“वसीयत की वैधता पर संदेह: पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा पारदीप चोपड़ा बनाम मीनू कपूर (RSA-3237-2025 O&M)”
🔹 भूमिका
वसीयत (Will) व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात उसकी संपत्ति के वितरण का एक महत्वपूर्ण कानूनी साधन है। भारतीय कानून में वसीयत की वैधता को लेकर कई बार विवाद उत्पन्न होते हैं, विशेषकर जब उसके निर्माण के समय की परिस्थितियाँ संदिग्ध हों।
हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने “Pardeep Chopra & Another v. Meenu Kapoor & Others (RSA-3237-2025 O&M)” में वसीयत की वैधता पर एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसमें न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि जब वसीयत के निर्माण में गंभीर संदेह (suspicious circumstances) हों और उन संदेहों का संतोषजनक निराकरण न किया जाए, तो ऐसी वसीयत को मान्य नहीं ठहराया जा सकता।
🔹 प्रकरण की पृष्ठभूमि
इस प्रकरण में विवाद उस वसीयत को लेकर था जो कथित रूप से मृतक द्वारा की गई थी।
वसीयत के प्रवर्तक (propounders) — पारदीप चोपड़ा और अन्य — ने यह दावा किया कि मृतक ने अपनी संपत्ति की वसीयत उनके पक्ष में की थी। दूसरी ओर, प्रतिवादी — मीनू कपूर और अन्य — ने वसीयत की सत्यता और वैधता पर गंभीर प्रश्न उठाए।
मुख्य विवाद इस बात पर था कि क्या वसीयत वास्तव में मृतक की स्वतंत्र इच्छा से बनाई गई थी, या वह किसी छल, दबाव, अथवा अनियमित प्रक्रिया का परिणाम थी।
🔹 वसीयत से जुड़े संदिग्ध तथ्य (Suspicious Circumstances)
न्यायालय ने वसीयत की जांच के दौरान कई ऐसे तथ्यों को रेखांकित किया जो उसकी प्रामाणिकता पर गंभीर संदेह उत्पन्न करते थे। ये परिस्थितियाँ निम्नलिखित थीं —
- वसीयत पूर्व-हस्ताक्षरित खाली कागज पर लिखी गई थी
- वसीयत जिस कागज पर लिखी गई, वह पहले से हस्ताक्षरित (pre-signed blank sheet) था।
- ऐसी स्थिति में यह संभावना बनती है कि वसीयत बाद में तैयार की गई हो या उसमें छेड़छाड़ की गई हो।
- मार्जिन का असामान्य रूप से खाली छोड़ा जाना
- दस्तावेज़ के बाईं ओर का लगभग आधा हिस्सा खाली छोड़ा गया था।
- सामान्यतः कानूनी दस्तावेज़ में इतना बड़ा खाली स्थान नहीं छोड़ा जाता, जिससे यह संदेह उत्पन्न होता है कि बाद में कुछ जोड़ने या बदलने की मंशा रही होगी।
- लेखन का क्रमिक परिवर्तन
- न्यायालय ने पाया कि वसीयत की शुरुआत में लिखावट छोटी और सघन थी, परंतु धीरे-धीरे अंत तक वह बड़ी और फैलती हुई हो गई।
- यह दर्शाता है कि लेखन निरंतर नहीं था या किसी और व्यक्ति ने बीच में लेखन किया हो सकता है।
- कंपकंपाहट (trembling hands) के बावजूद स्वाभाविक हस्ताक्षर
- साक्षियों ने कहा कि उस समय मृतक के हाथ कांपते थे (trembling hands), परंतु वसीयत पर किया गया हस्ताक्षर अत्यंत सहज, प्रवाहपूर्ण और निरंतर था।
- इससे यह स्पष्ट हुआ कि हस्ताक्षर मृतक के द्वारा न होकर किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किए जाने की संभावना है।
- लेखक और गवाहों की गवाही में असंगति
- वसीयत तैयार करने वाले लेखक (scribe) और गवाहों की गवाही में विरोधाभास पाए गए।
- किसी ने कहा कि वसीयत एक ही बैठक में बनी, जबकि अन्य ने कहा कि यह कई बार में लिखी गई।
इन सभी परिस्थितियों ने वसीयत की वैधता को संदेह के घेरे में ला दिया।
🔹 कानूनी प्रावधान : भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 63 (Section 63 of Indian Evidence Act)
Section 63 वसीयत की वैधता के लिए आवश्यक प्रावधानों का उल्लेख करती है।
इसके अनुसार, वसीयत को सिद्ध करने के लिए आवश्यक है कि:
- वसीयत का निर्माण और हस्ताक्षर या अंगूठे का निशान वसीयतकर्ता (testator) द्वारा किया गया हो।
- यह हस्ताक्षर उसकी स्वतंत्र इच्छा से किया गया हो।
- कम से कम दो गवाहों की उपस्थिति में वसीयतकर्ता ने दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए हों।
- उन दोनों गवाहों ने वसीयतकर्ता के समक्ष हस्ताक्षर किए हों।
यदि इनमें से कोई भी शर्त संदिग्ध या अप्रमाणित हो, तो वसीयत को मान्य नहीं माना जा सकता।
🔹 न्यायालय का विश्लेषण
पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने इस मामले में विस्तृत परीक्षण किया और निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया —
(1) संदेह का भार (Burden of Proof)
न्यायालय ने कहा कि वसीयत प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति (propounder) पर यह भार होता है कि वह यह सिद्ध करे कि वसीयत वास्तविक और स्वतंत्र इच्छा से बनाई गई है।
यदि वसीयत संदिग्ध परिस्थितियों में बनी है, तो वसीयत के प्रवर्तक को उन संदेहों को पूर्णतः दूर करना आवश्यक है।
(2) स्वाभाविकता और विश्वसनीयता
वसीयत का स्वरूप, भाषा और हस्ताक्षर स्वाभाविक नहीं थे। न्यायालय ने माना कि यदि मृतक के हाथ कांपते थे, तो उनका हस्ताक्षर इतना सहज नहीं हो सकता। इससे यह सिद्ध हुआ कि दस्तावेज़ कृत्रिम रूप से तैयार किया गया।
(3) गवाहों की विश्वसनीयता
गवाहों के बयान परस्पर विरोधाभासी थे। किसी गवाह ने कहा कि वसीयत पर हस्ताक्षर लेखक की उपस्थिति में हुआ, जबकि दूसरे ने इसे नकारा।
ऐसी असंगति से यह साबित हुआ कि वसीयत तैयार करने की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं थी।
(4) लेखन की अनियमितता
न्यायालय ने दस्तावेज़ का भौतिक परीक्षण कर यह पाया कि शुरुआत में अक्षर छोटे हैं और अंत में बड़े होते चले गए।
यह दर्शाता है कि दस्तावेज़ निरंतर रूप से नहीं लिखा गया था — संभव है कि वह अलग-अलग समय या हाथों से लिखा गया हो।
🔹 न्यायालय का निष्कर्ष
इन सभी तथ्यों के आधार पर, न्यायालय ने यह निष्कर्ष निकाला कि —
“वसीयत के निर्माण की प्रक्रिया में इतनी अधिक संदिग्ध परिस्थितियाँ हैं कि उनका संतोषजनक निराकरण नहीं किया जा सका। अतः वसीयत को वैध नहीं माना जा सकता और उसे प्रमाण के रूप में अस्वीकार किया जाता है।”
इस प्रकार, अदालत ने निचली अदालतों के निर्णय को बरकरार रखा और अपील खारिज कर दी।
🔹 निर्णय का महत्व
यह निर्णय इस बात को रेखांकित करता है कि वसीयत केवल हस्ताक्षर या दस्तावेज़ की मौजूदगी मात्र से वैध नहीं हो जाती।
न्यायालय वसीयत की वैधता का मूल्यांकन करते समय परिस्थितियों की स्वाभाविकता, वसीयतकर्ता की मानसिक स्थिति, गवाहों की सच्चाई, और लेखन की संगति जैसे सभी पहलुओं पर विचार करता है।
इस निर्णय से उत्पन्न मुख्य सिद्धांत:
- वसीयत की वैधता साबित करने का भार सदैव प्रवर्तक (propounder) पर होता है।
- यदि वसीयत संदिग्ध परिस्थितियों में बनी है, तो केवल औपचारिक साक्ष्य पर्याप्त नहीं होता।
- वसीयत की हर परिस्थिति का तार्किक और विश्वसनीय स्पष्टीकरण आवश्यक है।
- कंपकंपाहट या बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति के हस्ताक्षर यदि अत्यधिक सहज प्रतीत हों, तो यह एक गंभीर संदेह का कारण है।
🔹 अन्य समान न्यायिक उदाहरण
यह निर्णय भारतीय न्यायपालिका के पूर्ववर्ती निर्णयों की परंपरा से मेल खाता है, जैसे कि —
- H. Venkatachala Iyengar v. B.N. Thimmajamma (AIR 1959 SC 443)
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वसीयत की वैधता पर संदेह हो तो प्रवर्तक को उन संदेहों का संतोषजनक निराकरण करना चाहिए।
- Jaswant Kaur v. Amrit Kaur (1977) 1 SCC 369
- न्यायालय ने कहा कि जब वसीयत में कोई असामान्य या संदिग्ध तत्व हो, तो उसका स्पष्ट प्रमाण आवश्यक है।
- Sridevi v. Jayaraja Shetty (2005) 2 SCC 784
- सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराया कि वसीयत की वैधता की पुष्टि के लिए परिस्थितियाँ प्राकृतिक, स्वाभाविक और संदेह-रहित होनी चाहिए।
पारदीप चोपड़ा मामले में भी न्यायालय ने इन्हीं सिद्धांतों का अनुपालन किया।
🔹 निष्कर्ष
“Pardeep Chopra & Another v. Meenu Kapoor & Others (RSA-3237-2025 O&M)” का यह निर्णय एक महत्वपूर्ण नज़ीर है जो यह स्पष्ट करता है कि वसीयत की वैधता केवल तकनीकी औपचारिकताओं पर नहीं, बल्कि उसकी नैतिक और तथ्यात्मक विश्वसनीयता पर भी निर्भर करती है।
जब किसी वसीयत के निर्माण में —
- हस्ताक्षर का स्वरूप अप्राकृतिक हो,
- लेखन में असंगति हो,
- गवाहों की गवाही विरोधाभासी हो,
- और वसीयत पूर्व-हस्ताक्षरित कागज़ पर लिखी गई हो —
तो ऐसी वसीयत पर न्यायालय स्वाभाविक रूप से संदेह करेगा।
यह निर्णय नागरिक मुकदमों में “suspicious circumstances” के सिद्धांत को पुनः मजबूत करता है और यह संदेश देता है कि सत्यनिष्ठा, पारदर्शिता और प्रामाणिकता ही किसी वसीयत की सबसे बड़ी वैधता हैं।
🔹 निष्कर्षात्मक टिप्पणी
वसीयत व्यक्ति की “अंतिम इच्छा” होती है, जिसे न्यायालय अत्यंत सम्मान और सावधानी से परखता है।
परंतु जब उस इच्छा की अभिव्यक्ति कृत्रिम, अस्वाभाविक या मनगढ़ंत प्रतीत होती है, तो न्यायालय उस दस्तावेज़ को “अविश्वसनीय” घोषित करने में संकोच नहीं करता।
पारदीप चोपड़ा बनाम मीनू कपूर का यह निर्णय भविष्य में ऐसे मामलों में मार्गदर्शक सिद्ध होगा, जहाँ वसीयत की सत्यता पर संदेह उत्पन्न हो। यह न केवल विधिक प्रक्रिया की गंभीरता को रेखांकित करता है, बल्कि न्यायिक सतर्कता की भावना को भी दर्शाता है।