“पुलिस पूछताछ के दौरान वकील की मौजूदगी की अनुमति देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी किया” — नागरिक अधिकारों और पुलिस प्रक्रिया पर बड़ा सवाल
प्रस्तावना
भारत का संविधान प्रत्येक व्यक्ति को मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जिनमें से एक सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है — निष्पक्ष जांच और न्याय की गारंटी। परंतु पुलिस पूछताछ (Police Interrogation) के दौरान आरोपी व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन, उत्पीड़न और ज़बरदस्ती बयान लेने जैसी घटनाएं अक्सर सामने आती रहती हैं।
इसी पृष्ठभूमि में हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया (Supreme Court of India) ने एक याचिका पर नोटिस जारी किया है, जिसमें मांग की गई है कि पुलिस पूछताछ के दौरान वकील (Lawyer/Advocate) की उपस्थिति की अनुमति दी जाए ताकि आरोपी के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जा सके।
यह मामला न केवल पुलिस और आरोपी के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रश्न है, बल्कि यह भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में मानवाधिकारों और निष्पक्ष जांच के अधिकार की नई व्याख्या भी प्रस्तुत करता है।
मामले की पृष्ठभूमि (Background of the Case)
याचिकाकर्ता (Petitioner), जो एक सामाजिक कार्यकर्ता और कानूनी विशेषज्ञ हैं, ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका (Public Interest Litigation – PIL) दाखिल की।
इस याचिका में कहा गया कि —
“भारत में पुलिस पूछताछ के दौरान आरोपी व्यक्ति को अक्सर प्रताड़ित किया जाता है, उससे ज़बरदस्ती बयान लिए जाते हैं और कई बार हिरासत में अत्याचार (Custodial Torture) के कारण मृत्यु तक हो जाती है। यदि आरोपी का वकील पूछताछ के दौरान उपस्थित रहे, तो ऐसी घटनाओं में भारी कमी आ सकती है।”
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 (Article 21 – Right to Life and Personal Liberty) तथा अनुच्छेद 22(1) (Right to Consult a Legal Practitioner) के अंतर्गत आता है।
साथ ही, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक निर्णय D.K. Basu vs State of West Bengal (1997) और Nandini Satpathy vs P.L. Dani (1978) का भी उल्लेख किया, जिनमें पुलिस पूछताछ के दौरान आरोपी के अधिकारों की सुरक्षा पर बल दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट का नोटिस (The Supreme Court’s Response)
मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी. वाय. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार, गृह मंत्रालय और सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया है।
अदालत ने यह पूछा कि —
“क्या आरोपी व्यक्ति को पुलिस पूछताछ के दौरान अपने वकील की मौजूदगी का अधिकार दिया जा सकता है, और यदि हाँ, तो किन शर्तों के साथ?”
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को ‘महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रश्न’ बताते हुए कहा कि यह न केवल आरोपी के मौलिक अधिकारों से जुड़ा है बल्कि पुलिस के विवेकाधिकार और जांच की स्वतंत्रता से भी संबंधित है।
वकील की उपस्थिति का संवैधानिक आधार
1. अनुच्छेद 21 – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार
अनुच्छेद 21 कहता है कि किसी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया (Procedure Established by Law) के अनुसार ही उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जा सकता है।
इसका अर्थ यह है कि पुलिस पूछताछ या हिरासत में कोई भी अत्याचार या ज़बरदस्ती बयान लेना इस अनुच्छेद का उल्लंघन होगा।
2. अनुच्छेद 22(1) – विधिक सलाह का अधिकार
यह अनुच्छेद कहता है कि हर व्यक्ति जिसे गिरफ्तार किया गया है, उसे “अपने वकील से परामर्श लेने और उससे बचाव करवाने का अधिकार” है।
हालाँकि अब तक अदालतों ने इस अधिकार को “पूछताछ से पहले या बाद में वकील से मिलने” तक सीमित रखा है, न कि पूछताछ के दौरान उसकी मौजूदगी तक।
3. अनुच्छेद 20(3) – आत्म-अभियोग से सुरक्षा
कोई भी व्यक्ति स्वयं के खिलाफ गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। वकील की उपस्थिति इस संवैधानिक सुरक्षा को और मज़बूत कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्ववर्ती निर्णयों का संदर्भ
- Nandini Satpathy v. P.L. Dani (1978)
न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने कहा था कि पूछताछ के दौरान आरोपी को यह अधिकार है कि वह अपने वकील से परामर्श ले सके। अदालत ने यह भी कहा कि किसी व्यक्ति को ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता जो उसे अपराधी सिद्ध करें। - D.K. Basu v. State of West Bengal (1997)
इस ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस हिरासत में अत्याचार को रोकने के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए। अदालत ने कहा कि गिरफ्तारी और पूछताछ के दौरान आरोपी के अधिकारों की रक्षा अनिवार्य है। - Joginder Kumar v. State of U.P. (1994)
अदालत ने कहा कि गिरफ्तारी का उद्देश्य किसी व्यक्ति को दंडित करना नहीं, बल्कि जांच के लिए आवश्यक कदम उठाना है। पुलिस को किसी व्यक्ति को मनमाने ढंग से नहीं पकड़ना चाहिए।
इन सभी निर्णयों का सार यही है कि पुलिस पूछताछ के दौरान आरोपी के अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायपालिका लगातार हस्तक्षेप करती रही है।
याचिकाकर्ता के मुख्य तर्क (Petitioner’s Arguments)
- हिरासत में अत्याचार की रोकथाम:
यदि पूछताछ के दौरान वकील मौजूद रहे, तो पुलिस द्वारा उत्पीड़न या ज़बरदस्ती बयान लेने की संभावना काफी कम हो जाएगी। - मानवाधिकारों की सुरक्षा:
भारत ने अंतरराष्ट्रीय संधियों जैसे UN Convention Against Torture पर हस्ताक्षर किए हैं। ऐसे में यह देश का दायित्व है कि वह हिरासत में होने वाले अत्याचार को रोके। - पारदर्शिता और निष्पक्षता:
पूछताछ में वकील की मौजूदगी जांच प्रक्रिया को पारदर्शी बनाएगी और अदालत में प्रस्तुत बयान की वैधता को भी सुनिश्चित करेगी। - न्यायिक निगरानी:
अदालत की निगरानी में इस अधिकार को सीमित दायरे में लागू किया जा सकता है, ताकि जांच प्रक्रिया बाधित न हो।
केंद्र सरकार और राज्यों का दृष्टिकोण (Likely Government Stand)
केंद्र सरकार और राज्य सरकारें संभवतः यह तर्क देंगी कि —
- वकील की मौजूदगी से पुलिस जांच की गोपनीयता और प्रभावशीलता प्रभावित होगी।
- कई मामलों में आरोपी का वकील पुलिस को बाधित कर सकता है या सबूतों को छिपाने में मदद कर सकता है।
- इसलिए यदि यह अनुमति दी जाती है, तो इसे सीमित परिस्थितियों में ही लागू किया जाना चाहिए — जैसे गंभीर अपराधों में, या तब जब अदालत इसकी अनुमति दे।
अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य (International Perspective)
- संयुक्त राज्य अमेरिका (U.S.A.)
अमेरिका में “Miranda Rights” के तहत हर व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह पूछताछ से पहले और दौरान अपने वकील से सलाह ले सके।
यदि पुलिस बिना वकील की मौजूदगी के पूछताछ करती है, तो दिया गया बयान अदालत में मान्य नहीं होता। - यूनाइटेड किंगडम (U.K.)
पुलिस एंड क्रिमिनल एविडेंस एक्ट, 1984 (PACE) के तहत आरोपी व्यक्ति को पुलिस पूछताछ के दौरान कानूनी सलाहकार की उपस्थिति का अधिकार है। - यूरोपियन कन्वेंशन ऑन ह्यूमन राइट्स (ECHR):
यह स्पष्ट रूप से कहता है कि “Fair Trial” का हिस्सा है — आरोपी को अपने वकील की सहायता प्राप्त करने का अधिकार।
भारत यदि इस दिशा में कदम उठाता है, तो यह अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप होगा।
संभावित प्रभाव और निहितार्थ (Implications of the Decision)
- नागरिक स्वतंत्रता की सुरक्षा:
यह कदम आरोपी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों को और सशक्त बनाएगा। - पुलिस जवाबदेही में वृद्धि:
पुलिसकर्मी पूछताछ के दौरान अधिक जिम्मेदारी से काम करेंगे और किसी भी प्रकार के मानसिक या शारीरिक अत्याचार से बचेंगे। - न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता:
यदि पूछताछ रिकॉर्ड की जाएगी और वकील उपस्थित रहेगा, तो अदालत में प्रस्तुत सबूतों की विश्वसनीयता बढ़ेगी। - प्रशासनिक चुनौतियाँ:
सरकार को पुलिस थानों में “Interrogation Rooms” को सीसीटीवी और कानूनी परामर्श की व्यवस्था से लैस करना होगा।
संभावित सीमाएँ (Possible Limitations)
- यह अधिकार पूर्ण नहीं हो सकता। अदालत इस पर शर्तें लगा सकती है, जैसे —
- वकील केवल “दृश्य दूरी पर” (visible distance) पर रहे, ताकि वह हस्तक्षेप न करे।
- यह अधिकार केवल कुछ गंभीर मामलों तक सीमित हो।
- सुरक्षा कारणों से पुलिस को सीमित विवेकाधिकार दिया जाए।
मानवाधिकार और न्याय के दृष्टिकोण से महत्व
यह याचिका भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पूछताछ की प्रक्रिया को “मानवाधिकार-संवेदनशील” (Human Rights Sensitive) बनाने की दिशा में एक बड़ा कदम है।
भारत में हिरासत में अत्याचार और मौतों के कई मामले राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) के समक्ष आते हैं।
यदि वकील की मौजूदगी सुनिश्चित की जाती है, तो ऐसे मामलों में भारी कमी आ सकती है और पुलिस की कार्यप्रणाली अधिक संवैधानिक रूप ले सकेगी।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय कि वह इस विषय पर विचार करेगा, एक ऐतिहासिक कदम है।
यदि अदालत यह अधिकार प्रदान करती है, तो यह भारतीय लोकतंत्र में “कानून के शासन” (Rule of Law) को और मजबूत करेगा।
न्याय का सार यह नहीं है कि अपराधी को सज़ा मिले, बल्कि यह भी कि निर्दोष को न्याय मिले।
वकील की उपस्थिति यह सुनिश्चित कर सकती है कि पुलिस की शक्तियों का दुरुपयोग न हो और हर आरोपी व्यक्ति को निष्पक्ष सुनवाई का अवसर मिले।