं,
- लंबी कतारों से बच जाते हैं,
- और कई बार तय समय से हटकर पूजा भी कर लेते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने संकेत दिया कि—
“जब मंदिरों में भी अमीर और गरीब के लिए अलग-अलग नियम बन जाते हैं, तो यह धर्म के मूल संदेश के विपरीत है।”
आस्था बनाम अर्थव्यवस्था
मंदिर प्रशासन अक्सर यह तर्क देता है कि—
- विशेष पूजा से प्राप्त धन का उपयोग
- मंदिर के रखरखाव,
- धार्मिक कार्यों,
- और सामाजिक सेवाओं में किया जाता है।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया। अदालत का कहना था कि—
- धार्मिक आस्था को राजस्व का साधन बनाना खतरनाक प्रवृत्ति है,
- और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि आर्थिक लाभ के लिए
धार्मिक अनुशासन और समानता से समझौता न हो।
संवैधानिक दृष्टिकोण: समानता का सिद्धांत
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 समानता का अधिकार देता है, जबकि अनुच्छेद 25 धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
सुप्रीम कोर्ट ने संकेत दिया कि—
- धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं है कि
- धन के आधार पर किसी को विशेष धार्मिक अधिकार दे दिए जाएं,
- और न ही यह कि
- आम भक्तों के अधिकारों की अनदेखी की जाए।
धर्म में समानता केवल सामाजिक मूल्य नहीं, बल्कि संवैधानिक आदर्श भी है।
पूर्व में भी उठ चुके हैं ऐसे सवाल
यह पहला अवसर नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट ने इस मुद्दे पर चिंता जताई हो।
पूर्व में भी अदालतें—
- वीआईपी दर्शन,
- विशेष पूजा शुल्क,
- और मंदिर प्रबंधन की मनमानी
पर सवाल उठाती रही हैं।
कुछ मामलों में अदालतों ने यह भी कहा है कि—
- मंदिर सार्वजनिक धार्मिक स्थल हैं,
- और वहां प्रशासन को सार्वजनिक हित और समानता का ध्यान रखना चाहिए।
आम श्रद्धालुओं की भावना
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद आम श्रद्धालुओं में सकारात्मक प्रतिक्रिया देखी जा रही है।
कई भक्तों का मानना है कि—
- मंदिरों में बढ़ती व्यावसायिकता
आस्था को नुकसान पहुंचा रही है।
उनका कहना है—
“भगवान के दरबार में अमीर-गरीब का फर्क नहीं होना चाहिए। यदि पैसे से ही सब कुछ तय होगा, तो श्रद्धा का क्या अर्थ रह जाएगा?”
मंदिर प्रशासन के लिए संदेश
अदालत की यह टिप्पणी मंदिर ट्रस्टों और प्रबंधन समितियों के लिए एक स्पष्ट संदेश है कि—
- वे धार्मिक परंपराओं का सम्मान करें,
- पूजा-पद्धति में अनुचित हस्तक्षेप न करें,
- और धन के आधार पर विशेषाधिकार देने से बचें।
यह भी संकेत मिलता है कि भविष्य में—
- यदि इस तरह की प्रथाएं चुनौती दी जाती हैं,
- तो न्यायालय सख्त रुख अपना सकता है।
धर्म और न्याय का संतुलन
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि—
- अदालतें धर्म में हस्तक्षेप नहीं करना चाहतीं,
- लेकिन जब धार्मिक प्रथाएं
- समानता,
- नैतिकता
- और सार्वजनिक व्यवस्था
के खिलाफ जाती हैं,
तो न्यायिक समीक्षा आवश्यक हो जाती है।
निष्कर्ष
मंदिरों में पैसे देकर विशेष पूजा की अनुमति पर सुप्रीम कोर्ट की आलोचना केवल एक कानूनी टिप्पणी नहीं है, बल्कि यह धार्मिक नैतिकता और सामाजिक समानता से जुड़ा गहरा संदेश है।
अदालत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि—
- ईश्वर के समक्ष सभी समान हैं,
- और धन के आधार पर विशेष पूजा या समय-सारिणी में बदलाव
न तो धार्मिक रूप से उचित है और न ही संवैधानिक रूप से।
यह टिप्पणी उन सभी संस्थाओं और व्यक्तियों के लिए एक चेतावनी है जो—
- आस्था को सुविधा और विशेषाधिकार में बदलने की कोशिश कर रहे हैं।
आने वाले समय में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि—
- क्या मंदिर प्रशासन इस संदेश को आत्मसात करता है,
- और क्या वास्तव में पूजा और दर्शन की व्यवस्था
समानता, श्रद्धा और अनुशासन के मूल सिद्धांतों की ओर लौटती है।