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पूर्व-अधिग्रहण का अधिकार (Right to Pre-emption): केवल किरायेदारी वाले हिस्से तक सीमित अधिकार

पूर्व-अधिग्रहण का अधिकार (Right to Pre-emption): केवल किरायेदारी वाले हिस्से तक सीमित अधिकार — पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय

परिचय

भारतीय संपत्ति कानून में “पूर्व-अधिग्रहण का अधिकार” (Right to Pre-emption) एक अत्यंत रोचक और विवादास्पद अवधारणा है। यह अधिकार किसी व्यक्ति को यह अनुमति देता है कि जब संपत्ति बेची जा रही हो, तो वह तीसरे पक्ष से पहले उस संपत्ति को समान शर्तों पर खरीद सके। यह अधिकार अक्सर पड़ोसी, सह-मालिक या किरायेदार को प्राप्त होता है, ताकि अजनबी व्यक्ति का प्रवेश रोककर सामाजिक एवं आर्थिक स्थिरता बनी रहे।
हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने इस अधिकार से संबंधित एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि किरायेदार को केवल उसी हिस्से में पूर्व-अधिग्रहण का अधिकार होगा, जिसमें उसकी किरायेदारी है; सम्पूर्ण संपत्ति पर नहीं। इस निर्णय ने “Right to Pre-empt” की सीमाओं को नए सिरे से परिभाषित किया है।


मामले की पृष्ठभूमि

इस मामले में याचिकाकर्ता एक किरायेदार था, जो कई वर्षों से प्रतिवादी की भूमि के एक हिस्से पर खेती कर रहा था। प्रतिवादी (भूमि-मालिक) ने पूरी भूमि को किसी तीसरे पक्ष को विक्रय कर दिया। जब याचिकाकर्ता को इस विक्रय की जानकारी मिली, तो उसने “पूर्व-अधिग्रहण का अधिकार” (Right of Pre-emption) का दावा करते हुए अदालत में याचिका दायर की।
उसका तर्क था कि, एक किरायेदार के रूप में उसे पूरी भूमि को समान शर्तों पर खरीदने का प्रथम अधिकार है, भले ही उसकी वास्तविक किरायेदारी केवल एक हिस्से में हो।

दूसरी ओर, खरीदार और विक्रेता ने यह दलील दी कि याचिकाकर्ता का अधिकार केवल उसी हिस्से तक सीमित है, जहाँ वह किरायेदार है। पूरी भूमि पर दावा करना कानूनन अनुचित और अव्यवहारिक है।


मुख्य विधिक प्रश्न

न्यायालय के समक्ष यह प्रमुख प्रश्न था कि:
“क्या किरायेदार को सम्पूर्ण संपत्ति पर पूर्व-अधिग्रहण का अधिकार प्राप्त है, या केवल उसी हिस्से पर जिसमें उसकी किरायेदारी विद्यमान है?”


न्यायालय का विश्लेषण

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने दोनों पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद विस्तारपूर्वक विचार किया। न्यायालय ने निम्नलिखित बिंदुओं पर अपना ध्यान केंद्रित किया—

(1) पूर्व-अधिग्रहण का सिद्धांत (Doctrine of Pre-emption)

न्यायालय ने कहा कि पूर्व-अधिग्रहण का अधिकार कोई “अधिकार-स्वामित्व” नहीं है, बल्कि एक “सीमित वैधानिक विशेषाधिकार” (Limited Statutory Privilege) है। इसका उद्देश्य केवल यह सुनिश्चित करना है कि कोई अजनबी व्यक्ति संपत्ति में प्रवेश कर सामाजिक संतुलन न बिगाड़े।
यह अधिकार किसी मौलिक या संवैधानिक अधिकार के समान नहीं है, बल्कि राज्य कानूनों द्वारा नियंत्रित और सीमित है।

(2) किरायेदार का अधिकार सीमित क्षेत्र में

न्यायालय ने कहा कि यदि किरायेदार किसी संपत्ति के केवल एक भाग में किराए पर रहता या खेती करता है, तो वह केवल उसी हिस्से के संदर्भ में पूर्व-अधिग्रहण का दावा कर सकता है।
यदि किरायेदार पूरी भूमि पर कब्जा नहीं रखता, तो उसे पूरी संपत्ति पर “pre-emption” का दावा करने की अनुमति देना कानून के विरुद्ध होगा।

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि —

“The right of pre-emption is co-extensive with the right of possession or tenancy. A tenant cannot pre-empt the sale of that portion of land which he never occupied or cultivated.”

(3) समानता और न्याय का सिद्धांत

यदि किरायेदार को पूरी भूमि पर अधिकार दे दिया जाए, तो यह उस खरीदार के साथ अन्याय होगा जिसने वैधानिक रूप से पूरी संपत्ति खरीदी है। इसलिए, न्यायालय ने संतुलन बनाते हुए कहा कि किरायेदार का अधिकार केवल उसकी किरायेदारी तक सीमित रहेगा।


न्यायालय का निर्णय

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि—

  1. किरायेदार को केवल उसी भूमि-भाग में “पूर्व-अधिग्रहण का अधिकार” प्राप्त है, जहाँ उसकी वास्तविक किरायेदारी है।
  2. संपत्ति के उस हिस्से पर, जिसमें वह कभी किरायेदार नहीं रहा, वह पूर्व-अधिग्रहण का दावा नहीं कर सकता।
  3. किरायेदार का अधिकार “partial pre-emption” तक सीमित है — अर्थात् केवल उसके अधिभोग वाले क्षेत्र तक।

इस आधार पर न्यायालय ने याचिकाकर्ता की याचिका आंशिक रूप से स्वीकार की और उसे केवल किरायेदारी वाले हिस्से में ही खरीद का अधिकार दिया।


विधिक प्रावधानों की व्याख्या

यह निर्णय विशेष रूप से Punjab Pre-emption Act, 1913 और इससे संबंधित न्यायिक व्याख्याओं पर आधारित था।
धारा 15 के तहत, “tenant” को “pre-emptor” की श्रेणी में रखा गया है, परंतु यह अधिकार सीमित है। न्यायालय ने यह कहा कि इस धारा की व्याख्या करते समय भूमि-स्वामित्व और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का ध्यान रखना आवश्यक है।


पूर्ववर्ती न्यायिक दृष्टांत

न्यायालय ने अपने निर्णय में कुछ पुराने मामलों का भी उल्लेख किया, जिनमें समान व्याख्या की गई थी:

  1. Bhag Singh v. Om Parkash (AIR 1970 P&H 232) – इसमें कहा गया था कि किरायेदार केवल उसी हिस्से पर “pre-empt” कर सकता है, जो उसकी वास्तविक किरायेदारी में हो।
  2. Abdul Rahman v. Shahabuddin (AIR 1957 SC 436) – सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि पूर्व-अधिग्रहण का अधिकार एक “weak right” है, जिसे कड़े प्रमाण की आवश्यकता होती है।
  3. Sardara Singh v. Harbhajan Singh (1992 PLJ 481) – किरायेदार को सम्पूर्ण संपत्ति पर पूर्व-अधिग्रहण का अधिकार नहीं दिया जा सकता, यदि उसकी किरायेदारी केवल कुछ हिस्से में हो।

निर्णय का महत्व

यह निर्णय कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है:

  1. संपत्ति के अधिकारों का संरक्षण: न्यायालय ने यह सुनिश्चित किया कि वैध खरीदार के अधिकारों का हनन न हो।
  2. किरायेदार के अधिकारों की सीमा: यह निर्णय किरायेदार के अधिकारों की स्पष्ट सीमाएँ तय करता है।
  3. कानूनी संतुलन: इसने भूमि स्वामित्व और किरायेदारी के बीच संतुलन बनाए रखा।
  4. भविष्य के मुकदमों के लिए मार्गदर्शन: यह फैसला उन सभी मामलों के लिए मिसाल बनेगा जहाँ किरायेदार सम्पूर्ण भूमि पर “pre-emption” का दावा करते हैं।

व्यावहारिक प्रभाव

  • अब किरायेदारों को यह समझना होगा कि उनका “Right to Pre-emption” केवल उनकी वास्तविक किरायेदारी तक सीमित है।
  • भूमि-मालिकों और खरीदारों के लिए यह निर्णय आश्वस्ति प्रदान करता है कि उनकी वैध खरीद को केवल इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि भूमि के किसी हिस्से में कोई किरायेदार मौजूद है।
  • न्यायालयों में इस तरह के मामलों की सुनवाई के दौरान यह निर्णय एक ठोस precedent के रूप में उद्धृत किया जाएगा।

निष्कर्ष

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का यह निर्णय संपत्ति कानून की न्यायसंगत व्याख्या का उत्कृष्ट उदाहरण है। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि पूर्व-अधिग्रहण का अधिकार न तो सम्पूर्ण स्वामित्व का अधिकार है, न ही यह अनंत है।
यह केवल एक “कानूनी सुविधा” (legal privilege) है, जो समाजिक व्यवस्था और संपत्ति संतुलन बनाए रखने के लिए दिया गया है। अतः किरायेदार को सम्पूर्ण भूमि पर नहीं, बल्कि केवल अपने अधिभोग वाले हिस्से तक ही पूर्व-अधिग्रहण का अधिकार प्राप्त होगा।


👉 निष्कर्ष रूप में, यह निर्णय भूमि संबंधों की वास्तविकता, न्याय के सिद्धांतों और वैधानिक सीमाओं का उत्कृष्ट समन्वय प्रस्तुत करता है। यह बताता है कि “Pre-emption” का अधिकार केवल तब तक मान्य है, जब तक वह न्यायसंगत और सीमित दायरे में प्रयोग किया जाए।