“पूर्व CJI पर कीचड़ उछालने की अनुमति नहीं: सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल कुलपति नियुक्ति विवाद में जस्टिस यू.यू. ललित की रिपोर्ट मांगने वाली याचिका को खारिज किया”
भूमिका:
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक अत्यंत महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए स्पष्ट किया कि वह न्यायपालिका की गरिमा की रक्षा करने के अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटेगा। यह टिप्पणी उस समय आई जब पश्चिम बंगाल में विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति से संबंधित मामले में एक तीसरे पक्ष ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस यू.यू. ललित द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की मांग की। न्यायालय ने उक्त याचिका को सख्ती से खारिज करते हुए कहा कि वह किसी पूर्व CJI पर ‘मिट्टी उछालने’ (mudslinging) की इजाजत नहीं देगा।
मामले की पृष्ठभूमि:
पश्चिम बंगाल में हाल के वर्षों में विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्तियों को लेकर व्यापक विवाद उत्पन्न हुआ। राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच टकराव, नियुक्तियों में पारदर्शिता की कमी, और अकादमिक स्वतंत्रता को लेकर कई याचिकाएं विभिन्न न्यायालयों में दाखिल की गईं। सुप्रीम कोर्ट ने मामले की गंभीरता को देखते हुए पूर्व प्रधान न्यायाधीश यू.यू. ललित को एक स्वतंत्र फैक्ट-फाइंडिंग रिपोर्ट तैयार करने के लिए नियुक्त किया। इस रिपोर्ट का उद्देश्य नियुक्तियों की वैधता और प्रक्रियागत कमियों का विश्लेषण करना था।
याचिका का सार:
एक गैर-पक्षकार (third party petitioner) ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर यह मांग की कि जस्टिस यू.यू. ललित द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाए और इसे सभी पक्षों को देखने की अनुमति दी जाए। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि चूंकि यह मामला सार्वजनिक हित से जुड़ा है, अतः रिपोर्ट को गोपनीय रखने से पारदर्शिता के सिद्धांतों का उल्लंघन होगा।
सुप्रीम कोर्ट की सख्त प्रतिक्रिया:
मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने याचिका को खारिज करते हुए तीव्र प्रतिक्रिया दी। पीठ ने स्पष्ट कहा:
“हम न्यायालय की गरिमा को गिराने और एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश पर कीचड़ उछालने की अनुमति नहीं दे सकते। यदि अदालत को वह रिपोर्ट देखने की आवश्यकता होगी, तो वह उसे देखेगी, पर किसी बाहरी व्यक्ति की मांग पर नहीं।”
न्यायालय ने यह भी जोड़ा कि रिपोर्ट एक सम्माननीय पूर्व CJI द्वारा न्यायालय के निर्देश पर तैयार की गई थी, और उस पर सार्वजनिक चर्चा या आलोचना की इजाजत देना न्यायिक संस्था की साख को चोट पहुंचा सकता है।
न्यायिक स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा:
यह निर्णय न्यायपालिका के उस मौलिक सिद्धांत को उजागर करता है, जिसमें न्यायालय न केवल निष्पक्ष न्याय देने के लिए प्रतिबद्ध है, बल्कि वह इस प्रक्रिया में शामिल व्यक्तियों की प्रतिष्ठा और निष्पक्षता की रक्षा भी करता है। विशेष रूप से जब बात एक ऐसे न्यायाधीश की हो जो देश के सर्वोच्च न्यायिक पद पर रह चुका हो, तो न्यायालय का रुख और भी गंभीर हो जाता है।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह न्यायपालिका की प्रतिष्ठा, निष्पक्षता और न्यायिक प्रक्रिया की स्वतंत्रता की सुरक्षा में एक मिसाल भी स्थापित करता है। यह स्पष्ट संदेश देता है कि भारत की न्यायपालिका ऐसे किसी भी प्रयास को स्वीकार नहीं करेगी, जो उसके वरिष्ठतम सदस्यों की साख को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करे।
यह मामला दर्शाता है कि न्याय केवल निर्णय देना नहीं है, बल्कि न्याय की प्रक्रिया को भी निष्कलंक और पवित्र बनाए रखना न्यायालय का कर्तव्य है।